(यह पहले ही लिखा गया था..लेकिन अखबारों में जगह हासिल नहीं कर पाया)
उमेश चतुर्वेदी
उमेश चतुर्वेदी
2001
में गुजरात की सत्ता संभालने के बाद नरेंद्र मोदी का यह तीसरा समर था और संभवत: सबसे
ज्यादा चुनौतीपूर्ण भी। ऐसे माहौल में जब उन्हें प्रधानमंत्री पद के सबसे प्रबल
दावेदार के तौर पर देखा जा रहा हो, कायदे से यह चुनाव उनके लिए सबसे ज्यादा आसान
होना चाहिए था। फिर वे उत्तर प्रदेश के किसी नेता की तरह की प्रधानमंत्री पद के
उम्मीदवार नहीं हैं, जहां कई लोग पहले ही प्रधानमंत्रित्व संभाल चुके हैं। गुजरात
की माटी के वे पहले बेटे हैं, जिन्हें कायदे से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के
तौर पर देखा जा रहा है।
ऐसे में पूरे गुजरात को उनके साथ टूटकर उतर पड़ना चाहिए था। ऐसे नेताओं के लिए पार्टी और उससे जुड़े जाति और वोटों के दूसरे समीकरण उतने मायने नहीं रखते, कायदे से मौजूदा गुजरात विधानसभा चुनाव में ऐसा ही होना चाहिए था। लेकिन विपक्षी खेमे और और संघ परिवार में भी उन्हें दिल से ना चाहने वालों के एक वर्ग के आकलन पर भरोसा किया जाय तो मौजूदा चुनाव में ऐसा कुछ नहीं हुआ है। मगर भूले से भी अगर ऐसा ही हो गया तो फिर नरेंद्र मोदी की विराट विजय से रोक पाना आसान नहीं होगा। तब भारतीय राजनीति में वे उस उंचाई पर पहुंच चुके होंगे, जिसे छू पाना किसी दूसरे राजनेता के लिए आसान नहीं होगा। लेकिन इसके लिए बीस दिसंबर तक इंतजार करना होगा, जब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से गुजरात का जिन्न निकलेगा और वह देश के इस सबसे चर्चित नेता का भविष्य तय करेगा।
ऐसे में पूरे गुजरात को उनके साथ टूटकर उतर पड़ना चाहिए था। ऐसे नेताओं के लिए पार्टी और उससे जुड़े जाति और वोटों के दूसरे समीकरण उतने मायने नहीं रखते, कायदे से मौजूदा गुजरात विधानसभा चुनाव में ऐसा ही होना चाहिए था। लेकिन विपक्षी खेमे और और संघ परिवार में भी उन्हें दिल से ना चाहने वालों के एक वर्ग के आकलन पर भरोसा किया जाय तो मौजूदा चुनाव में ऐसा कुछ नहीं हुआ है। मगर भूले से भी अगर ऐसा ही हो गया तो फिर नरेंद्र मोदी की विराट विजय से रोक पाना आसान नहीं होगा। तब भारतीय राजनीति में वे उस उंचाई पर पहुंच चुके होंगे, जिसे छू पाना किसी दूसरे राजनेता के लिए आसान नहीं होगा। लेकिन इसके लिए बीस दिसंबर तक इंतजार करना होगा, जब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से गुजरात का जिन्न निकलेगा और वह देश के इस सबसे चर्चित नेता का भविष्य तय करेगा।
ऐसे
हालात के बावजूद नरेंद्र मोदी के लिए यह चुनाव बेहद जटिल रहा। ऐसे में जब चुनाव
बीत चुका है, निश्चित तौर पर नरेंद्र मोदी थोड़ी राहत महसूस कर रहे होंगे। इसकी
वजह है मौजूदा चुनाव में मिली कई चुनौतियां। पता नहीं उन्हें संघ परिवार कितना
नापसंद या पसंद कर रहा है, लेकिन पूरे चुनाव के दौरान ऐसी खबरें आती रहीं कि उनका
मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी नहीं चाहता कि वे चौथी बार जीत हासिल करके
गुजरात की गद्दी पर काबिज हो सकें। संघ परिवार का एक धड़ा इसे अफवाह ही मानता रहा।
लेकिन अगर यह अफवाह भी है तो संजय जोशी के साथ अतीत में उनके व्यवहार ने उनके
समर्थकों तक को ऐसा मानने के लिए मजबूर किया। भारतीय जनता पार्टी का एक तबका
निश्चित तौर पर उनके एकोहं वाली नीति के चलते दिल से कम ही पसंद करता है। इसके
बावजूद उनकी कामयाबी यही रही कि उन्होंने गुजरात का पूरा चुनाव सिर्फ अकेले दम पर
लड़ा है। बेशक लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरूण जेटली, राजनाथ सिंह जैसे
नेताओं ने प्रचार अभियान में हिस्सा लिया, लेकिन इससे कोई दो-राय नहीं है कि पूरा
का पूरा चुनाव सिर्फ एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द लड़ा गया। लेकिन सबसे बड़ी बात यह
है कि इस बार नरेंद्र मोदी सिर्फ एक बार ही चुनाव का एजेंडा तय कर पाए। जब
उन्होंने सर क्रीक को पाकिस्तान को देने का मुद्दा उछाला और कांग्रेस को एक हद तक
रक्षात्मक होना पड़ा। हालांकि कांग्रेस के प्रवक्ता रहे सूचना और प्रसारण मंत्री
मनीष तिवारी को छोड़ दें तो कांग्रेस ने पूरी तरह संयम का परिचय दिया। याद कीजिए
2007 के चुनाव को। तब नरेंद्र मोदी सिर्फ तीन ही नाम लेते थे और तीनों में उनका
जोर उनके धर्म विशेष पर होता था। उनके निशाने पर थीं सोनिया गांधी और उन्हें वे
सोनिया माइनो के ही नाम से याद करते थे। उनके निशाने पर थे तत्कालीन पाकिस्तानी
तानाशाह परवेज मुशर्रफ और उन पर हमला करते वक्त मोदी उन्हें सिर्फ मियां मुशर्रफ
पर जोर देते थे। तत्कालीन चुनाव में उनके निशाने पर थे तत्कालीन मुख्य चुनाव
आयुक्त जेम्स माइकल लिंगदोह और उन्होंने साफ चुनाव कराने के लिए गुजरात की मशीनरी
के पुर्जों को कस दिया तो मोदी ने इसको भी अपने विरोध में दिखाने की कोशिश की और
उनका जोर जेम्स माइकल पर रहा था। तब माना गया कि उन्होंने एक साथ इस्लाम और ईसाई
दोनों धर्मों को निशाने पर ले लिया। 2002 के चुनावों के बारे में तो उन पर आरोप है
ही कि उन्होंने पूरा चुनाव सिर्फ गुजरात दंगों के नाम पर ही लड़ा था। तब गुजरात के
ध्रुवीकरण के चलते चुनौती मिली ही नहीं। बेशक केशुभाई इस बार गुजरात परिवर्तन
पार्टी के साथ और भारतीय जनता पार्टी के विधायक डॉक्टर कानूभाई कलसानिया अपने
सद्भावना मंच के नाम पर मोदी की राह में रोड़े बिछाने की कोशिश में जुटे हुए हैं।
लेकिन ऐसा नहीं कि उनकी राह में अपनों ने पहली बार ऐसी रूकावट डालने की कोशिश की
है। उनके राजनीतिक गुरू माने जाते रहे शंकर सिंह बाघेला ने जहां 2002 में उनके
खिलाफ अभियान चलाया, वहीं 2007 में भी केशुभाई नाराज चल रहे थे। लेकिन मोदी की एक
खासियत है कि वे अपने साथ रहे लोगों के खिलाफ सार्वजनिक रूप से कभी कुछ नहीं
बोलते। 2002 में बाघेला और 2007 और मौजूदा चुनाव में उन्होंने केशुभाई के खिलाफ
कुछ नहीं बोला। अलबत्ता बीजेपी के स्टार प्रचारक नवजोत सिंह सिद्धू ने केशुभाई को
देशद्रोही क्या बोल दिया, उन्हें चुनाव प्रचार से बाहर ही कर दिया।
लेकिन
एक बात इस बार कांग्रेस की माननी पड़ेगी कि उसने मोदी को चुनाव का एजेंडा तय करने
नहीं दिया। चाहे गुजरात के किसानों को महंगी बिजली देने का मसला हो या फिर राज्य
में 108 नंबर की एंबुलेंस देने का मसला या फिर राज्य के विकास का मुद्दा, इस बार
सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने मुद्दे तय किए और नरेंद्र मोदी प्रतिक्रिया देते
रहे। 2007 में हिंसा का सौदागर बताने वाली सोनिया गांधी और उनकी कांग्रेस ने इस
बार जितने संयम का परिचय दिया है, उसके लिए कांग्रेस की तारीफ करनी होगी। कांग्रेस
सचिव मोहन प्रकाश की अगुआई में इस बार गुजरात कांग्रेस ने पूरी कोशिश की कि धर्म
के आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण का एक भी मौका उसकी तरफ से मोदी को ना मिले।
निश्चित तौर पर इसमें अर्जुन मोढवादिया का भी साथ रहा। माना जा रहा है कि छात्र
आंदोलन की राजनीति से उभरे मोहन प्रकाश ने अपनी छात्र राजनीति के अनुभवों का पूरा
फायदा उठाया। छात्र राजनीति में कई बार मुद्दे ही राजनीतिक हालात को बदल देते हैं।
मोदी बेशक छात्र राजनीति से नहीं उभरे हैं, लेकिन 74 के छात्र आंदोलन में वे भी
सक्रिय रहे हैं और छात्र राजनीति के इस छापामार अभियान को वह देखते रहे हैं। लेकिन
इस बार मोहन प्रकाश ने उनकी छापामार शैली को काबू करने में कामयाब रहे। अगर गुजरात
में मोदी कमजोर होते हैं या पिछली बार से उनका प्रदर्शन कमतर रहता है तो निश्चित
तौर पर इसका श्रेय मोहन प्रकाश और उनकी रणनीति को ही जाएगा। पंद्रह साल से गुजरात
की सत्ता पर लगातार काबिज बीजेपी के सामने कांग्रेस अब तक भले ही चुनाव लड़ने की
कोशिश करती नजर आती रही हो, लेकिन अव्वल तो यह है कि वह निराश हो चुकी थी। बेशक
उसकी निराशा की राह में कभी सांप्रदायिकता विरोधी स्वयंसेवी संगठनों के मुकदमों ने
रूकावट डाली तो कभी अमेरिका और यूरोप से मोदी को वीजा के इनकार ने। इस हालात में
कांग्रेस का संगठन भी कमजोर हो चुका था। ऐसे में कांग्रेस को मोदी के सामने खड़ा
करना आसान नहीं था। लेकिन गुजरात कांग्रेस के कुछ नेताओं के सहयोग से बताया जा रहा
है कि मोहन प्रकाश ने तमाम ग्रुपों से जो लगातार संपर्क अभियान बनाए रखा, उसका ही
असर है कि मोदी इस बार ज्यादा घिरे नजर आए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस
अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल गुजरात से ही आते हैं। गुजरात
कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि इस बार अहमद पटेल की टिकट बांटने में
भी नहीं चली। तो क्या यह मान लिया जाय कि मोदी का गुजरात कांग्रेस के अंदरूनी हलके
में भी नया इतिहास लिखने जा रहा है। इसका जवाब तो कांग्रेस के पक्ष में या मोदी को
कमतर दिखाते राजनीतिक नतीजे ही दे पाएंगे। लेकिन यह भी तय है कि कांग्रेस की इतनी
कवायद के बावजूद अगर वे एक बार फिर गुजरात की सत्ता पर काबिज हो पाते हैं तो
उन्हें रोक पाना आसान नहीं होगा। लेकिन साथ ही यह भी नहीं भूलना होगा कि कांग्रेस
की इस ब्यूह रचना के चलते उन्हें लोकसभा चुनावों के दौरान गुजरात पर ज्यादा ध्यान
देने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
मोदी शेर दिल है।
ReplyDeleteमोदी शेर दिल है।
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