उमेश चतुर्वेदी
अपने
समाज को लोकतांत्रिक बताते नहीं अघाते...लेकिन हकीकत तो यह है कि अब भी सिर्फ अपनी
राजनीतिक व्यवस्था ही लोकतांत्रिक ढांचे को अख्तियार कर पाई है। कुछ मसलों में अब
भी वह लोकतांत्रिक धारा को अपनाने की प्रक्रिया में भी है। लेकिन अपना समाज और
समाज में विमर्श की आधारभूमि अब भी लोकतांत्रिक नहीं हो पाई है। इसलिए कई बार
आरक्षण जैसे मसले को लेकर जो विमर्श है, उसमें लोकतांत्रिक उदारता गायब है। इसलिए
यहां जब भी कोई आरक्षण के मौजूदा ढांचे और उससे होने वाले फायदे-नुकसान पर सवाल
उठाता है, वैसे ही उसे प्रतिगामी या रूढ़िवादी ठहरा दिया जाता है। यही वजह है कि
ऐसे मसलों पर आमतौर पर वैसी खुली वैचारिकता नहीं दिख पाती, जिसकी उम्मीद की जाती
है।