उमेश चतुर्वेदी
लखनऊ से प्रकाशित समकालीन सरोकार में प्रकाशित....आत्मकथ्य वहां प्रकाशित नहीं हुआ है..
आत्मकथ्य:
आगत
की राजनीतिक मीमांसा निश्चित तौर पर विगत की नींव पर खड़ी होती है। ऐसे में सवाल
यह उठना स्वाभाविक है कि आखिर भावी राजनीतिक पूर्वानुमान ज्यादातर ध्वस्त क्यों हो
जाते हैं? चूंकि ज्यादातर राजनीतिक पूर्वानुमानों में
ईमानदारी की सुगंध कम होती है, अपने आग्रह और पूर्वाग्रह मीमांसकों के अपने
व्यक्तित्व पर हावी हो जाते हैं। बेशक यह मानव स्वभाव है, लिहाजा इससे बचने की
उम्मीद पालना भी कई लोगों को बेकार लगता है। लेकिन कालजयी रचनाधर्मिता और
पत्रकारिता इस मानव स्वभाव से उपर उठने के बाद ही सामने आती है। भीड़तंत्र को
मानवीय आग्रह जितना आकर्षित करते हैं, कालजयी शख्सियतों को वे उतने ही निर्विकार
रहने को मजबूर करते हैं। ऐसे ही वक्त में प्रख्यात पत्रकार राजेंद्र माथुर की
बातें याद आती हैं। उनका कहना था कि पत्रकार संजय की तरह सिर्फ और सिर्फ दर्शक
होता है और उसका काम घटनाओं को रिपोर्ट भर कर देना होता है।