राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित
उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली
में झकझोर देने वाली बलात्कार की घटना को सिर्फ मानसिकता से ही जोड़कर देखा जा रहा
है। इसका दूसरा पहलू कानून-व्यवस्था से जुड़ा मामला भी है। लेकिन यह
कानून-व्यवस्था से भी आगे सामाजिकता और सार्वजनिक परिवहन के चारित्रीकरण का भी
मामला है।सभ्य समाज में सार्वजनिक परिवहन कैसा होना चाहिए, उसे संभालने और चलाने
वाले कैसे होने चाहिए और क्या उसका भी सभ्य चरित्र होना चाहिए, दुर्भाग्यवश इसकी
तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। सार्वजनिक परिवहन में बलात्कार निश्चित रूप से
गंभीर और संगीन मसला है। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि जब सार्वजनिक परिवहन का
कोई चारित्रीकरण नहीं होता तो उसमें चारित्रिक पतन की शुरूआत यात्रियों से बदसलूकी
से शुरू होती है और बात छेड़खानी, छिनैती-झपटैती से आगे बढ़ते हुए बलात्कार तक जा
पहुंचती है।