एक टिप्पणी लिखी थी कहीं के लिए ...प्रकाशित नहीं हो पाई... आपकी सेवामें हाजिर है
किसकी नाकामी है बोडोलैंड में हिंसा
असम के बोडो इलाके के तीन जिले इन दिनों जल रहे हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इस हिंसा में पैंतीस लोगों की मौत हो चुकी है। केंद्रीय गृहमंत्रालय की चेतावनी और असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई के दावों के बावजूद हिंसा पर अब तक काबू नहीं पाया जा सका है। ऐसे मसलों में अब तक जैसा होता रहा है, वैसा इस बार भी हो रहा है। हिंसा पर काबू रख पाने में नाकाम साबित हुए तरूण गोगोई इस हिंसा के पीछे राजनीतिक साजिश की आशंका जता रहे हैं। ऐसा करके दरअसल वे हिंसा की असल वजह और अपनी अक्षमता को ही झुठलाने की कोशिश कर रहे हैं। इस हिंसा की आशंका तभी से थी, जब से स्वायत्त बोडो क्षेत्रीय परिषद यानी बीटीसी बनी है। अलग बोडोलैंड राज्य की मांग को लेकर आंदोलन चला रहे नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड और इसके विरोधी दोनों संगठनों गैर बोडो सुरक्षा मंच और अखिल बोडोलैंड मुस्लिम छात्रसंघ के बीच खींचतान काफी पुरानी है। बोडोलैंड विरोधी खेमों के दोनों संगठनों के ज्यादातर कार्यकर्ता मुस्लिम हैं और वे खुलकर इसका विरोध कर रहे हैं। बोडोलैंड समर्थक लोग मानते हैं कि दोनों संगठनों के पीछे कांग्रेस का ही अघोषित और परोक्ष हाथ रहा है। बोडोलैंड समर्थक और विरोधियों के बीच खींचतान इन दिनों ज्यादा बढ़ गयी है। अगर राज्य सरकार यह कहती है कि उसे इस खींचतान और इससे उपजे तनाव की जानकारी नहीं थी तो वह गलत बोल रही है। दरअसल इन दिनों बोडोलैंड समर्थक और विरोधियों ने अपनी-अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन तेज कर दिया था। जाहिर है कि इन प्रदर्शनों और उससे उपजे तनाव को खत्म कराने की जिम्मेदारी बोडो समुदाय की ही थी। लेकिन सरकार ऐसा करने में नाकाम रही। इस तनाव को और बढ़ावा मिला बोडोलैंड विरोधियों की तरफ से उठी उस मांग के बाद, जिसमें उन गांवों को बोडो इलाकों से अलग रखने की मांग की गई, जहां की आधी से ज्यादा आबादी गैर बोडो समुदाय की है। इस मांग के पीछ सबसे बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि बोडो क्षेत्रीय परिषद यानी बीटीसी बनने के बाद बोडो इलाके में कानून-व्यवस्था की हालत खराब हो चुकी है। बहरहाल इस मांग ने दोनों तरह के संगठनों के बीच तनाव को इस कदर बढ़ा दिया कि दोनों तरह के संगठनों के कार्यकर्ता एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। इसे मौका मिला 16 जुलाई को कोकराझार में हुई अखिल बोडोलैंड मुस्लिम छात्रसंघ के दो कार्यकर्ताओं की हत्या से। इस हत्या के बाद भी सरकार चेत गई होगी तो बोडो इलाके में हो रही हत्याओं को रोका जा सकता था और लाखों लोगों को शरणार्थी की तरह रहने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि राज्य सरकार बोडो और गैर बोडो लोगों के बीच भरोसा बहाली की कोशिशों के साथ ही हिंसाचारियों के खिलाफ कठोर कदम उठाए। अन्यथा दोनों समुदायों के बीच जारी यह विवाद नासूर बन सकता है।
किसकी नाकामी है बोडोलैंड में हिंसा
असम के बोडो इलाके के तीन जिले इन दिनों जल रहे हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इस हिंसा में पैंतीस लोगों की मौत हो चुकी है। केंद्रीय गृहमंत्रालय की चेतावनी और असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई के दावों के बावजूद हिंसा पर अब तक काबू नहीं पाया जा सका है। ऐसे मसलों में अब तक जैसा होता रहा है, वैसा इस बार भी हो रहा है। हिंसा पर काबू रख पाने में नाकाम साबित हुए तरूण गोगोई इस हिंसा के पीछे राजनीतिक साजिश की आशंका जता रहे हैं। ऐसा करके दरअसल वे हिंसा की असल वजह और अपनी अक्षमता को ही झुठलाने की कोशिश कर रहे हैं। इस हिंसा की आशंका तभी से थी, जब से स्वायत्त बोडो क्षेत्रीय परिषद यानी बीटीसी बनी है। अलग बोडोलैंड राज्य की मांग को लेकर आंदोलन चला रहे नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड और इसके विरोधी दोनों संगठनों गैर बोडो सुरक्षा मंच और अखिल बोडोलैंड मुस्लिम छात्रसंघ के बीच खींचतान काफी पुरानी है। बोडोलैंड विरोधी खेमों के दोनों संगठनों के ज्यादातर कार्यकर्ता मुस्लिम हैं और वे खुलकर इसका विरोध कर रहे हैं। बोडोलैंड समर्थक लोग मानते हैं कि दोनों संगठनों के पीछे कांग्रेस का ही अघोषित और परोक्ष हाथ रहा है। बोडोलैंड समर्थक और विरोधियों के बीच खींचतान इन दिनों ज्यादा बढ़ गयी है। अगर राज्य सरकार यह कहती है कि उसे इस खींचतान और इससे उपजे तनाव की जानकारी नहीं थी तो वह गलत बोल रही है। दरअसल इन दिनों बोडोलैंड समर्थक और विरोधियों ने अपनी-अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन तेज कर दिया था। जाहिर है कि इन प्रदर्शनों और उससे उपजे तनाव को खत्म कराने की जिम्मेदारी बोडो समुदाय की ही थी। लेकिन सरकार ऐसा करने में नाकाम रही। इस तनाव को और बढ़ावा मिला बोडोलैंड विरोधियों की तरफ से उठी उस मांग के बाद, जिसमें उन गांवों को बोडो इलाकों से अलग रखने की मांग की गई, जहां की आधी से ज्यादा आबादी गैर बोडो समुदाय की है। इस मांग के पीछ सबसे बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि बोडो क्षेत्रीय परिषद यानी बीटीसी बनने के बाद बोडो इलाके में कानून-व्यवस्था की हालत खराब हो चुकी है। बहरहाल इस मांग ने दोनों तरह के संगठनों के बीच तनाव को इस कदर बढ़ा दिया कि दोनों तरह के संगठनों के कार्यकर्ता एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। इसे मौका मिला 16 जुलाई को कोकराझार में हुई अखिल बोडोलैंड मुस्लिम छात्रसंघ के दो कार्यकर्ताओं की हत्या से। इस हत्या के बाद भी सरकार चेत गई होगी तो बोडो इलाके में हो रही हत्याओं को रोका जा सकता था और लाखों लोगों को शरणार्थी की तरह रहने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि राज्य सरकार बोडो और गैर बोडो लोगों के बीच भरोसा बहाली की कोशिशों के साथ ही हिंसाचारियों के खिलाफ कठोर कदम उठाए। अन्यथा दोनों समुदायों के बीच जारी यह विवाद नासूर बन सकता है।