Thursday, September 11, 2008

पूर्वांचल दुर्दशा देखि ना जाई !

उमेश चतुर्वेदी
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने करीब सवा सौ साल पहले अंग्रेजी सरकार के जमाने में देश की दुर्दशा देखकर लिखा था – भारत दुर्दशा देखि न जाई। तब वे काशी में रहते थे। काशी यानी वाराणसी में बैठे भारतेंदु को देश की दुर्दशा देखी नहीं गई। तब उन्होंने कलम उठा ली थी। आज उन्हीं की काशी समेत पूरा पूर्वी उत्तर प्रदेश भारी बारिश की परेशानियों से जूझ रहा है। करीब दो महीने से लगातार जारी बारिश ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में भारी तबाही मचा रखी है। बीस अगस्त को हुई भारी बारिश ने तो वाराणसी शहर में घुटने-घुटने तक पानी में डूब गया। लोगों का कहना है कि ऐसी बारिश पिछले पचास साल में नहीं हुई।
जब दुनियाभर में हिंदुओं के पवित्र तीर्थ के रूप में विख्यात वाराणसी की ये हालत है तो दूसरे दूसरे जिलों की क्या हालत होगी-इसका अंदाजा लगाना आसान है। हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि काशी में जिसकी मौत होती है – उसे स्वर्ग मिलता है। लेकिन भारी बरसात ने शहर को नरक में तब्दील कर दिया है। लेकिन शहर पर किसी का ध्यान नहीं है। न तो सूबे की सरकार का – ना ही केंद्र सरकार। जब जगमोहन केंद्रीय संस्कृति मंत्री थे तो उन्होंने वाराणसी की गलियों को चमकाने और कुछ वैसा ही साफ-सुथरा तीर्थस्थान बनाने की तैयारी की थी – जैसा उन्होंने जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल रहते वैष्णो देवी को बनाया था। दुर्भाग्यवश मायावती के विरोध के चलते उन्हें मंत्रिमंडल से हटा दिया गया और काशी को तीन लोकन ते न्यारी बनाने की उनकी तैयारियां धरी की धरी रह गईं।

सवाल सिर्फ वाराणसी की ही बदहाली का नहीं है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में 22 जिले आते हैं। मिर्जापुर, इलाहाबाद,वाराणसी, आजमगढ़ और गोरखपुर कमिश्नरी में बंटे इन जिलों में इस साल इतनी बारिश हुई है कि गांव के गांव तालाब के तौर पर नजर आ रहे हैं। मक्का, ज्वार और उड़द जैसी खरीफ की फसलें पूरी तरह नष्ट हो चुकी हैं। धान से लहलहाने वाले इस पूरे इलाके में कहीं – कहीं ही धान की फसल नजर आ रही है। यही हालत लाखों हेक्टेयर में हो रही गन्ने की खेती का भी है। सब्जियों की तो बात ही मत पूछिए। दिल्ली और मुंबई में सब्जियों की कीमत जब चढ़ने लगती है तो राष्ट्रीय मीडिया की बड़ी-बड़ी सुर्खियां बन जाती है। लेकिन सब्जी के उत्पादन के लिए इस मशहूर इलाके में सब्जियों की फसल पूरी तरह नष्ट हो चुकी है। लिहाजा पूरे इलाके में इनकी कीमत में भारी वृद्धि हुई है। गरीबों की थाली से सब्जियां गायब हो गई हैं। लेकिन इसकी कहीं कोई चर्चा नहीं है।
बारिश को लेकर राज्य प्रशासन कितना सचेत है – इसका उदाहरण है कि कई जिलों में कितनी बारिश हुई – इसका ठीक-ठीक आंकड़ा प्रशासन के पास मौजूद नहीं है। सन 2001 से पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक बड़ा इलाका सूखे की मार झेलता रहा है। अकेले बलिया की ही बात करें तो 2001 में बलिया में करीब 950 मिली बारिश रिकॉर्ड की गई। अगले साल महज 711 मिली ही बारिश हुई। सबसे खराब हालत रही 2005 में – जब सिर्फ 629 मिली ही बारिश हुई। लेकिन इस साल हालात ये हैं कि 18 अगस्त तक ही 1081 मिली बारिश हो चुकी है। शुरू में बारिश की फुहारों ने पूर्वांचल के लोगों को मोहित किया। लेकिन जब 45 दिनों तक हर दिन हो रही बारिश ने लोगों को परेशान कर दिया। शायद ही कोई गांव होगा- जहां दो-एक मकान न गिरे हों। बलिया के सिंचाई विभाग के अधिशासी अभियंता पी सी यादव के मुताबिक बारिश ने पचास साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। इसके चलते यहां की नदियां उफान पर हैं। घाघरा और गंगा के किनारे वाले हजारों गांवों का संपर्क कट चुका है। पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में शायद ही कोई नदी होगी- जिसने समंदर का रूप नहीं धारण कर लिया है। बलिया, गाजीपुर और आजमगढ़ जैसे गरीबी और बदहाल जिलों में कई मकान भरभराकर गिर गए और उसमें रहने वाले लोगों की दबकर मौत हो गई। लेकिन उनका कोई पुरसा हाल जानने वाला नहीं हैं।
गरीबी और बदहाली पूर्वांचल की स्थाई पहचान है। दिलचस्प बात ये है कि इसी इलाके से सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी को ज्यादा समर्थन मिला है। बलिया की सभी आठ विधानसभा सीटें बसपा की झोली में गई हैं। आजमगढ़ की भी यही हालत है। लेकिन राज्य सरकार के कान पर अभी तक जूं नहीं रेंगी है। अधिकारियों का कहना है कि सूखा के लिए आपदा का प्रावधान सरकारी आदेश में तो है – लेकिन अतिवृष्टि के लिए कोई प्रावधान नहीं है। ऐसे में राहत के लिए कोई उपाय नहीं किए गए हैं। नही इस ओर प्रशासन का कोई ध्यान है।
सबसे ज्यादा परेशानी की बात ये है कि खरीफ की फसल पूरी तरह चौपट हो जाने के कारण इस बार गरीब और मजदूर तबके के लोगों को खाद्यान्न के संकट का सामना करना पड़ेगा। जिन परिवारों को बाहरी आमदनी का सौभाग्य मयस्सर नहीं है, उनके लिए अगले कुछ महीनों में भोजन का संकट उठ खड़ा होने वाला है। फसलें तबाह होने के चलते खेतिहर मजदूरों के लिए काम भी नहीं रह गया है। रोजाना होने वाली बारिश ने नरेगा के तहत होने वाले कामों पर भी ब्रेक लगा दिया है। ऐसे में मजदूरी करके गुजारा करने वालों के सामने ना सिर्फ रोजी- बल्कि कुछ दिनों में रोटी का भी संकट आने वाला है। लेकिन प्रशासन इस सिलसिले में चौकस नहीं दिख रहा।
जहां तक राज्य सरकार का सवाल है तो उसका ध्यान प्रशासन और लोकहित से ज्यादा अगले साल होने वाले आम चुनावों को लेकर जोड़-घटाव करने में है। ताकि उसकी मुखिया को देश का प्रधानमंत्री बनना आसान हो। सारे जतन और उपाय इसे ही ध्यान में रखकर किए जा रहे हैं। पूर्वांचल में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी का चुनाव क्षेत्र रायबरेली है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी जिस अमेठी सीट से चुनकर आए हैं-वह भी इसी पूर्वांचल में है। बात-बात में पूर्वांचल की बदहाली का सवाल उठाने वाली कांग्रेस का अतिवृष्टि की ओर ध्यान नहीं है। ऐसे में पूरे इलाके की करीब चार करोड़ जनसंख्या ठगा सा महसूस कर रही है। हताश - निराश इलाके के लोगों को उम्मीद इन राजनेताओं से कहीं ज्यादा आसमानी देवता पर टिक गई है – बारिश रूके तो जिंदगी की रफ्तार आगे बढ़े।
यह लेख अमर उजाला में प्रकाशित हुआ है।

Wednesday, September 3, 2008

छद्म धर्मनिरपेक्षता से भी तो बचिए .....

यह लेख प्रख्यात पत्रकार उदयन शर्मा की स्मृति में गठित उदयन शर्मा फाउंडेशन ट्रस्ट की ओर से प्रकाशित किताब सांप्रदायिकता की चुनौती में प्रकाशित हुआ है।
उमेश चतुर्वेदी
इस लेख को शुरू करने से पहले अपने साथ घटी एक घटना का जिक्र करना जरूरी समझता हूं। शायद सन 2000 की घटना है। तब मैं दैनिक भास्कर के राजनीतिक ब्यूरो में कार्यरत था। हमारा दफ्तर दिल्ली के आईएनएस बिल्डिंग में था। एक शाम बिल्डिंग के बाहर चाय की दुकान पर अपने कुछ सहकर्मी दोस्तों के साथ चाय पी रहा था- तभी एक पत्रकार मित्र वहां नमूदार हुए। आते ही उन्होंने पूछा – क्या आप कभी आपने खाकी निक्कर पहनी है। स्कूली पढ़ाई के दिनों में पीटी की कक्षा में खाकी निक्कर पहनना जरूरी था। जाहिर है – मित्र के सवाल का जवाब मैंने हां में ही दिया। मेरे वे मित्र तब एक न्यूज चैनल की बंदी के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष कर रहे थे। वामपंथी रूझान वाले मेरे मित्र उन दिनों पूरे तेवर में हुआ करते थे। लिहाजा मेरी आत्मस्वीकृति ने उन्हें दिल्ली के पत्रकारीय हलकों में मुझे सांप्रदायिक और आरएसएस का कार्यकर्ता बताने का मौका मिल गया। इसका उन्होंने जमकर प्रचार भी किया। ये तो मुझे बाद में पता चला कि उनका आशय खाकी निक्कर के बहाने मेरे आरएसएस से संबंधों की जानकारी पाना था। इसकी जानकारी तब हुई, जब उनके और मेरे दो –एक परिचितों ने हर मुलाकात में पूछा कि क्या मैं आरएसएस का कार्यकर्ता रहा हूं। मैं हर किसी को सफाई देता फिरता रहा। लेकिन सवाल थे कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इसके बाद जब कोई मुझसे पूछता कि क्या आप आरएसएस की शाखा में जाते थे तो मेरा जवाब आक्रामक होता – आपको कोई एतराज है। कहना न होगा – मुझे आरएसएस का कार्यकर्ता बताने वाले वे क्रांतिकारी पत्रकार मित्र एक प्रमुख चैनल में काम करते हैं और अब उनका वामपंथी रूझान ठंडा पड़ गया है। इन दिनों उन्हें भूत-प्रेत से लेकर चुड़ैंलें नचाने का एक्सपर्ट माना जाता है।
ये एक घटना गवाह है कि कैसे प्रगतिशीलता का दावा करने वाले लोगों ने छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपने विरोधी लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यकर्ता घोषित करने में देर नहीं लगाई। इसका असर ये हुआ कि प्रगतिशीलता का दावा करने वालों के इसी रवैये ने लोगों को आरएसएस के नजदीक जाने में अहम भूमिका निभाई। कई बार तो खुद मुझे भी लगता था कि मैं क्यों ना आरएसएस का कार्यकर्ता बन गया। अगर इस हिसाब से देखा जाय तो स्वतंत्र भारत में इतिहास की धारा बदलने वाले जयप्रकाश नारायण और समाजवादी सपनों के चितेरे रहे जवाहरलाल नेहरू को भी संघ का कार्यकर्ता ठहराया जा सकता है। जिन्होंने अजीत भट्टाचार्जी की लिखी जेपी की जीवनी पढ़ी है – उन्हें पता है कि जेपी ऐसी प्रगतिशीलता के घोर विरोधी थे। उनका ये विरोध ही था कि उन्होंने 1974 के आंदोलन में वामपंथी दलों का साथ लेने की कोई मंजूरी नहीं दी। जवाहरलाल नेहरू ने भी पचास के दशक में एक बार गणतंत्र दिवस की परेड में आरएसएस को भी हिस्सा लेने के लिए बुलाया था। उनकी कैबिनेट में संघ की विचारधारा वाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी शामिल थे।
दरअसल नब्बे के बाद जिस तरह मंडल और कमंडल के आंदोलन ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदली, तब से खासतौर पर बौद्धिक वर्ग में लोगों की पहचान का एक ही पैमाना रहा गया – खाकी निक्कर। अगर आपने गाहे-बगाहे छद्म धर्मनिरपेक्षता की खिंचाई कर दी तो समझो - आप आरएसएस के आदमी हो गए। ये कुछ ऐसा ही है – जैसे सत्तर और अस्सी के दशक में अमेरिका की बात करने वाला हर शख्स सीआईए का आदमी माना जाता था। लेकिन आज हालत बदल गए हैं। आज व्यक्ति चाहे प्रगतिशील हो या फिर संघी-सबका सपना अमेरिका की धरती पर पांव रखने की है। कुछ यही हाल आज की धर्मनिरपेक्षता का भी है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले लोग भी जाति और धर्म की संकीर्णता से बाहर नहीं हैं। अगर रसूखदार पद पर हैं तो नौकरी देने- दिलाने, दमदार नेता हैं तो जाति और धर्म के आधार पर चुनाव का टिकट देने-दिलाने में वे भी जाति और धर्म का लिहाज करना अपना परमपुनीत कर्तव्य समझते हैं। लेकिन जब भी सामने माइक आया, लिखने – छपने का मंच मिला, वे धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं। जिस तरह साठ और सत्तर के दशक में वामपंथी और समाजवादी होना एक बौद्धिक शगल और फैशन बन गया था – कुछ यही हालत आज धर्मनिरपेक्षता को लेकर हो गई है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करिए और तमाम तरह की सुविधाएं भोगने का एकाधिकार पा जाइए। इसके लिए आपको सिर्फ मंचों – गोष्ठियों में अपनी सेक्युलर छवि का डंका बजानेभर की जरूरत है। भले ही हकीकत में आपका चेहरा कुछ और ही क्यों ना हो। एक दौर था – जब हकीकत में भी दक्षिणपंथी होने वाले लोग भी इस फैशन के सामने अपनी खाकी निक्कर का जिक्र करने से डरते थे। लेकिन भेड़िया आया की तर्ज पर धर्मनिरपेक्षता का अब जितना गान हो चुका है, उससे यह शब्द अपना अर्थबोध और भरोसा खोता जा रहा है। इसका असर है कि अब हकीकत के दक्षिणपंथियों को भी अब अपने आरएसएस से जुड़ाव को स्वीकार करने में हिचक नहीं रही।
संचार क्रांति के दौर में ऐसे लोग अब भी इसी भ्रम में जी रहे हैं कि जनता को वे जैसा समझाएंगे, वह उसी तरह मानती-समझती रहेगी। वे भूल जाते हैं कि पब्लिक अब सबकुछ समझती है। उसे पता है कि धर्मनिरपेक्षता का दम भरने वाले लोग भी अपनी जिंदगी में कितने धर्मनिरपेक्ष हैं। उसे हकीकत का भान है। इसीलिए आज धर्मनिरपेक्षता का दावा लोगों को लुभा नहीं पा रहा है। राजनीति में इसका असर दिख भी रहा है। नरेंद्र मोदी को कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने कठघरे में खड़ा करने की कम कोशिशें नहीं कीं। कर्नाटक में बीजेपी को सांप्रदायिक बताने का कोई मौका लोगों ने नहीं छोड़ा। लेकिन जनता इन सांप्रदायिक नरेंद्र मोदी और बीएस येदुरप्पा को ही चुना।
दरअसल धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले लोग इसका इतना गान कर चुके हैं कि उन पर जनता का भरोसा टूटता जा रहा है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाली ताकतों को देखिए। उन्हें आम जनता से ज्यादा अपने परिवार की चिंता कहीं ज्यादा है। मुलायम सिंह के घर में ही अब सबसे ज्यादा सांसद और विधायक होते हैं। धर्मनिरपेक्ष ओमप्रकाश चौटाला धर्मनिरपेक्षता के नाम पर परिवारवाद का ही विस्तार करते रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे एचडी देवेगौड़ा ने पिछले दिनों कर्नाटक में परिवारवाद का जो निर्लज्ज प्रदर्शन किया – वह लोगों के जेहन में अब भी ताजा है। इसका हश्र उन्हें कर्नाटक विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी की हार के तौर पर देखना पड़ा है। इस कड़ी में नया नाम मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व स्पीकर पीए संगमा हैं। उनका बेटा राज्य का उपमुख्यमंत्री है और बेटी नई सांसद। खुद तो विधायक हैं हीं। ये सभी लोग धर्मनिरपेक्ष हैं।
तो क्या ये मान लिया जाय कि धर्मनिरपेक्षता को सांप्रदायिक विरोध के नाम पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा देने का ठेका मिल जाता है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले नेता भले ही ये मानते रहे हों- लेकिन ये भी सच है कि इन ताकतों के इसी व्यवहार ने अब जनता की नजर में इनकी वकत घटा दी है। ऐसे में जनता को धर्मनिरपेक्षता को सांप्रदायिक विरोध के नाम पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा देने का ठेका मिल जाता है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले नेता भले ही ये मानते रहे हों- लेकिन ये भी सच है कि इन ताकतों के इसी व्यवहार ने अब जनता की नजर में इनकी वकत घटा दी है। ऐसे में जनता को अब भारतीय जनता पार्टी में भी दम नजर आने लगा है। भाजपा के उभार में लोगों को जबरिया सांप्रदायिक ठहराने और अपनी ढोल खुद ही ऊंची आवाज में बजाने वाले लोगों का जोरदार हाथ है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या सेक्युलर होने का दावा करने वाले लोग इस तथ्य को स्वीकार कर पाते हैं या नहीं।

Tuesday, August 5, 2008

भोजपुरी-मैथिली अकादमी का उद्घाटन

उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली विधानसभा की चुनावी आहट के बीच आखिरकार भोजपुरी मैथिली अकादमी का शुभारंभ हो ही गया। दिल्ली के श्रीराम सेंटर में पांच अगस्त की शाम जिस तरह पूरबिया लोग जुटे, उससे साफ है कि राजधानी की सांस्कृतिक दुनिया में अब भदेसपन के पर्याय रहे लोग अपनी छाप छोड़ने के लिए तैयार हो चुके हैं। राजधानी में चालीस लाख के करीब भोजपुरी और पूरबिया मतदाता हैं। जाहिर है दिल्ली सरकार की इस पर निगाह है। एक साथ मतदाताओं के इतने बड़े वर्ग को नजरअंदाज कर पाना आसान नहीं होगा। लिहाजा उन्हें भी एक अकादमी दे दी गई है। इस अकादमी के उद्घाटन समारोह की सबसे उल्लेखनीय चीज रही संजय उपाध्याय के निर्देशन में पेश विदेसिया की प्रस्तुति। भोजपुरी के भारतेंदु भिखारी ठाकुर की इस अमर रचना को संजय की टीम ने जबर्दस्त तरीके से पेश किया। खासतौर पर प्राण प्यारी की भूमिका में शारदा सिंह और बटोही की भूमिका में अभिषेक शर्मा का अभिनय शानदार रहा।
लेकिन इस उद्घाटन में खटकने वाली बात ये रही कि पूरी तरह सांस्कृतिक इस मंच को सियासी रंग देने की पुरजोर कोशिश की गई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपने निर्धारित वक्त से करीब तीन घंटे देर से पहुंचीं। और आखिर में मंच पर वे ही वे रहीं। अगर किसी ने उनका साथ दिया तो अकादमी के सदस्यों और उपाध्यक्ष ने। सांस्कृतिक मंच को सियासी को सियासी रंग देने मे आगे रहे अकादमी के सदस्य अजित दुबे - उन्होंने एक तरह से मौजूद दर्शकों से अपील ही कर डाली कि जो लोग आपके मान सम्मान का खयाल करते हैं - उनका खयाल आप भी रखिए। यानी शीला दीक्षित को नवंबर के विधानसभा चुनावों में वोट दीजिए।
उद्घाटन समारोह में एक बात और बार-बार खटकी। इस समारोह को भोजपुरी या मैथिली से ना जोड़कर बिहार से जोड़ दिया गया। भोजपुरी भाषा संस्कृति सिर्फ बिहार में नहीं है - बल्कि बस्ती से लेकर गोरखपुर, बलिया होते हुए बनारस तक उत्तर प्रदेश का एक बड़ा इलाका भोजपुरी भाषी है और राजधानी में वहां के बाशिंदे भी बहुत हैं। भोजपुरी का पर्याय बिहार नहीं है। अकादमी को ये सोचना होगा - अन्यथा आने वाले दिनों कई तरह की समस्याएं उठ खड़ी होंगी।

Friday, August 1, 2008

चला गया गठबंधन राजनीति का चाणक्य


उमेश चतुर्वेदी
राजनीति की दुनिया में शिखर पर हों और अदना से पत्रकार के फोन पर भी सामने आ जाएं - कम से कम आज की सियासी दुनिया में ऐसा कम ही नजर आता है। लेकिन हरिकिशन सिंह सुरजीत इनसे अलग थे। उनके गुजरने के बाद भी उनके घर के फोन की घंटी तो बजेगी - लेकिन खास अंदाज में ये..स की आवाज सुनाई नहीं देगी। सुरजीत जब तक स्वस्थ रहे, अपना फोन खुद ही उठाते थे। खास ढंग से येस की आवाज सुनाई देते ही एक आश्वस्ति बोध जागता था कि दार जी इंटरव्यू के लिए तैयार हो जाएंगे। ऐसे कई मौके आए भी - जब उन्होंने इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया, लेकिन कभी बुरा नहीं लगा।
दैनिक भास्कर के राजनीतिक ब्यूरो में काम करते वक्त सबसे जूनियर होने के नाते सीपीएम और सीपीआई मेरी ही बीट थी। आज का तेज बढ़ता अखबार जब तक मध्यप्रदेश और राजस्थान की ही सीमा में रहा,सीपीएम और सीपीआई से जुड़ी खबरों पर उसका न तो ज्यादा ध्यान था, ना ही उसकी जरूरत थी। नब्बे के दशक के आखिरी दिनों में इस बीट में कोई ग्लैमर भी नहीं था, लिहाजा तब के दैनिक भास्कर के वरिष्ठ और नामी रिपोर्टर शायद ही कभी दोनों पार्टियों की ओर रूख करते थे। ऐसे में नया होने के चलते मुझे ही ये बीट मिली। तभी मैंने जाना कि जिसे भारतीय राजनीति का चाणक्य कहा जाता है, वह निजी जिंदगी में कितना सहज है। ये स्थिति सीपीआई के महासचिव एबी वर्धन के भी साथ है। भारतीय राजनीति का चाणक्य उन्हें ऐसे ही नहीं कहा जाता था। गैर कांग्रेसवाद की लहर पर सवार विपक्ष को जब 1996 के चुनावों में बहुमत नहीं मिला तो यह सुरजीत ही थे, जिनकी वजह से देवेगौड़ा की अगुआई में कांग्रेस और वाम समर्थित सरकार बनी। जब देवेगौड़ा से नाराज होकर कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने संयुक्त मोर्चा की सरकार से समर्थन वापस ले लिया, तब भी सुरजीत ने हार नहीं मानी और इंद्रकुमार गुजराल की अगुआई में दूसरी सरकार बनाई। तब उनका एक उद्देश्य सांप्रदायिकता के नाम पर किसी भी कीमत पर भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में नहीं आने देना था। कहना न होगा , सुरजीत इसमें कामयाब रहे।
लेकिन दुर्भाग्यवश इंद्रकुमार गुजराल की भी सरकार नहीं टिक पाई। 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए और भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में एनडीए को बहुमत मिला। सुरजीत की तमाम कोशिशों के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। लेकिन 1999 में जब एक वोट से वाजपेयी सरकार गिर गई तो गैर कांग्रेसवाद का झंडा बुलंद करने वाले सुरजीत ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने की पुरजोर लेकिन नाकामयाब कोशिश की। दरअसल उनके ही चेले मुलायम सिंह ने कांग्रेस का साथ देने से इनकार कर दिया था। तब सुरजीत की सोनिया लाइन की सीपीएम में भी जमकर मुखालफत हुई। कई सांसदों ने खुद मुझसे सुरजीत की इस लाइन का विरोध जताया था। यहां यह ध्यान देने की बात है कि इन्हीं सुरजीत ने पार्टी के तेजतर्रार सांसद सैफुद्दीन चौधरी को 1996 में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। उनका गुनाह सिर्फ इतना था कि 1995 में हुए पार्टी के चंडीगढ़ कांग्रेस में उन्होंने सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए सीपीएम को कांग्रेस की लाइन पर चलने का सुझाव दिया था। तब पार्टी सैफुद्दीन चौधरी के इस सुझाव को पचा नहीं पाई और उनका टिकट तक काट दिया था। आज जब सोमनाथ चटर्जी को सीपीएम से निकाल दिया गया है – एक बार फिर सैफुद्दीन चौधरी की लोगों को याद आ रही है। लेकिन तीन ही साल में सुरजीत बदल गए।
तब सुरजीत भले ही कामयाब नहीं रहे। लेकिन उनकी बनाई नींव पर ही 2004 में एनडीए का इंडिया शाइनिंग का नारा ध्वस्त हो गया और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी। तब सुरजीत ही थे कि सांप्रदायिकता विरोध के बहाने सोनिया गांधी के घर डिनर पर समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह को लेकर गए थे। यह बात दीगर है कि तब सोनिया ने सुरजीत की उपस्थिति के बावजूद अमर सिंह से सीधे मुंह बात भी नहीं किया था। यह संयोग ही है कि सुरजीत की पार्टी अब सोनिया की अगुआई वाली कांग्रेस से अलग हो गई है और अमर सिंह पूरी पार्टी समेत कांग्रेस के साथ हैं।
वामपंथी राजनीति के इस महायोद्धा से मैंने मार्च 2000 में जो इंटरव्यू किया था, वह बंगला और मलयालम के पत्रकारों तक को आज भी याद है। दैनिक हिंदुस्तान में 26 मार्च 2000 को यह इंटरव्यू छपा था। इसी इंटरव्यू में उन्होंने बतौर सीपीएम महासचिव पहली बार स्वीकार किया था कि बुद्धदेव भट्टाचार्य ही ज्योति बसु के उत्तराधिकारी होंगे। इस इंटरव्यू में मैंने उनसे कई तीखे सवाल पूछे थे। जिसमें एक सवाल था कि आपके यहां जब तक भगवान नहीं हटाता, तब तक सीपीएम महासचिव के पद से कोई नहीं हटता। ऐसे तीखे सवाल का जवाब भी उन्होंने हंसते हुए दिया था। लेकिन उन्होंने मेरे इस सवाल को दो हजार पांच में ही झुठला दिया। जब प्रकाश करात को सीपीएम की बागडोर थमा दी गई।
अब सुरजीत हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन गठबंधन राजनीति के इस चाणक्य की याद हमेशा आती रहेगी।

Tuesday, July 29, 2008

अमर सिंह का समाजवाद

उमेश चतुर्वेदी
गैर कांग्रेसवाद की सियासी घुट्टी के साथ राजनीति की दुनिया में पले-बढ़े मुलायम सिंह यादव के कांग्रेसीराग ने हलचल मचा दी है। इसे न तो उनके दोस्त समाजवादी पचा पा रहे हैं और न ही उनके दुश्मन। सबसे ज्यादा हैरत में उनके साथ समाजवाद को ओढ़ना-बिछौना बनाए रखे उनके दोस्तों को हो रही है। वे एक ही सवाल का जवाब ढूंढ़ रहे हैं कि आखिर वह कौन सी वजह रही कि चार साल से संसद और सड़क – दोनों जगहों पर अमेरिका को पानी पी-पीकर गाली देते रहे मुलायम सिंह को अमेरिका के साथ परमाणु करार में राष्ट्रीय हित नजर आने लगा है। यह राष्ट्रीय हित इतना बड़ा हो गया है कि उनके चेले और दोस्त तक उनका साथ छोड़-छोड़कर निकलते जा रहे हैं। लेकिन मुलायम सिंह की पेशानी पर बल भी नहीं दिख रहा है। अमर सिंह की मुस्कान और चौड़ी होती जा रही है। शाहिद सिद्दीकी और एसपी बघेल समेत मुलायम सिंह के छह सांसदों को अमर सिंह के ब्रांड वाले समाजवाद का चोला उतार गए हैं।
समाजवादी पार्टी को कवर करने वाले पत्रकारों को पता है कि अमर सिंह ऑफ द रिकॉर्ड संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की नेता और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बारे में कैसे विचार रखते रहे हैं। पानी पी-पीकर कांग्रेस को गाली देने वाले अमर सिंह ना सिर्फ बदल जाएं, बल्कि एक जमाने के धरती पुत्र मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता को भी बदलने के लिए मजबूर कर दें तो सवाल उठेंगे ही। इसकी वजह पूरा देश जानना चाहेगा। सवाल तो ये भी है कि अमर सिंह की हालिया अमेरिका यात्रा के दौरान आखिर ऐसा क्या हुआ कि समाजवादी पार्टी का रूख एकदम से बदल गया। या फिर अमेरिकी हवा की तासीर ही ऐसी है कि वहां जाने वाला करार-करार चिल्लाने लगता है। इसका जवाब तो अमर सिंह ही दे सकते हैं या फिर मुलायम सिंह।
सवालों की वजह भी है। जब से मनमोहन सिंह की अगुआई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार चल रही है, मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी अमेरिका का विरोध करते रहे हैं। संसद में कभी ईरान के मसले पर तो कभी इराक तो कभी अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप का समाजवादी पार्टी वामपंथियों के साथ पुरजोर विरोध करती रही है। दरअसल समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश में जो वोट बैंक रहा है, उसमें पिछड़े और मुस्लिम तबके की भागीदारी रही है। बाबरी मस्जिद पर 1990 में पुलिस कार्रवाई के बाद से तो सूबे का मुसलमान मुलायम सिंह को ही अपना नेता मानता रहा है। कहा तो ये जा रहा है कि समाजवादी पार्टी पिछले विधानसभा चुनाव की हार को अब तक पचा नहीं पाई है। इस चुनाव में करीब चालीस प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ बहुजन समाज पार्टी का दामन थाम लिया। जिसका खामियाजा समाजवादी पार्टी की सत्ता से बाहर होकर चुकाना पड़ा। यही वजह रही कि संसद से लेकर सड़क तक – हर मौके पर पार्टी ने अपने मुस्लिम मतदाताओं का ध्यान रखा। ईरान को लेकर अमेरिकी नजरिए को लेकर आज भी भारत का आम मुसलमान पचा नहीं पाता। उसे अमेरिकी रवैये को लेकर क्षोभ और नाराजगी भी रहती है। इराक में अमेरिकी कार्रवाई को देश के वामपंथियों और मुसलमानों – दोनों ने कभी स्वीकार नहीं किया। जाहिर है मुलायम सिंह को अपने वोटरों की परवाह रही और उनकी पार्टी संसद में अमेरिका को इराक का हत्यारा तक बताती रही है। अमेरिका विरोध का एक भी मौका समाजवादी पार्टी ने नहीं खोया है। सरकार चलाते हुए भी उसने लखनऊ में अमेरिका विरोधी रैली भी आयोजित की थी।
यही वजह रही कि समाजवादी पार्टी संसद के पिछले बजट सत्र तक अमेरिका से करार का विरोध करती रही। लेकिन अब उसका सुर बदल गया है। वह कांग्रेस के नजदीक आ गई है और अपने अपमान तक भुला बैठी है। पिछले साल 22 फरवरी को लखनऊ में मुलायम सिंह समेत पूरी पार्टी दम साधे कांग्रेस सरकार के हाथों अपनी राज्य सरकार की बर्खास्तगी का आशंकित इंतजार कर रही थी। तब समाजवादी पार्टी के लोगों को कांग्रेस के लिए गालियां ही सूझ रही थीं। राज्यपाल टीवी राजेश्वर के खिलाफ वाराणसी में समाजवादी पार्टी की यूथ विंग ने प्रदर्शन भी किया और कांग्रेस के एजेंट के तौर पर काम करने का आरोप भी लगाया। ऐसे आरोप मुलायम सिंह भी लगाते रहे हैं। लेकिन अब पूरी तस्वीर बदल गई है।
मुलायम सिंह यादव की पूरी सियासी यात्रा संघर्षों के साथ आगे बढ़ी है। सड़क से लेकर विधानसभा से होते हुए संसद तक संघर्ष का उनका अपना इतिहास रहा है। उन्हें धरतीपुत्र कहने की यही अहम वजह भी रही है। लेकिन जब से उनके साथ सोशलाइट अमर सिंह का साथ मिला है, मुलायम सिंह की भी संघर्ष क्षमता पर आंच आने लगी है। राजबब्बर ने पिछले साल जब समाजवादी पार्टी से विद्रोह किया था तो उन्होंने बड़ा मौजूं सवाल उठाया था। उनका कहना था कि आखिर क्या वजह रही कि रघु ठाकुर और मोहन प्रकाश जैसे तपे-तपाए जुझारू नेताओं को मुलायम सिंह का साथ छोड़ना पड़ा और अमर सिंह उनके करीब होते गए। रघु ठाकुर राजनीतिक बियाबान में अपनी अलग पार्टी चला रहे हैं, जिसका नाम अब भी कम ही लोगों को पता होगा और मोहन प्रकाश अब कांग्रेस के प्रवक्ता की जिम्मेदारी निभा रहे हैं।
दरअसल अमर सिंह के साथ ही पार्टी के संघर्षशील चरित्र में कमी आती गई। ऐसा नहीं कि पार्टी में आए इन बदलावों से मुलायम सिंह अनजान रहे। शायद बदले दौर में उन्हें भी यह बदलाव मुफीद नज़र आ रहा था और उन्होंने इसे मौन बढ़ावा देने में ही भलाई समझा। 1993 में बहुजन समाजपार्टी के साथ सरकार बनाने के बाद मुलायम ने जातिवाद का खुला खेल तो शुरू किया, लेकिन पार्टी की संघर्षशीलता में कमी नहीं आई। इस दौरान एक खास बिरादरी के पार्टी कार्यकर्ताओं ने जमकर गुंडई और लूटखसोट की और मुलायम सिंह इससे आंखें मूंदे रहे। इसके बावजूद उनका नजरिया जमीनी ही था। लेकिन कांग्रेसी राजनीति से समाजवादी पार्टी के साथ अमर सिंह के जुड़ते ही पार्टी के चरित्र और मुलायम के नजरिए में भी बदलाव दिखने लगा। पार्टी के लिए अब संघर्ष से ज्यादा सत्ता साध्य होती गई। इस राह में बाधक बने तब के महासचिव रघु ठाकुर और मोहन प्रकाश को पार्टी छोड़ना पड़ा। साथ तो बाद में उन बेनीप्रसाद वर्मा को भी छोड़ना पड़ा- जिनका दावा है कि वे कभी एक ही थाली में मुलायम के साथ खाते थे और कई बार एक ही चारपाई पर सोए भी हैं।
कहा जा रहा है मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में लगातार कम होती अपनी कमजोर जमीन को हासिल करने के लिए कांग्रेस का हाथ थामा है। कांग्रेस को भी एक ऐसे साथी की जरूरत थी,जो वामपंथियों से अलगाव के बाद संसद में उसका साथ तो दे ही, संसद के बाहर उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में भी उसे सियासी जमीन मुहैया कराए। उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनाव में करीब 132 सीटों पर मुलायम सिंह के उम्मीदवार पांच सौ से लेकर पांच हजार वोटों से हारे। उन्हें उम्मीद है कि कांग्रेस का साथ उनकी साइकिल की चाल को तेज कर देगा।
लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि मुलायम सिंह की पहचान उनके संघर्षों से रही है, जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर 1991 में अपनी सरकार की भी परवाह नहीं की, उनके चरित्र में यह बदलाव लोगों को हैरतनाक नजर आए तो इस पर कोई अचरज नहीं होना चाहिए। दरअसल अमर सिंह का कभी संघर्षों का इतिहास नहीं रहा है। वे भले ही समाजवादी पार्टी के महासचिव हैं, लेकिन उन्हें यह कहने में हिचक नहीं होती कि वे राज खानदान से हैं। जिन्हें इसकी जानकारी लेनी हो, वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पूर्व सांसद डॉ.चंद्रकला पांडे से ले सकते हैं। ऐसे में पार्टी का मूल चरित्र बदलना ही था। समाजवादी पार्टी अब सड़क से लेकर संघर्ष करने वाली पार्टी नहीं रही। दरअसल वह अब सत्ता से अलग रह ही नहीं सकती। यानी नए दौर में वह सत्ताधारी समाजवाद के नजदीक पहुंचती जा रही है। पिछले कुछ साल में समाजवादी पार्टी का जो चरित्र विकसित हुआ है, उसमें सत्ता के बिना न तो कार्यकर्ताओं को बांधना संभव है और ना ही सांसदों को। सत्ता की चाबी के बिना अमर सिंह तो कत्तई नहीं रह सकते। जिस तरह कांग्रेस को समर्थन के ऐलान के बाद उन्होंने फौरन पेट्रोलियम सचिव को तलब कराया, उससे उनका मकसद साफ हो गया।
इस पूरे प्रकरण में न तो मीडिया का एक तथ्य की ओर ध्यान गया है और ना ही समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं का। कांग्रेस का हाथ थामने जैसे अहम प्रकरण को लेकर मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश की चुप्पी की ओर किसी की निगाह नहीं है। क्या इस चुप्पी की भी कोई वजह है या समाजवादी पार्टी में किसी नई हलचल के पहले की शांति है। फिलहाल सबकी निगाह इस पर ज्यादा है कि कांग्रेस का साथ यूपी की सियासी जमींन पर मुलायम की सियासत और अमर सिंह की सत्ता की हनक का कितना फायदा समाजवादी पार्टी को मिल पाता है।

Sunday, June 8, 2008

बलिया में सब जायज है

उमेश चतुर्वेदी
जब भी बलिया जाता हूं तो मन में एक आस होती है कि महानगरीय भागदौड़ के बाद सुकून मिलेगा और अपनी माटी की गंध मन-मस्तिष्क में नई ऊर्जा का संचार करेगी। लेकिन हर बार इस आस पर तुषारापात ही होता है। जून के पहले हफ्ते की बलिया की यात्रा के दौरान मिली एक जानकारी ने मुझे चौंका दिया। बलिया में साल-दो साल पहले प्राथमिक स्कूलों के अध्यापकों की मेरिट के आधार पर भारी भर्तियां हुईं थीं। इनका काम है-बलिया के अबोध बच्चों को अक्षर ज्ञान कराना। लेकिन जिला बेसिक शिक्षाधिकारी की सहायता से ये लोग अपना मूल काम ही नहीं कर रहे हैं। इनमें से करीब पच्चीस अध्यापक - अध्यापिकाएं ऐसे हैं, जो बलिया के बाहर रहते हैं और छह-सात महीने बाद अपने स्कूल का दर्शन करते हैं। उनके इस अहसान के बदले उनकी तनख्वाह लगातार मिल रही है। इनमें से कई अध्यापिकाओं के पति दूसरे राज्यों में तैनात हैं और वे अपने पतियों के साथ हैं। लेकिन उनका नाम स्कूल की लिस्ट में ना सिर्फ चल रहा है-बल्कि उन्हें बाकायदा वेतन भी मिल रहा है। कई अध्यापक दिल्ली या जेएनयू में पढ़ रहे हैं। बदले में उनकी जगह पर उनके भाई या कोई और पढ़ाने जा रहे हैं। मजे की बात ये है कि इसकी जानकारी इलाके के एसडीआई और जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को भी है। लेकिन कार्रवाई करना तो दूर वे खुद भी इसमें सहायता मुहैय्या करा रहे हैं। इसके लिए उन्हें बाकायदा हर ऐसे अध्यापक से दो हजार रूपए महीने का वेतन मिल रहा है। ऐसे ही एक अध्यापक का कहना है कि इसमें से एक हजार रूपए बेसिक शिक्षा अधिकारी को मिलता है। जबकि बाकी एक हजार का निचले स्तर के अधिकारियों में बंटवारा हो जाता है। सबसे दिलचस्प बात ये है कि इन अध्यापक-अध्यापिकाओं में सबसे ज्यादा समाज के नैतिक अलंबरदार माने जाने वाले लोगों के घरों के हैं। स्थानीय अखबारों में उनके गाहे-बगाहे सुवचन - प्रवचन छपते रहते हैं। लेकिन घर की इस अनैतिकता को रोकने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।

Monday, May 19, 2008

जनभागीदारी से बदल सकती है गांवों की तस्वीर

मोहन धारिया से उमेश चतुर्वेदी की बातचीत

आपके मन में वनराई और सीएनआरआई का विचार कैसे आया ?
देखिए, हमने जनता पार्टी के जरिए देश की तस्वीर बदलने का सपना देखा था। इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ एक हुए थे। लोगों ने हम पर भरोसा भी किया। मुझे याद है – 1977 के चुनाव प्रचार में कई जगहों पर हमने कहा कि हमारा उम्मीदवार अच्छा आदमी है। उसके पास पैसा नहीं है तो लोगों ने हमारी तरफ सिक्के तक उछाल कर फेंके थे। हमें रूपए भी दिए। जनता ने हम पर भरोसा किया। लेकिन हमने 1980 आते-आते उसे भरोसे को तोड़ दिया। तब मुझे लगा कि मौजूदा राजनीति में हमारे लिए कोई जगह नहीं है। और मैंने राजनीति को विदा कह दिया। इसके बाद ही मैंने वनराई का गठन किया। गांधी के सपनों के मुताबिक गांवों को आत्मनिर्भर और हरा-भरा बनाने की दिशा में जुट गया। वैसे 1972 में स्टॉकहोम में पर्यावरण को लेकर पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। उसमें धरती के बदले वातावरण और पर्यावरण को हो रहे नुकसान को बचाने को लेकर विचार हुआ था। उसमें मैंने भी हिस्सा लिया था। बाद में जब आपातकाल के दौरान जेल में 16 महीने तक बंद रहा तो उस दौरान भी मैंने इस विषय पर खूब सोचा। तभी मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि अगर धरती और पेड़-पौधों को बचाने की कवायद शुरू नहीं की गई तो मानवता ही खतरे में पड़ जाएगी। जनता पार्टी के टूटने के बाद उसी विचार की बुनियाद पर हमने काम शुरू किया।

आप पर्यावरण को लगातार पहुंच रहे इस नुकसान के लिए किसे जिम्मेदार मानते हैं?
देखिए, पहले पर्यावरण की रक्षा पूरे समाज का सरोकार था। मुझे याद है कि जब बरसात आने को होती थी तो मेरे बाबा पूरे गांव को इकट्ठा करके गांव के तालाब को साफ और गहरा करने की बात कहते थे। फिर पूरा गांव श्रमदान करके तालाब को गहरा कर देता था। इसके लिए पैसे की जरूरत नहीं होती थी। लोगों को लगता था कि अगर उन्होंने तालाब को नहीं सुधारा तो गांव में पानी नहीं बचेगा और पानी नहीं होगा तो उन्हें पीने के साथ ही खेती के लिए भी पानी की कमी होगी। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। तालाब को सुधारने की इच्छा तो सभी रखते हैं – लेकिन ये काम ठेकेदार करता है। उसका काम सरकारी पैसे की लूट-खसोट में ज्यादा रहता है। हमने सीएनआरआई का गठन इसी लिए किया है कि वह ठेकेदारों और ऐसे कामों की निगरानी रखे। वैसे मेरा मानना है कि आज भी लोगों को समझाया जाय तो अपने गांव-घर की खातिर पर्यावरण की रक्षा के लिए श्रमदान करने से नहीं हिचकेंगे।

देश में महंगाई और अनाज संकट की आजकल खूब चर्चा हो रही है। लेकिन लोगों का इस ओर ध्यान नहीं है कि शहर के विस्तार और सेज के लिए लगातार उपजाऊ जमीनों का ही इस्तेमाल हो रहा है। इसे लेकर आपके क्या विचार हैं ?
बिल्कुल गलत हो रहा है। चीन जैसे बड़े देश में सिर्फ 75 स्पेशल इकोनॉमिक जोन हैं। लेकिन भारत में सेज की ऐसी आंधी चल पड़ी है कि हर राज्य दस-बीस को कौन कहे सौ-दो सौ सेज बनाना चाहता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। इतने सेज की देश में जरूरत नहीं है। वैसे भी सेज के लिए देश में अब भी काफी ज्यादा बंजर भूमि है। उसका इस्तेमाल होना चाहिए। अगर इसे लेकर सरकार नहीं चेती तो साफ है आने वाले दिनों में देश को और ज्यादा अनाज संकट से जूझना पड़ेगा।

आप युवा तुर्क के ग्रुप के सदस्य रहे। आपके साथी चंद्रशेखर और रामधन तो उत्तर प्रदेश के ही थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की बदहाली किसी से छुपी नहीं है। क्या आपका ध्यान कभी पूर्वी उत्तर और बिहार के गांवों को बदलने की ओर नहीं गया।
ऐसा नहीं है। मैंने अपने दोस्त चंद्रशेखर से कई बार कहा कि तुम मुझे लोग दो- मैं तुम्हारे इलाके के गांवों की भी तस्वीर बदलना चाहता हूं। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। मैं लोग इसलिए चाहता था – क्योंकि बलिया या बिहार के लोगों से वह सीधे संपर्क में था। उसका कहा लोग मानते – लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। चंद्रशेखर ऐसे विकास करने-कराने के लिए नहीं बना था। उसने मेरी बात नहीं सुनीं। लिहाजा हमने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों को बदलने का काम हाथ में नहीं लिया। मैंने तो उसे भोंडसी में निर्माण कराने से भी मना किया था। लेकिन वह नहीं माना। वैसे भी वन भूमि पर निर्माण गैरकानूनी ही होता है। इसका हश्र बाद में दिखा भी।

लेकिन चंद्रशेखर ने भी तो भारत यात्रा केंद्र के जरिए विकास का सपना देखा था।
चंद्रशेखर के भारत यात्रा केंद्र बाद में किस तरह की राजनीति के अड्डे बन गए। ये भी किसी से छुपा नहीं है।

आपने ग्रामीण भारत के स्वयंसहायता समूहों का राष्ट्रीय परिसंघ (सीएनआरआई) बनाया है। आम एनजीओ को लेकर धारणा ये है कि ये सिर्फ पैसे बनाने का जरिया हैं-विकास से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। एनजीओ को लेकर इस धारणा को बदलने को लेकर आपकी कोई योजना है?
देखिए, सीएनआरआई की सदस्यता के लिए हमने पहली शर्त रखी है कि उस एनजीओ को अपने काम में पूरी पारदर्शिता रखनी होगी। हमारा मानना है कि एनजीओ का काम ठेका लेना नहीं- बल्कि ठेकेदार और सरकारी मशीनरी की मॉनिटरिंग करना है। हमारे संगठन में शामिल हर एनजीओ पर हमारी कड़ी निगाह रहती है। अगर उसकी गड़बड़ी की शिकायत मिलती है तो उसे अपने संगठन से निकालने से हमें कोई परहेज नहीं होगा।

सुबह सवेरे में