Wednesday, July 4, 2012


भारत की कूटनीतिक कामयाबी या विफलता !
उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख दैनिक ट्रिब्यून में छप चुका है)
पाकिस्तान की कोटलखपत जेल की काली कोठरी में तीस साल काटने के बाद रिहा होने के बाद सुरजीत ने जो बयान दिया है, उसने भारत को रक्षात्मक रूख अख्तियार करने के लिए मजबूर कर सकता है। सुरजीत को लेकर अब तक यही कहा जाता रहा है कि 1982 में उन्होंने गलती से सीमा पार कर ली और भारत-पाकिस्तान के बीच जारी कूटनीतिक और सैनिक विश्वासहीनता और खींचतान के शिकार बन गए। भारत की तरफ से सुरजीत को लेकर किए गए इन दावों में उनके निर्दोष होने की ही दुहाई दी जाती रही है। लेकिन बाघा सीमा को पार करते ही उन्होंने जो बयान दिया है, उससे भारतीय कूटनीति पर सवाल उठने लगे हैं। सुरजीत के बयान ने भारत के सारे दावों पर पानी फेर दिया है। सुरजीत ने कहा है कि वे भारतीय खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ के लिए जासूसी कर रहे थे और जब पकड़ लिए गए तो उन्हें सबने छोड़ दिया।

Thursday, June 28, 2012


मोदी को मात देने की कोशिश में कांग्रेस
उमेश चतुर्वेदी
संजय जोशी को भारतीय जनता पार्टी से बाहर कराकर भले ही नरेंद्र मोदी खुद को विजयी समझ रहे हों, लेकिन इसी साल के आखिर में विधानसभा के मैदान पर कांग्रेस इसी विवाद के बीच उन्हें शिकस्त देने की रणनीति बना रही है। इसमें सहयोगी बनती नजर आ रही है संजय जोशी के बीजेपी से बाहर होने के बाद गुजरात और गुजरात के बाहर हो रही नरेंद्र मोदी की लानत-मलामत। कांग्रेस की उम्मीदों को परवान चढ़ाने में मदद दे रही मोदी के खिलाफ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जनता दल यू के बिहार इकाई का हल्लाबोल। बीजेपी में नंबर वन नेता बनने की होड़ में नरेंद्र मोदी के आगे बढ़ने की कोशिशों के बीच नरेंद्र मोदी के खिलाफ भी पार्टी के अंदरूनी हलकों से हमले बढ़ते गए। बीजेपी से मोदी ने जैसे ही तकरीबन यह मंजूर करा लिया कि वे ही पार्टी के नंबर वन नेता हैं, गुजरात में फतह की आस लगाए पंद्रह साल से इंतजार कर रही कांग्रेस की चुनौती और बढ़ गई। गौर करने की बात ये है कि गुजरात कांग्रेस के पास नरेंद्र मोदी जैसी हैसियत वाले नेता नहीं हैं। ऐसे में मोदी का नंबर वन बन जाना निश्चित तौर पर कांग्रेस के लिए कठिन चुनौती बन गया था। लेकिन संजय जोशी प्रकरण को लेकर उनके खिलाफ बीजेपी और एनडीए में बढ़ रहे विरोध से कांग्रेस की मुश्किलें थोड़ी कम होती नजर आ रही हैं।

Saturday, June 16, 2012



अल्पसंख्यक आरक्षण के किंतु-परंतु
उमेश चतुर्वेदी 
( यह लेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है।)
राजनीति में जरूरी नहीं कि जो कुछ सामने दिख रहा हो, हकीकत ही हो। कामयाब राजनीति वही होती है, जिसमें संकेतों के जरिए सबकुछ साधने की कोशिश की जाती है। लेकिन ये संकेत भी इतने सहज और प्रभावी होते हैं कि उनकी मकसद लक्ष्य समूह तक आसानी से पहुंच जाता है। 22 दिसंबर 2011 को जब केंद्र सरकार ने कोटा में कोटा की व्यवस्था बनाते हुए ओबीसी आरक्षण में अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार फीसदी आरक्षण तय किया था तो उसका मकसद साफ था। दिलचस्प यह भी है कि इस मकसद को उसी वक्त राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी तरह से लपक लिया। भारतीय जनता पार्टी को अपने वोट बैंक के खिसकने का खतरा था तो उसने इस पर सवाल उठाने में देर नहीं लगाई।

Wednesday, June 6, 2012

कारगर रणनीति बनाने की जरूरत
उमेश चतुर्वेदी
भ्रष्टाचार की मुखालफत और काले धन की वापसी को लेकर योगगुरु बाबा रामदेव ने जिस तरह का समन्वयवादी कदम उठाया है, उससे उनके कट्टर समर्थकों को थोड़ी निराशा जरूर हुई होगी। रामदेव के समर्थक उनसे उसी ओज और आक्रामक अंदाज की उम्मीद कर रहे थे, जो उन्होंने रामलीला मैदान-कांड के ठीक पहले पिछले साल दिखाया था। मगर, इस बार बाबा का वैसा ओज गायब था। बाबा थोड़े डरे-सहमे से लगे। शायद उन्होंने अपने आंदोलन का रूप बदल दिया है। उनका जोर टकराव पर नहीं, समन्वय पर है।

Monday, June 4, 2012


क्या पूरा होगा मनोहर आटे का सपना
उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित हो चुका है।)
उत्तर प्रदेश की आज की ताकतवर पार्टी बहुजन समाज पार्टी के मूल संगठन बामसेफ के संस्थापक सदस्य रहे मनोहर आटे की मौत हो गई। नागपुर में आखिरी जिंदगी गुजारते रहे मनोहर आटे की मौत की खबर अनदेखी और अनसुनी ही रह गई। बहुजन समाज को समाज में उसका उचित अधिकार दिलाने और नया समाज बनाने के एक स्वप्नकार की मौत का यूं अनसुनी रह जाना, निश्चित तौर पर सवाल खड़ा करता है। यह सवाल इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जिस सपने के साथ मनोहर आटे ने कांशीराम के साथ बामसेफ और बाद में बीएसपी की नींव रखी थी, वह राजनीति की दुनिया में अहम मुकाम हासिल कर चुका है।

Wednesday, May 30, 2012


क्या संगमा बनेंगे कलाम !
उमेश चतुर्वेदी
इसे ही शायद लोकतंत्र कहते हैं...अपनी ही पार्टी साथ देने को तैयार नजर नहीं आती। इसके बावजूद देश का पहला नागरिक बनने की दौड़ में पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी ए संगमा शामिल हो चुके हैं। वैसे तो इस दौड़ में वे खुद को पहले से ही शामिल कर चुके थे, लेकिन बीजू जनता दल और अन्ना द्रमुक ने उनका साथ देकर उनकी उम्मीदवारी को थोड़ा गंभीर जरूर बना दिया है। थोड़ा इसलिए, क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव के निर्वाचक मंडल का सिर्फ तीन-तीन फीसदी मत ही दोनों दलों के पास है। जाहिर है कि इतने कम मत से रायसीना हिल की दौड़ जीतना असंभव ही है। पीए संगमा ने जिस आदिवासी कार्ड के बहाने अपना नाम आगे बढ़ाया है, उसे उनकी अपनी ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी साथ नहीं दे रही तो दूसरों से क्या उम्मीद की जाती।

Friday, May 25, 2012


उच्च शिक्षा व्यवस्था पर फिर उठा सवाल
उमेश चतुर्वेदी
तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था और आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर बढ़ते अपने देश का गुणगान करते हम नहीं थकते। उलटबांसियों के बीच आगे बढ़ती अपनी अर्थव्यवस्था का मंदी से जूझ रहे अमेरिका और यूरोप के देश भी मानने लगे हैं। ऐसे में अव्वल तो होना यह चाहिए था कि अपनी शिक्षा व्यवस्था भी कम से कम दुनिया के स्तर की होनी चाहिए। निश्चित तौर पर मजबूत अर्थव्यवस्था के जरिए गंभीर और गुणवत्ता आधारित शिक्षा व्यवस्था बहाल की जा सकती है। नालंदा और तक्षशिला जैसे गुणवत्ता आधारित विश्वविद्यालयों की परंपरा वाले देश में ऐसी उम्मीद भी बेमानी नहीं है। लेकिन हाल ही में आई यूनिवर्सिटास -21 की रिपोर्ट ने अपनी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और दुनिया के सामने उसकी हैसियत की पोल खोल कर रख दी है।

सुबह सवेरे में