उमेश चतुर्वेदीहिंदी साहित्य के मध्यकाल में कृष्णभक्त कवियों की एक धारा रही, जिन्हें
अष्टछाप के नाम से जाना जाता है। इसी अष्टछाप के आठ कवियों में एक कवि
कुंभनदास भी थे। एक बार बादशाह अकबर के बुलावे पर उन्हें मुगल सल्तनत की
तब की राजधानी फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा था। मजबूरी में राजधानी की यात्रा
के बाद उनकी व्यथा कुछ यूं फूटी थी –
संतन को कहा सीकरी सों काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम ।।
संभवत: तभी से हिंदीभाषी इलाकों में एक मुहावरा ही चल पड़ा – संतन को कहा
सीकरी सों काम। जब भी संत-सन्यासी और साधु राजनीति और देशनीति के सवालों
से जूझने की कोशिश करने लगते हैं, कुंभनदास की ये पंक्तियां प्रबुद्ध
हिंदी समाज के साथ ही भारतीय राजनीति के पुरोधा उछालने लगते हैं। काले धन
की देशवापसी और उसके लिए योगगुरू रामदेव के अनशन को लेकर एक बार फिर यही
सवाल उछाला जा रहा है। बिहार की राजनीति से अप्रासंगिकता की हद तक किनारे
हो चुके लालू यादव हों या कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी और दिग्विजय
सिंह या फिर कपिल सिब्बल, योगगुरू रामदेव पर हमला करते वक्त सबका यही
कहना है कि उनका काम योग सिखाना है, राजनीति करना नहीं। भारतीय जनता
पार्टी की राजनीति में जब साधु-संतों का प्रवेश बढ़ा था, तब भी यही सवाल
उठाया गया था। एक वामपंथी सांस्कृतिक संगठन की कर्ता-धर्ता को बाबाओं में
सिर्फ गुंडे और मवाली ही नजर आ रहे हैं।
लेकिन यह हकीकत नहीं है। कुंभनदास को सीकरी जाना भले ही पसंद नहीं था।
लेकिन यह भी सच है कि अंग्रेजी शासन के खिलाफ पहला विद्रोह संन्यासियों
ने ही किया था। 1773 से तीस बरसों तक यह संघर्ष इतना तेज बढ़ा कि उसकी
अनुगूंज आज भी बंगाल के समाज में देखी-समझी जा सकती है। दरअसल 1757 में
प्लासी युद्ध में सिराजुद्दौला को हराने के बाद बंगाल के शासन पर काबिज
हुए अंग्रेजों के जुल्मों ने किसानों और कारीगरों की कमर तोड़ दी।
रही-सही कसर 1769 के अकाल ने पूरी कर दी। कहा जाता है कि उस अकाल में
करीब तीन करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हुए। अकाल की विभीषिका इतनी त्रासद
थी कि उसका जिक्र और अंग्रेजी दमन और शोषण की कहानी बताते हुए एडमंड बर्क
हाउस ऑफ लॉर्ड्स में बेहोश हो गए। उस वक्त भी लोगों में इस शोषण के खिलाफ
गुस्सा तो था, लेकिन हथियार उठाने से लोग हिचक रहे थे। ऐसे में दशनामी
संप्रदाय के साधुओं ने अंग्रेजों और उनके पिट्ठू जमींदारों के खिलाफ
हथियार उठा लिया। तकरीबन तीन दशकों तक चले इस युद्ध में साधनहीन
सन्यासियों की ही पराजय हुई। लेकिन उत्तरी बंगाल से लेकर बिहार तक में इन
देशभक्त संन्यासियों की दिलेरी और देशभक्ति ने लोगों का दिल जीत लिया। आज
जिस वंदेमातरम को हम गाते हैं, वह इसी सन्यासी विद्रोह पर आधारित
बंकिमचंद्र चटर्जी की अमरकृति आनंदमठ का एक अंश है। दिलचस्प बात यह है कि
सन्यासी विद्रोह की ज्यादा जानकारी इतिहास में नहीं मिलती है। लेकिन
बंगाल के लोकजीवन में यह विद्रोह किंवदंतियों के तौर पर आज भी जिंदा है।
यह सच है कि इतिहास की पुस्तकों में इस विद्रोह की ज्यादा जानकारी नहीं
मिलती। प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत की पुस्तक 1857 - बिहार-झारखंड
में महायुद्ध में इस विद्रोह का जिक्र है। चौधरी के मुताबिक इन
विद्रोहियों की संख्या एक दौर में 50 हजार तक जा पहुंची थी।
आजादी के आंदोलन में स्वामी श्रद्धानंद और राहुल सांकृत्यायन की भूमिका
को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है। आजादी के आंदोलन में किसानों को
संगठित करने और अंग्रेजी शासन के खिलाफ उनके विद्रोह की अगुआई करने वाले
स्वामी श्रद्धानंद भी संन्यासी ही थे। आजमगढ़ के केदार पांडे संन्यासी
होकर बिहार के सीवान जिले के मैरवा मठ पर राहुल सांकृत्यायन के नाम से
बतौर संन्यासी विराजमान थे। अगर वे चाहते तो संन्यासी के तौर पर मलाई
खाते हुए वहां जिंदगी गुजार देते, लेकिन छपरा में जमींदारों और अंग्रेज
हुकूमत का किसानों के खिलाफ जोर-जुल्म उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ और किसानों
के आंदोलन की अगुआई करने की उन्होंने ठान ली। इस आंदोलन में जमींदारों के
गुर्गों ने उनकी जमकर पिटाई की। इस दौरान उनका सिर तक फट गया। भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन के इस हालिया इतिहास में संन्यासियों के इस आंदोलन को
नकार पाना मुश्किल है।
भारत में राजनीति में संन्यासियों की सक्रियता नई बात नहीं है।
पाटलिपुत्र के महान मौर्यवंश की स्थापना भी चाणक्य ने की थी और वे भी एक
तरह से सन्यासी ही थे। यह सच है कि मौर्य वंश के शासक चंद्रगुप्त मौर्य
थे। लेकिन इतिहास भी मानता है कि चाणक्य का बौद्धिक कौशल नहीं होता तो
चंद्रगुप्त मौर्य न तो नंद वंश का नाश कर पाते और न ही पाटलिपुत्र में
मौर्यवंश की स्थापना कर पाते। अर्थनीति और राजनीति के धुरंधर विद्वान के
तौर पर स्थापित चाणक्य को भारतीय इतिहास का चमकता सितारा मानने से उन
लोगों को भी शायद ही एतराज होगा, जिन्हें संन्यासी होते हुए रामदेव के
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से परेशानी हो रही है। मुगलों से विद्रोह करके
शिवाजी महाराज ने जिस मराठा साम्राज्य की नींव डाली थी, उसकी कल्पना
समर्थ गुरू रामदास के बिना की ही नहीं जा सकती। समर्थ गुरू रामदास ही वह
शख्सियत थे, जिनसे प्रेरणा लेकर शिवाजी ने औरंगजेब की सेनाओं के खिलाफ
गोलकुंडा की पहाड़ियों से छापामार युद्ध जारी रखा और मराठा राज्य की
मजबूत नींव रखने में सफल हुए। ये तो चंद बानगी है। भारतीय इतिहास में ऐसे
ढेरों पन्ने मिल जाएंगे, जिनमें संन्यासियों ने सामाजिक हित के लिए खुद
को कुर्बान कर दिया।
सच तो यह है कि राजनीति की दुनिया सदा से कालिख से भरी रही है। डॉक्टर
राममनोहर लोहिया राजनीति की इस कालिख को माला पहनाने वाली कौम के तौर पर
देखते थे। शायद यही वजह है कि कुंभनदास जैसे कवि राजधानी आने से बचना
चाहते थे। कुंभन की पीड़ा ही है कि अपनी कविता में वे कहते हैं - जिनको
मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम। कुंभनदास तो जिनका मुंह नहीं
देखना चाहिए, उन्हें सलाम करने को बाध्य हुए। लेकिन क्रांतिकारी संन्यासी
उन लोगों को सलाम नहीं करना चाहता। शायद यही प्रवृत्ति आज के राजनेताओं
को खलती है। शायद यही वजह है कि राजनीति में संन्यासियों का कूदना उन्हें
पसंद नहीं आता।