Wednesday, June 1, 2011

कैसे विश्वस्तरीय बनें देसी विश्वविश्वविद्यालय

उमेश चतुर्वेदी
कांग्रेसी हलके में जयराम रमेश की ख्याति एक ऐसे राजनता के तौर पर है, जो अपनी बात खुलकर रखता है। जैतापुर में परमाणु परियोजना लगाए जाने को लेकर लोगों के विरोध का समर्थन हो या फिर मुंबई की आदर्श सोसायटी को गिराने की मंशा जाहिर करना हो या फिर लवासा के प्रोजेक्ट को लेकर खुला बयान हो, जयराम अपनी बात खुलकर रखते रहे हैं। इसके लिए कई बार कांग्रेसी राजनीति में उनकी तरफ भौंहें तनती रही हैं, कई बार केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य भी उनसे परेशान नजर आते रहे हैं। जयराम रमेश की मुखरता ने एक बार अपना कमाल दिखाया है। उन्होंने यह कहकर नई बहस को ही जन्म दे दिया है कि देश में विश्व स्तरीय छात्र तो हैं, लेकिन विश्वस्तरीय फैकल्टी नहीं है। मजे की बात है कि हमेशा की तरह उनके बयानों से अलग रहने वाली कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर इस बयान से खुद को अलग कर दिया है। विरोध के सुर विपक्षी भारतीय जनता पार्टी से लेकर उदारीकरण के दौर में करोड़ों-लाखों का पैकेज दिलवाते रहे आईआईएम और आईआईटी के प्रोफेसरों की तरफ से भी उठे हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि देश में शिक्षा के बदलाव के लिए कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे संस्थानों के हिमायती मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जयराम रमेश के समर्थन में पहले उतर आए और जब ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स का दबाव पड़ा तो जयराम रमेश के विरोध में उतर आए। बहरहाल समर्थन में उतरे कपिल सिब्बल का कहना था कि रमेश की बात इसलिए ठीक है कि अगर सचमुच विश्वस्तरीय फैकल्टी होती तो दुनिया के टॉप 100-150 विश्वविद्यालयों में भारत के भी किसी विश्वविद्यालय और संस्थान का नाम होता।
जयराम रमेश के बयान और कपिल सिब्बल के बयानों की तासीर और अहमियत में फर्क है। जयराम रमेश की ख्याति बयानबाज राजनेता की है। हालांकि उनकी संजीदगी पर भी सवाल नहीं उठाए जा सकते। लेकिन कपिल सिब्बल का उनके समर्थन में उतरने का अपना महत्व भी है और उस पर सवाल भी है। अगर कपिल सिब्बल को लगता है कि देश में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय नहीं हैं तो सबसे बड़ा सवाल तो यही उठता है कि आखिर इसके लिए वे क्या कर रहे हैं। यह जानते हुए भी कि निजी शैक्षिक संस्थान सिर्फ शिक्षा की दुकानें बनते जा रहे हैं, वे इनके समर्थन में क्यों खड़े हैं। यह सच है कि डीम्ड विश्वविद्यालयों की खेप अर्जुन सिंह ने बढ़ाई। आनन-फानन में उन्हें मान्यता दे दी गई। कुकुरमुत्तों की तरफ खुलते इन विश्वविद्यालयों में शिक्षा का क्या हाल है, दिल्ली की सीमा से सटे फरीदाबाद में स्थित दो डीम्ड विश्वविद्यालयों के छात्रों और अध्यापकों से निष्पक्ष और औचक बातचीत से ही जाना जा सकता है। मानव संसाधन विकास मंत्री बनते ही कपिल सिब्बल ने जिस तरह इन विश्वविद्यालयों पर लगाम लगाने की कोशिशें शुरू की, उससे लगा कि वे देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था को सुधारना चाहते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि यह कवायद उनकी सिर्फ हनक बढ़ाने की कवायद ही साबित हुई। डीम्ड विश्वविद्यालयों में छात्रों से वसूली का खेल जारी है। जब राजधानी दिल्ली के नजदीक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नाक के नीचे स्थित विश्वविद्यालयों का यह हाल है और मंत्रालय कुछ करने में खुद को नाकाम पा रहा है तो देश के दूर-दराज के इलाकों के डीम्ड विश्वविद्यालयों की हालत क्या होगी, इसका अंदाजा लगाना आसान है।
रही बात विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की तो सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत आज अपनी जीडीपी का करीब चार प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर रहा है। उसका भी सिर्फ दसवां हिस्सा यानी दशमलव 4 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाता है। जबकि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में उच्च शिक्षा पर खर्च जीडीपी के एक से लेकर सवा फीसदी तक है। दूसरी बात यह है कि विकसित देशों में, जहां के विश्वविद्यालय आज के मानकों के मुताबिक विश्वस्तरीयता के उपरी पायदान पर हैं, वहां कम से कम शैक्षिक संस्थान संकीर्ण राजनीति के दायरे से बाहर हैं। वहां के विश्वविद्यालयों में नियुक्ति की योग्यता राजनीतिक प्रतिबद्धता और संपर्क नहीं है, बल्कि ज्ञान है। लेकिन क्या ऐसी स्थिति भारतीय विश्वविद्यालयों में है। बेहतर माने जाने वाले दिल्ली के ही जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में नियुक्ति के लिए एक खास तरह की विचारधारा वाला होना जरूरी है। वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में तो ऐरू-गैरू नत्थू-खैरू तक राजनीति और तिकड़म के बल पर नियुक्ति पा जाते हैं। विकसित देशों में विश्वविद्यालयों को अकादमिक स्वायत्तता के साथ ही प्रशासनिक स्वायत्तता भी हासिल है। ज्ञान और शिक्षा के लिए प्रतिबद्ध लोगों की टीम वहां की शिक्षा व्यवस्था को ऊंचाईयों पर ले जाने के लिए तत्पर रहती है। लेकिन ऐसी सोच रखने वाले यहां अध्यापक कितने हैं।
अब एक नजर जयराम के खिलाफ कपिल सिब्बल के तर्कों पर भी देना चाहिए। रमेश के बयान के बाद सरकार की होती किरकिरी के बाद ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के दबाव में कपिल सिब्बल ने बयान दिया कि देश में विश्वस्तरीय शोध का माहौल ही नहीं है। ऐसे में सवाल कपिल सिब्बल से ही पूछा जाएगा कि आखिर मंत्री रहते या देश में ज्यादातर वक्त तक उनकी पार्टी की सरकार रहते ऐसे उपाय क्यों नहीं हो पाए कि आजादी के 63 सालों में देश में विश्वस्तरीय शोध और पढ़ाई का माहौल बन पाया।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था की कमी के लिए माना गया कि यहां अध्यापकों का वेतन विकसित देशों के अध्यापकों की तुलना में कम है। छठवें वेतन आयोग ने अध्यापकों की इस कमी को पूरा तो किया है। लेकिन इसके बावजूद अध्यापकों और प्रोफेसरों में अपने काम के प्रति प्रतिबद्धता कम ही नजर आ रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में तो अध्यापकों को खुलेआम राजनीति करते देखा जा सकता है। जब दिल्ली विश्वविद्यालय की यह हालत है तो देश के दूसरे इलाके के विश्वविद्यालयों का अंदाजा लगाया जाना आसान होगा। फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश की अब भी करीब 25 फीसदी जनता निरक्षर है। कॉलेज और विश्वविद्यालय जाने वाले युवाओं में से सिर्फ बमुश्किल 14 फीसदी को ही दाखिला मिल पाता है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश के ज्यादातर विश्वविद्यालय सिर्फ और सिर्फ डिग्रियां बांटने की मशीन बन गए हैं। गुणवत्ता आधारित शिक्षा पर उनका ध्यान नहीं है। उनके लिए अकादमिक कैलेंडर को पूरा करना और परीक्षाएं दिलवाकर डिग्रियां बांट देना ही महत्वपूर्ण काम रह गया है। ऐसे में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की उम्मीद भी बेमानी ही है।
बहरहाल जिन यूरोपीय या अमेरिकी विश्वविद्यालयों की तुलना में जयराम रमेश ने भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाए हैं, वे भी दूध के धुले नहीं हैं। दुनिया में अपनी गुणवत्ता आधारित शिक्षा के लिए मशहूर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की कारस्तानी हाल ही में उजागर हुई है। लीबिया पर नाटो और अमेरिकी कार्रवाई शुरू होने के कुछ ही दिनों बाद यानी 4 मार्च, 2011 को लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के निदेशक सर हावर्ड डेवीज को इस्तीफा देना पड़ा। इसकी वजह रही लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के लीबिया के तानाशाह कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के साथ आर्थिक रिश्तों का खुलासा। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में गद्दाफी के बेटे सैफ-अल-कदाफी ने 2003 से 2008 तक पढ़ाई की थी। जहां से उसे पी.एच.डी.की डिग्री मिली । आरोप है कि उसकी थिसिस इंटरनेट से कटपेस्ट करके तैयार की गई और इसमें उसकी मदद स्कूल के एक डीन ने ही की थी। खुलासा तो यह भी हुआ है कि गद्दाफी से लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स को लाखों पौण्ड की धनराशि मिलती रही है। सिर्फ 2003 से 2008 के बीच ही 22 लाख पौंड के बदले लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ने लीबिया के 400 भावी नेताओं और ब़ड़े अधिकारियों को ट्रेनिंग दी थी। और तो और लीबिया के सॉवरिन वेल्थ फण्ड के प्रचार के लिए लन्दन स्कूल ने 50,000 पौण्ड की फीस ली थी। लीबियाई सरकार द्वारा खड़े किये गये ‘गद्दाफी इण्टरनेशनल चैरिटी एण्ड डेवलपमेण्ट फाउण्डेशन’ से 15 लाख पौण्ड का अनुदान भी मिला था।
कुछ ऐसे ही आरोप येल विश्वविद्यालय पर लगते रहे हैं। येल विश्वविद्यालय पर कई विवादास्पद कंपनियों से वित्तीय रिश्ते रखने के आरोप भी लगते रहे हैं। 2009 में केमिस्ट्री के लिए नोबेल पुरस्कार हासिल कर चुके वेंकटरमण रामाकृष्णन ने पिछले ही साल बयान दिया था कि दुनिया के विश्वस्तरीय माने जाने वाले विश्वविद्यालयों ने अपने मूल कैंपस से बाहर जाकर जो कैंपस खोले, उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसा ही बनाना रहा है। वहां से कोई खास शोध और उपलब्धि हासिल नहीं हुई है।
भारत की जो बदहाल शैक्षिक व्यवस्था है, उसमें कुकुरमुत्तों की तरह उगते संस्थानों का मकसद सिर्फ पैसा बनाना रह गया है, उसमें जयराम के बयान के सिर्फ नकारात्मक पक्ष की चर्चा करने से बेहतर यह होगा कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने की तरफ सकारात्मक पहल की जाय। हालांकि जानकारों के एक तबके को लगता है कि जयराम का यह बयान दरअसल भारतीय शिक्षा व्यवस्था में कथित विश्वस्तरीय माने जाने वाले संस्थानों के प्रवेश की राह खोलने की पहल है। अगर रमेश का यह बयान इस सोच से भी प्रभावित है तो उसे स्वीकार करना कठिन होगा।

Saturday, May 28, 2011

पानी बिच सड़क है कि सड़क बिच पानी


उमेश चतुर्वेदी
बरसों पहले बचपन में एक कविता पढ़ी थी-
सारी बिच नारी है कि नारी बिच सारी।
नारी ही की सारी है कि सारी की नारी।
हाल के दिनों में अपने गांव की यात्रा के बाद एक बार फिर यही कविता याद आ गई, लेकिन थोड़े से संशोधन के साथ। नजारा ही कुछ ऐसा था कि कविता का यह बीज फूटे बिना नहीं रह पाया। नजारे की चर्चा बाद में, पहले कविता-
पानी की सड़क है कि सड़क का ही पानी।
पानी बिच सड़क है कि सड़क बिच पानी।
बलिया में डीएम और एसपी के दफ्तर और बंगले से महज डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर बलिया-गोरखपुर हाईवे पर ऐसा ही हाल है। इस बार मई में ही बादलों की कृपा हो गई है, गरमी के बीच बरसात का पानी कायदे से सूख जाना चाहिए, लेकिन हालत यह है कि पूरी सड़क पानी में तब्दील है। नरक के बीच से रोजाना हजारों लोगों को गुजरना है। लेकिन न तो डीएम साहब को इसकी फिक्र है और एसपी साहब का तो खैर इलाका ही नहीं रहा। यही हालत बलिया में तिखमपुर के पास बलिया-बांसडीह-सहतवार सड़क का भी है। गंदगी से पार पाकर आना-जाना लोगों की मजबूरी है। दिलचस्प बात यह है कि इसी सड़क पर किनारे बलिया सदर की विधानसभा सदस्य मंजू सिंह का आलीशान मकान है। उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार है। लेकिन बलिया को नरक गाथा से मुक्ति नहीं मिल रही। बलिया नगरपालिका पर भी बसपा का कब्जा है। लेकिन पूरा शहर खुदा पड़ा है। बरसात का मौसम आने वाला है, लेकिन शहर की सड़कें अब तक साफ नहीं हो पाई हैं। मौसम विभाग का कहना है कि इस बार मानसून अच्छा रहने वाला है। भगवान करे कि ऐसा ही हो, ऐसे में अंदाज लगाना आसान है कि इस बार बलिया वालों की बरसात कैसे बीतेगी। जिस बलिया का प्रतिनिधित्व चंद्रशेखर जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के नेता ने किया हो, वहां का यही हाल है। वैसे हमारे बलिया में एक मित्र हैं, पेशे से वकील इस मित्र का कहना है कि बलिया वाले इसी के काबिल हैं। जब विरोध का जज्बा ही उनमें नहीं रहा तो नरक में रहें या स्वर्ग में, सरकार और प्रशासन की सेहत पर क्या फर्क पड़ता है।

Saturday, May 14, 2011

यूपीए बिना चैन कहां रे

उमेश चतुर्वेदी
राजनीति में किसी की कमजोरी कई बार किसी की मजबूती का सबब बन जाती है। 2 जी घोटाले से जूझ रही द्रविड़ मुनेत्र कषगम की विदाई ने केंद्र की यूपीए सरकार की मजबूती की नींव रख दी है। सीबीआई अदालत और आयकर अधिकारियों के दफ्तरों की चक्कर काट रही कनिमोझी को कानूनी पचड़े से बचाने के लिए द्रविड़ मुनेत्र कषगम का यूपीए के साथ रहना मजबूरी है। सत्ता का साथ ही उन्हें अधिकारियों से राहत दिलवा सकता है। इस लिहाज से देखें तो दो हफ्ते कनिमोझी के खिलाफ सीबीआई के आरोप पत्र दाखिल करने के पहले जब डीएमके की कार्यसमिति ने केंद्र सरकार से समर्थन वापसी की अटकलों को टाल कर भावी राजनीतिक आशंकाओं के बीच अपने बचाव की राह तलाश ली थी। अन्यथा मीडिया का एक बड़ा वर्ग मानकर चल रहा था कि कनिमोझी का आरोप पत्र में नाम यूपीए सरकार से डीएमके के अलगाव का संदेश लेकर आएगा।

मौजूदा दौर में चूंकि राजनीति सिर्फ सत्ता को साधने और उसके जरिए राजनीतिक से ज्यादा आर्थिक फायदे उठाने का खेल हो गई है, लिहाजा जैसे ही किसी घोटाले और उससे जुड़े राजनीतिक विवाद शुरू होते हैं, सत्ता की सेहत और उसके भविष्य पर सवाल उठाए जाने लगते हैं। यही वजह है कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में डीएमके सांसद कनिमोझी के खिलाफ सीबीआई के आरोप पत्र दाखिल करने के बाद केंद्र सरकार की सेहत पर सवाल उठने लगे थे। लेकिन द्रविड़ मुनेत्र कजगम के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन से समर्थन की वापसी इतनी आसान नहीं थी। तमिलनाडु भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य सी पी राधाकृष्णन पहले ही जाहिर कर चुके थे कि डीएमके की वह बैठक महज दिखावा थी। ज्यादा से ज्यादा इस बैठक की राजनीतिक व्याख्या की जाती तो वह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा भर थी। लेकिन तमिलनाडु की सत्ता से विदाई के बाद डीएमके के लिए अब विकल्प सीमित हो गए हैं। 2 जी स्पेक्ट्रम में जिस तरह डीएमके आकंठ डूबी नजर आ रही है, उसमें उसके लिए बचाव की राह यूपीए के साथ में ही नजर आती है। अगर उसे कड़ा कदम उठाना ही होता तो वह तभी उठा लेती, जब उसके एक अहम सहयोगी और पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री ए राजा को सीबीआई ने सलाखों के पीछे डाल दिया। हालांकि क्या सचमुच सीबीआई उन्हें सलाखों के पीछे डालने की हिम्मत जुटा पाती। क्या सीबीआई को इसके लिए उसके राजनीतिक हुक्मरानों का समर्थन हासिल हो पाता...जाहिर है नहीं...सीबीआई या किसी जांच एजेंसी को ए राजा जैसे ताकतवर दल के नेता और उदारीकरण के दौर में सत्ता का समानांतर केंद्र बने कारपोरेट के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत कम से कम आज के दौर में नहीं है। गठबंधन राजनीति की मजबूरियों और उसमें शामिल दलों के आर्थिक हितों के साथ जुड़े कारपोरेट की ताकत को समझने के लिए 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला बेहतर उदाहरण है। 2007 से 2 जी स्पेक्ट्रम को लेकर खुलेआम नियमों की धज्जियां उड़ाई जाती रहीं, लेकिन सत्ता का जिम्मेदार तंत्र राजा, उनके अफसरों और कारपोरेट जगत की हस्तियों के खिलाफ कदम उठाने की हिम्मत नहीं कर पाया। आज अगर सत्ता और कारपोरेट की हस्तियां जेल में हैं तो उसके लिए कोई राजनीतिक ताकत या इच्छाशक्ति जिम्मेदार नहीं है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट की नकेल ने सीबीआई को ऐसा करने के लिए मजबूर किया है। अगर राजनीतिक नेतृत्व ने जिम्मेदारी और इच्छाशक्ति दिखाई होती तो शायद घोटाले के तार इतनी दूर तक नहीं पहुंचते।

पहले राजा और बाद में कनिमोझी के खिलाफ अगर सीबीआई को आरोप पत्र दाखिल करना पड़ा तो इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की कड़ी निगरानी जिम्मेदार है। यह तथ्य डीएमके सुप्रीमो भी जानते हैं। इसलिए उनकी कोशिश यही रही है कि यूपीए को समर्थन के एवज में इस मामले को ज्यादा से ज्यादा हलका बना सकें, ताकि इस केस की आंच में अधिक से अधिक उनकी राजनीति में हलकी सी झुलसन आ सके, उनकी राजनीति खाक न हो सके। सीबीआई की चार्जशीट से करूणानिधि की दूसरी पत्नी और कनिमोझी की मां दयालु अम्माल का नाम गायब होना एक तरह से करूणानिधि की कामयाबी भी है। सुप्रीम कोर्ट की कड़ी निगरानी के बावजूद कार्यपालिका अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते मनमाना कदम उठाने में कामयाब रही है। लेकिन अदालत के सामने सीबीआई के वे तर्क कितने दिनों तक टिकेंगे, देखना दिलचस्प रहेगा। क्योंकि जिस कलईंजर टीवी में स्वान टेलीकॉम ने एक तरह से रिश्वतखोरी के तहत निवेश किया है, उसके साठ फीसदी हिस्से की मालकिन दयालु अम्माल ही हैं। बाकी चालीस फीसदी में से आधे-आधे की मालिक कनिमोझी और कलईंजर टीवी के प्रबंध निदेशक शरत कुमार हैं। सीबीआई ने दयालु अम्माल को क्लीन चिट देने के लिए तर्क दिया है कि वे तमिल के अलावा दूसरी कोई भाषा न तो बोल सकती हैं और न ही समझ सकती हैं। सिर्फ तमिल जानना ही किसी के निर्दोष होने की गारंटी कैसे हो सकता है। सीबीआई का यह तर्क आसानी से गले नहीं उतरता कि चालीस फीसदी के मालिक रिश्वतखोरी के लिए जिम्मेदार तो हैं, लेकिन साठ फीसदी की मालकिन इसके लिए जिम्मेदार न हो। दयालु अम्माल का नाम चार्जशीट से अलग कराना एक तरह से करूणानिधि कामयाबी ही कही जाएगी।

तमिलनाडु विधानसभा चुनावों के नतीजों ने साफ कर दिया है कि अगर तमिलनाडु में करूणानिधि और उनके कुनबे को थोड़े सुकून के साथ जीना है तो उन्हें यूपीए के साथ रहना ही होगा। बदले माहौल में केंद्र सरकार से अलग होने का जोखिम उठाना करूणानिधि के लिए आसान नहीं है। क्योंकि राज्य की राजनीति में जयललिता के साथ उनका जो छत्तीस का आंकड़ा है, उसमें ज्यादा उम्मीद भी बेमानी है। इस बात की गारंटी नहीं है कि पिछली दफा की तरह जयललिता इस बार भी करूणानिधि को निशाना नहीं बनाएंगी। पिछली बार जब जयललिता ने देर रात करूणानिधि को गिरफ्तार किया था, तब भी डीएमके केंद्र की एनडीए सरकार का प्रमुख घटक था और उसके दिग्गज मुरासोली मारन और टीआर बालू केंद्रीय कैबिनेट में शामिल थे। इसके बाद भी जयललिता ने करूणानिधि को उन मंत्रियों समेत गिरफ्तार करने से नहीं हिचकी थीं। जहां राजनीतिक बदले की भावना इस हद तक हो, वहां विधानसभा चुनावों में हार की आशंका के बीच करूणानिधि केंद्र से अलग होने की हिम्मत कैसे जुटा सकते हैं। वैसे कनिमोझी का नाम सीबीआई की चार्जशीट में आने के बाद कांग्रेस के रणनीतिकारों के माथे पर बल पड़ने लगे थे। इसीलिए कांग्रेस ने वैकल्पिक इंतजाम कर रखे थे। डीएमके के बाहर जाने की हालत में समाजवादी पार्टी का विकल्प उन्होंने तैयार कर रखा था। लेकिन बदले माहौल में कांग्रेस को शायद उस विकल्प को आजमाने की जरूरत ही नहीं पड़े। सबसे बड़ी बात यह कि तमिलनाडु चुनावों में हार के बाद डीएमके अब दबाव की बजाय याचना की भूमिका में होगा और इससे केंद्र सरकार को कम से कम डीएमके की तरफ से किसी खतरे की आशंका नहीं रहेगी। अगर कनिमोझी को राहत पानी है या करूणानिधि के दुलारे ए राजा को जेल के बाहर की दुनिया जल्द देखनी है तो यूपीए का साथ ही इन उम्मीदों का सहारा बन सकता है।

Thursday, April 21, 2011

अन्ना के आंदोलन को पटरी से उतारने की कोशिश


उमेश चतुर्वेदी
“पिछले कुछ दिनों का घटनाक्रम चिंता का विषय है. ऐसा लगता है कि देश की भ्रष्ट ताकतें भ्रष्टाचार निरोधी प्रभावी कानून तैयार करने की प्रक्रिया को पटरी से उतारने के लिए एकजुट हो गई हैं. मेरा आपसे आग्रह है कि हम एकसाथ मिलकर उन ताकतों को पराजित कर सकते हैं. उन ताकतों की एक रणनीति यह है कि समिति में शामिल सामाजिक कार्यकर्ताओं की छवि खराब की जाए.”
अन्ना हजारे की चिट्ठी के ये अंश दरअसल उस पीड़ा की अभिव्यक्ति है, जो एक अच्छे काम को पटरी से उतारने की कोशिशें से उपजी है। इस पीड़ा में अन्ना का क्षोभ भी कहीं गहरे तक साया है। ऐसी तकलीफ गांधी जी को भी आजादी मिलने के कुछ पहले हुई थी, जब उनकी सोच के मुताबिक काम करने से तब के प्रमुख कांग्रेसी हिचकने लगे थे और लगता था कि आजाद भारत के कांग्रेसियों को गांधी जी की जरूरत ही नहीं रह गई है। तब गांधी ने कहा था कि इसी देश की मिट्टी से वे दोबारा कांग्रेस से भी बड़ा आंदोलन खड़ा कर देंगे। गांधी जी की उस पीड़ा और अन्ना हजारे के क्षोभ भरे दर्द में एक अंतर है। दरअसल गांधीजी को पीड़ा उनके अपने ही अनुयायियों से पहुंची थी, जबकि अन्ना को उनके आंदोलन के साथियों से ज्यादा दूसरे लोगों के हमलों का सामना करना पड़ रहा है। इसीलिए उनका क्षोभ गांधी से कहीं कम है, लेकिन उनका भी कर्म चूंकि बृहत्तर सामाजिक संदर्भों को पटरी पर लाने से जुड़ा है, इसीलिए दर्द भी है।
जन लोकपाल की मांग को लेकर अनिश्चित कालीन अनशन पर बैठे अन्ना की मांगों को मानना भारत सरकार की मजबूरी बन गई थी। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के दावा करते न थकने वाली भारत सरकार को नव उदारीकरण के दौर में लोकतंत्र भी एक नाटक सा होता जा रहा है। फिर पश्चिमी ताकतों के सामने लोकतांत्रिक होते दिखना भी उदारवाद का ही सहज विस्तार माना जा रहा है। ऐसे में भारत सरकार को लोकतांत्रिक दिखना जरूरी था। उसके सामने इसी साल जनवरी में शुरू हुए मिस्र की राजधानी काहिरा के तहरीर चौक पर लोकतांत्रिक शक्तियों ने जिस तरह वहां के राष्ट्रपति हुस्ने मुबारक को झुकने के लिए मजबूर कर दिया था, उसका उदाहरण अभी पुराना नहीं पड़ा है। ट्यूनिशिया की घटनाएं भी ताजा ही हैं, यमन में जारी लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शन अभी जारी ही है। नये मीडिया माध्यमों, सोशल मीडिया आदि के जरिए दुनिया जितनी छोटी हुई है, उतनी शायद इससे पहले कभी छोटी नहीं थी। इसका सहज असर पूरी दुनिया में दिख रहा है। चूंकि हम बाकी दुनिया की तुलना में खुद को कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक साबित करने का मौका नहीं छोड़ते, लिहाजा अन्ना हजारे के सामने हमारी सरकार को झुकना ही था। वह झुकी भी। खुद अन्ना को भी इतनी उम्मीद नहीं थी कि उनके अनशन के महज चार दिनों में देशव्यापी इतना ज्यादा समर्थन मिल जाएगा। लेकिन भारी समर्थन ने उनके आत्मविश्वास को किस कदर बढ़ा दिया है कि जन लोकपाल के लिए गठित समिति की पहली बैठक में शामिल होने के लिए जाते वक्त यह कहने से नहीं चूके कि अगर उनका अनशन चार दिन और चल जाता तो केंद्र सरकार गिर जाती। उसी अन्ना का आत्मविश्वास महज दो दिनों बाद डोलने लगता है और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने के लिए मजबूर होना पडता है तो जाहिर है कि उनके अंदर कहीं न कहीं कुछ अपने राजनीतिकों के दांव-पेंचों से कुछ न कुछ खदबदा रहा है।
इटली के विद्वान मेकियावेली ने अपनी मशहूर पुस्तक द प्रिंस में सत्ता के चरित्र की व्याख्या की है। इस व्याख्या के मुताबिक सत्ताएं चाहें अधिनायकवादी हों या फिर लोकतांत्रिक, उनके मूल में एक समानता होती है, विरोधी सुरों को आसानी से स्वीकार नहीं करना। सत्ता का यह लौहआवरण ही है कि वह जल्द झुकती भी नहीं। इसका उदाहरण अपने ही देश के छोटे-छोटे आंदोलनों में दिख जाएगा। जहां लोगों की मांगें जायज हैं, लेकिन सत्ता ने ठान लिया है कि वहां उसकी मर्जी से विकास हो तो इसके लिए वह जायज मांगों को लेकर खड़े लोगों तक पर गोलियां चलाने से नहीं हिचक रही हैं। सत्ता विरोधी सुरों को कुचलने के उदाहरण राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से ठीक नजदीक नोएडा या फरीदाबाद तक में दिख सकता है। ऐसे में यह सोचना की सत्ता अन्ना के सामने झुक गई और जन लोकपाल की राह आसान हो गई, दरअसल दिवास्वप्न जैसा ही था।
आंदोलन को तोड़ने की कोशिशें उसी दिन शुरू हो गईं, जब आंदोलन की कामयाबी के लिए अन्ना से ज्यादा सोनिया गांधी को ज्यादा जिम्मेदार बनाने की कांग्रेसी कोशिशें शुरू हो गईं। इतना ही नहीं, जन लोकपाल के लिए गठित ड्राफ्ट कमेटी में शांतिभूषण और उनके बेटे प्रशांत भूषण के शामिल किए जाने को वंशवाद से जोड़कर देखा-दिखाया जाने लगा। इन चर्चाओं और खबरों के पीछे जहां सत्ताधारी खेमें के कुछ लोग जुटे हैं तो कई लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें भगवा रंग से हर कीमत पर नाराजगी है। अन्ना हजारे ने नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के ग्रामीण विकास की सफल योजनाओं के लिए प्रशंसा क्या कर दी, अन्ना की लानत-मलामत का जैसे मौका ही मिल गया। अन्ना जब नीतीश या नरेंद्र मोदी की प्रशंसा कर रहे थे तो उसके पीछे उनका सहज हृदय काम कर रहा था। लेकिन अन्ना के आंदोलन के आगे मजबूर हुए ताकतवर लोगों को अन्ना के इस बयान में भी खोट और सांप्रदायिकता नजर आने लगी। नरेंद्र मोदी ने लाख गुनाह किए हों, लेकिन हकीकत तो यही है कि गुजरात की जनता ने उन्हें दोबारा चुना है। ऐसे में उन्हें गाली देना और उनके हाथों हुए विकास कार्यों की बिना वजह आलोचना करने के लिए गोधरा का भूत जगाना दरअसल नरेंद्र मोदी पर हमला नहीं था, बल्कि अन्ना के आंदोलन को पटरी से उतारने की कोशिश ही थी। इसमें एक खास विचारधारा के लोग कुछ ज्यादा ही सक्रिय हैं।
गांधीजी की अगुआई में जब कांग्रेस भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के केंद्र में थी, तब उसके साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी काम कर रहा था, सांप्रदायिकता विरोधी गांधी को भी आरएसस के साथ से परहेज नहीं था। गांधी की हत्या का आरोप आरएसस पर था, इसके बावजूद पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी शामिल थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने खुद आरएसएस को गणतंत्र दिवस की परेड में मार्च पास्ट के लिए बुलाया था। इसका यह मतलब था कि देश के समग्र विकास में वे सबको साथ लेकर चलने की विचारधारा पर चलते थे। अन्ना के मोदी समर्थक बयान को उस नजरिए से क्यों नहीं देखा गया और उसकी आलोचना करने की कोशिशें तेज हो गईं। साफ है कि अन्ना और उनकी टीम पर आरोप लगा-लगाकर दरअसल उनकी साख को धक्का पहुंचाने की कोशिशें शुरू हो गईं है।
आखिर क्या वजह है कि अन्ना की साख को चोट पहुंचाने की कोशिशें तेज हो रही हैं। इसके दो कारण हैं। पहला कारण तो विशुद्ध राजनीतिक है। अन्ना ने जन लोकपाल के लिए जो आंदोलन चलाया है, निश्चित तौर पर उसका फायदा पूरे देश को होना है। लेकिन चूंकि अन्ना और उनके साथियों ने इसका राजनीतिक फायदा उठाने की कोई मंशा जाहिर नहीं की है और न ही उनकी कोई मंशा है भी। उनके पास राजनीतिक संगठन भी नहीं है। इसके चलते देर-सवेर जब चुनाव होंगे तो विपक्षी राजनीतिक धारा के एक वर्ग को डर है कि इसका फायदा भारतीय जनता पार्टी को हो सकता है। भारतीय जनता पार्टी कालेधन, स्विस बैंक में जमा धन और भ्रष्टाचार के मसले को लेकर 2009 के आम चुनावों से ही आंदोलन कर रही है। हालांकि उसे इसका फायदा नहीं मिल पाया। लेकिन अन्ना की साख भरी आवाज ने जब लोगों को जगा दिया तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन तो ख़ड़ा हो गया, लेकिन चुनावी समर में जाहिर है कि यह सवाल उठाने का फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिल सकता है। हालांकि शांति भूषण या प्रशांत भूषण जैसे जिन लोगों पर सवाल उठाए जा रहे हैं, सच तो यह है कि वे खुद भी नहीं चाहेंगे कि अन्ना के साथ खड़े आंदोलन का फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिले। इसके बावजूद अन्ना की साख को गिराने की कोशिशें जारी हो रही हैं।
इसकी दूसरी वजह सत्ता के अहं को पहुंची चोट है, जिसका बदला वह चुकाना चाहेगी ही। वैसे सत्ता के इर्द-गिर्द भ्रष्टाचारियों का बोलबाला कुछ ज्यादा ही है। उन्हें एक और डर सता रहा है कि अगर जन लोकपाल बिल पास हुआ तो उनके तो हाथ-पांव ही बंध जाएंगे। इसके लिए वे अन्ना को ही जिम्मेदार मानते हैं और अन्ना को जनसमर्थन के मुद्दे पर पटखनी तो देने से फिलहाल वे रहे तो इसके लिए बेहतर उपाय यह है कि अन्ना की साख को ही चोट पहुंचाई जाय। लेकिन अन्ना की साख पर चोट पहुंचाने की कोशिशें में जुटे लोगों को यह पता होगा ही कि अन्ना के लिए दौड़ने-रोने और चलने वाला पूरा समाज है। अन्ना के पास कोई आर्थिक ताकत भी नहीं है। ऐसे लोगों के लिए समाज तभी उठ खड़ा होता है, जब उसकी साख होती है और अन्ना जैसे लोगों की साख एक दिन में नहीं आती। इसलिए उस पर चोट पहुंचाना भी आसान नहीं होता।

Tuesday, April 12, 2011

विधानसभा चुनावों के नतीजे और भावी राजनीति

उमेश चतुर्वेदी
क्रिकेट के विश्व कप में भारत की जीत ने उन करोड़ों भारतीयों की जिंदगी में भी बेशक कुछ पल के लिए रोशनी की लकीर खींच दी है, जिनकी जिंदगी की दहलीज को अब भी असल रोशनी का इंतजार है। उदारीकरण के दौर में लाख झुठलाया जाय, लेकिन कड़वी हकीकत तो यही है कि जिंदगी में असल रोशनी लाने की जिम्मेदारी राजनीति पर है और राजनीति की दिशाएं चुनाव तय करते हैं। इन दिनों देश के चार राज्यों में विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया जारी है। असम में चुनाव हो चुके है, नतीजों का इंतजार है। लेकिन शायद उन राज्यों के लोगों को छोड़ दें तो दूसरे इलाके के लोगों और मीडिया का ध्यान इस ओर नहीं इसका यह भी मतलब नहीं है कि इन चुनावों का कोई महत्व नहीं है और वे बेमानी हो गए है। इन चुनावों के नतीजे सिर्फ संबंधित राज्यों के लोगों के भाग्य को ही तय नहीं करेंगे, बल्कि देश की राजनीति पर भी असर डालेंगे। भारतीय जनता पार्टी के महासचिव अरूण जेटली इस चुनाव अभियान में इस तथ्य पर जोर दे रहे हैं। लेकिन उनकी भी बात का वजन इसलिए नहीं बढ़ रहा है, जिस केरल में प्रचार के दौरान उन्होंने यह कहा, उस केरल में भारतीय जनता पार्टी का खास दांव पर नहीं है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की लोककथाओं में पूरब यानी असम और बंगाल का ऐसे देस के तौर पर चित्रण है, जहां जादूगरनियां रहती हैं, जो वहां गए पुरूषों को तोता बनाकर पिंजरे में कैद कर लेती हैं। अपने खूबसूरत नागरिकों और शाक्त संप्रदाय के साथ ही उसकी तांत्रिक क्रियाओं के लिए इन राज्यों की शोहरत ने ही शायद इन लोककथाओं का जन्म दिया। लेकिन इन राज्यों की खूबसूरती को ग्रहण लग गया है। असम तीन दशकों से आतंकवाद की चपेट में है। यही वजह है कि इस राज्य में तीन दशकों में सिर्फ और सिर्फ आतंकवाद ही सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा रहा है। चाहे असम गण परिषद की अगुआई वाला मोर्चा रहा हो या फिर कांग्रेस, दोनों ने तीन दशकों में जितने भी चुनाव लड़े हैं, उनका सिर्फ एक ही मुद्दा रहा है- खून-खराबे पर काबू और आतंकवाद का सफाया। इसके बीच एक और मुद्दा काम करता है। यहां भाषा और उन्हें बोलने वाले भी चुनावी मुद्दा बनते रहे हैं। असम की राजभाषा असमी है। लेकिन यहां बांग्लाभाषी लोग भी हैं और बांग्लादेश से विस्थापित लोग भी है। असम गणपरिषद का गठन भी बांग्लादेश से आए लोगों को असम से बाहर निकालने के आंदोलन के तूल पकड़ने के बाद ही हुआ था। लेकिन अब इसमें बोडो को भी शामिल करने का आंदोलन शुरू हो गया है। इसके साथ ही बोडो को अलग राज्य बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है। दिलचस्प बात यह है कि उल्फा और बोडो- दोनों उग्रवादियों के निशाने पर अब हिंदीभाषी मजदूर भी बनने लगे हैं। क्योंकि दोनों ही समुदायों को प्रवासी हिंदीभाषी दुश्मन और उनके रोजगार पर हक जताने वाले लगते हैं। इस बार जहां बीजेपी अकेले चुनावी मैदान में है। सबसे हैरतअंगेज बात यह है कि राज्य के बांग्लाभाषी इलाकों में बीजेपी का प्रभाव रहा है। 1999 के लोकसभा चुनाव में यहां से बीजेपी के चार सांसद चुने गए थे। लेकिन 2001 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की स्थानीय इकाई असम गणपरिषद के साथ चुनाव नहीं लड़ना चाहती थी। लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में सहभागी होने के चलते बीजेपी को असम गणपरिषद के साथ चुनावी वैतरणी में उतरना पड़ा और बीजेपी के साथ ही असम गणपरिषद को भी मुंह की खानी पड़ी। तब से लेकर तरूण गोगोई के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार चल रही है। हालांकि 2006 के विधानसभा चुनावों में तरूण गोगोई की अगुआई में कांग्रेस को साफ बहुमत नहीं मिल पाया। इत्र व्यापारी बदरुद्दीन अजमल की असम यूनाइडेट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एयूडीएफ) ने पिछले चुनाव में कांग्रेस को जोरदार झटका दिया था। हालांकि बाद में वह भी सरकार में शामिल हो गई। तरूण गोगोई की अकेली उपलब्धि उल्फा से बातचीत शुरू कराना है। हालांकि कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। विपक्षी असम गणपरिषद पिछले चुनावों में बिखरी हुई थी। उसमें दो-फाड़ हो गया था। लेकिन इस बार प्रफुल्ल मोहंत की अगुआई में पार्टी के साथ सीपीएम और सीपीआई का मोर्चा कांग्रेस को टक्कर दे रहा है। वैसे दिल्ली के राजनीतिक हलके में कहा जा रहा है कि असम गण परिषद और बीजेपी भले ही चुनावी मैदान में अलग-अलग हों, लेकिन उनके बीच सियासी समझ विकसित हो गई है। यानी जरूरत पड़ी तो दोनों दल चुनाव बाद एक साथ सरकार बना सकते हैं। हालांकि चुनाव पूर्व हुए कुछ सर्वेक्षणों में कांग्रेस की वापसी की उम्मीद जताई जा रही है। लेकिन सी वोटर के यशवंत देशमुख का मानना है कि वहां कांग्रेस की वापसी मुश्किल है।
पश्चिम बंगाल और केरल दो ऐसे राज्य हैं, जहां वामपंथ अपनी पकड़ और पहुंच बनाए हुए है। दुनिया के तमाम अहम देशों से मार्क्सवादी राजनीति की विदाई के दौर में भी पश्चिम बंगाल अलग उदाहरण बना हुआ है। संसदीय राजनीतिक परंपरा में शामिल वामपंथी सरकार की लगातार 34 साल से मौजूदगी को दुनिया हैरत की निगाह से देखत रही है। लेकिन इस बार माना जा रहा है कि ममता बनर्जी की अगुआई वाली तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का गठबंधन वामपंथ के इस गढ़ को ध्वस्त कर देगा। सिंगूर और नंदीग्राम के बाद तृणमूल कांग्रेस की राज्य के मतदाताओं में बढ़ती पकड़ और पहुंच को पिछले लोकसभा चुनावों में देखा जा चुका है। इसलिए माना जा रहा है कि इस बार पश्चिम बंगाल का लाल दुर्ग ध्वस्त हो सकता है। चूंकि वामपंथी खेमे के पास इन दिनों ज्योति बसु जैसा कोई चमत्कारिक नेता नहीं है, लिहाजा इस मान्यता में दम भी देखा जा रहा है। वाममोर्चे के शासन ने राज्य में भूमि सुधार का जो इतिहास रचा, वह पूरे देश में कहीं नहीं दिखा। आम लोगों की असल रहनुमाई करने का दावा करने वाली इस राजनीतिक विचारधारा से उम्मीद कहीं ज्यादा थी। लेकिन यह उम्मीद तकरीबन हर मोर्चे पर विफल हुई है।
अंग्रेजों के साथ के चलते देश में सबसे पहले कहीं नवजागरण आया तो वह बंगाल ही था। इसके चलते आजादी मिलते तक पश्चिम बंगाल में उद्योगों का जाल बिछा हुआ था। 1977 में जब पहली बार वाम मोर्चा की सरकार बनी तो उम्मीद जगी कि इस राज्य में आम लोगों की भलाई की राह में ढेर सारे बदलाव होंगे। सबसे बड़ा बदलाव तो भूमि सुधारों का हुआ। तब से लेकर अब तक चुनावी राह से इस राज्य में वामपंथी सरकार बनी हुई है। चीन और वेनेजुएला को छोड़ दें तो तकरीबन पूरी दुनिया से कम्युनिस्ट विचारधारा वाली सरकारों की विदाई हो चुकी है। ऐसे में संसदीय परंपरा को आत्मसात करते हुए 34 सालों से सरकार चलाना सचमुच वामपंथी विचारधारा की कामयाबी का ही इतिहास है। लेकिन इस दौर में जिस तरह सत्ता के विकेंद्रीकरण के नाम पर स्थानीय स्तर तक वामपंथी कैडरों की ताकत में इजाफा हुआ, उसका नतीजा राज्य में एक नए तरह के शोषण के तौर पर दिखा। आम आदमी की सैद्धांतिक तौर पर बात करने वाली विचारधारा के लोगों ने आम लोगों पर कहर बरपाने शुरू कर दिए। औद्योगिक केंद्र रहे पश्चिम बंगाल से उद्योगों की विदाई हो गई। पूरबिया लोकगीतों में सजने वाला बंगाल और कोलकाता अपना रौनक खोने लगा। वाम मोर्चे की सांगठनिक गुंडई का नजारा सिंगूर और नंदीग्राम में दिखा। इसके खिलाफ ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने मोर्चा संभाला। कहा जा रहा है कि उसे नक्सलियों का भी समर्थन हासिल है। बंगला समाज अपने संस्कृति कर्मियों पर खासा गर्व करता है। लेकिन वाममोर्चे की सांगठनिक जबर्दस्ती और राज्य की बदहाली ने महाश्वेता देवी, शंखो घोष, अपर्णा सेन जैसे तमाम संस्कृति कर्मी भी राज्य की वाममोर्चा सरकार के खिलाफ हो गए। इसका नतीजा पिछले लोकसभा चुनाव में भी दिखा। इस बार वाम मोर्चा अपने पुराने सभी साथियों मसलन सीपीएम, सीपीआई, आरएसपी, फारवर्ड ब्लॉक के साथ अपना गढ़ बचाने की जुगत में जुटा है, वहीं ममता बनर्जी और कांग्रेस उसका मुकाबला कर रहे हैं। इसी राज्य की राजधानी कोलकाता में 1951 में भारतीय जनता पार्टी के पूर्व संगठन भारतीय जनसंघ की स्थापना श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने की थी। लेकिन यहां भारतीय जनता पार्टी एक कोने में पड़ी अपने अस्तित्व को साबित करने की जद्दोजहद में जुटी हुई है। चुनाव सर्वेक्षण मान रहे हैं कि इस बार तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का राज्य सचिवालय रायटर्स बिल्डिंग पर कब्जा होने जा रहा है। लेकिन सीटों के बंटवारे को लेकर जिस तरह दोनों पार्टियों में खींचतान जारी रही, उससे दोनों पार्टियों का आपसी विश्वास बरकरार नहीं हो पाया है। कांग्रेस पार्टी के एक महत्वपूर्ण नेता का इन पंक्तियों के लेखक ने पूछा कि ममता बनर्जी से कांग्रेस का भरोसा बन गया है। तो उनका जवाब था कि पहले ममता खुद पर तो भरोसा करें। इस जवाब में ही छुपा है कि दोनों पार्टियों का भविष्य कैसा रहने वाला है। वैसे सच तो यह है कि वाममोर्चे की सांगठनिक जबर्दस्ती से पश्चिम बंगाल को मुक्ति दिलाने का दावा कर रही ममता बनर्जी के पास विकास का पहिया पटरी पर लाने के लिए कोई विशेष कार्यक्रम या रोडमैप नहीं है। अगर है भी तो अब तक नजर नहीं आया है। फिर तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता भी वाममोर्चे के कार्यकर्ताओं के तर्ज पर निचले स्तर तक तुर्की-बतुर्की काम करने की तैयारियों में जुट गए हैं। यानी अगर राज्य में सत्ता का परिवर्तन हुआ तो वहां सिर्फ राजनीति का ही नहीं, अराजकता का नया इतिहास भी रचा जाएगा। जिसे एक किनारे बैठकर देखने के लिए कांग्रेस भी मजबूर रहेगी।
दुनिया में वाम विचार धारा की पहली सरकार बतौर चुनाव देने वाले राज्य केरल में भी फिलहाल वाममोर्चा की सरकार है। राज्य के मुख्यमंत्री वी एस अच्युतानंदन की ईमानदारी और सादगी की वाममोर्चे कार्यकर्ताओं पर पूरी पकड़ है। इसके बावजूद उन्हें पिछली बार की ही तरह इस बार भी सीपीएम ने टिकट नहीं दिया। पिछली बार कार्यकर्ताओं के दबाव पर उन्हें ना सिर्फ टिकट दिया गया, बल्कि सीपीएम नेतृत्व को उन्हें मुख्यमंत्री भी बनाना पड़ा। इस बार उनको टिकट तो आखिरकार दबाव में दे दिया गया, लेकिन राज्य सचिव पनिराई विजयन के दबाव में अगर सत्ता मिलती भी है तो अच्युतानंदन को आसानी से मुख्यमंत्री की कुर्सी शायद ही मिले। वैसे देश का सबसे पहला संपूर्ण शिक्षित इस राज्य के ग़रीब परिवारों से आने वाले 54 प्रतिशत लोग बेरोज़गार हैं, जबकि प्रभावशाली परिवारों के मामले में यह आंकड़ा 24.8 प्रतिशत है। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के 41 फीसद हिस्से का उपभोग सिर्फ दस फीसद जनता करती है। अगर खाड़ी देशों में यहां के कामगारों को काम न मिला होता तो शायद कई घरों में चूल्हे भी नहीं जलते। भगवान का अपना देश के तौर पर विख्यात इस राज्य में पर्यटन की अकूत संभावनाओं के बावजूद राज्य सरकारें कुछ कर नहीं पाईं। इसके बावजूद राज्य के ज्यादातर लोगों की पहली पसंद वीएस अच्युतानंदन हैं। लेकिन बेरोजगारी और महंगाई के चलते इस बार माना जा रहा है कि कांग्रेस की वापसी होगी। इस बार कांग्रेस के साथ यहां केरल कांग्रेस और मुस्लिम लीग भी शामिल है। मजे की बात यह है कि उत्तर भारत में बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करने वाली कांग्रेस को केरल में मुस्लिम लीग सांप्रदायिक नजर नहीं आती। लेकिन कांग्रेस के सामने भी मुख्यमंत्री पद की चुनौती भी है। राज्य में कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार है- राज्य कांग्रेस अध्यक्ष रमेश चेनिथला और पूर्व मुख्यमंत्री ओमान चांडी। पिछली बार ए के एंटनी को हटाने के बाद कुछ महीनों तक चांडी को ही कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बनाया था। लेकिन रमेश चेनिथला को उम्मीद है कि चुनाव बाद उनके पक्ष में भाग्य का दांव पलट सकता है।
सबसे दिलचस्प मुकाबला तमिलनाडु में हो रहा है। जहां एक तरफ करूणानिधि की अगुआई वाला डीएमके और कांग्रेस का गठबंधन है तो दूसरी तरफ जयललिता की अगुआई वाला एआईडीएमके है। जयललिता के साथ सीपीआई और सीपीएम भी है। तीसरा मोर्चा तमिल अभिनेता विजयकांतन की पार्टी डीएमडीके का है। पिछली बार उनकी पार्टी ने दस फीसदी वोट पाकर तहलका मचा दिया था। 1999 के लोकसभा चुनावों में राज्य से चार सीटें हासिल करने वाली बीजेपी एक बार फिर यहां अपना अस्तित्व तलाश रही है। हालांकि राज्य बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष सी पी राधाकृष्णन चाहते थे कि पार्टी जयललिता के साथ विधानसभा चुनावों में उतरे, लेकिन राज्य प्रभारी वेंकैयानायडू का तर्क था कि राज्य स्तरीय पार्टी से गठबंधन कैसे हो सकता है। हालांकि इस तर्क का आधार समझ में नहीं आया। इस बार राज्य का प्रभावी नाडर समुदाय का एक नेता टूटकर बीजेपी के साथ आने को तैयार था। लेकिन उसे पार्टी ने भाव ही नहीं दिया। बहरहाल यह राज्य ऐसा है, जहां भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है। भ्रष्टाचार को लेकर राज्य की जनता भी बंटी हुई नजर आ रही है। हालांकि वोटरों को खरीदने और मंगल सूत्र से लेकर लैपटाप देकर खरीदने की कोशिश हो रही है। चुनाव सर्वेक्षणों की मानें तो इस बार अम्मा की वापसी की संभावना ज्यादा है। पांचवा राज्य पुद्दुचेरी है, यहां की तीस सदस्यीय विधानसभा का चुनाव भी साथ ही हो रहा है। हालांकि उसकी राजनीतिक गूंज खास सुनाई नहीं दे रही है।
यह सच है कि अगर ममता को पश्चिम बंगाल में बहुमत के करीब सीटें मिलीं तो वह कांग्रेस का साथ छोड़ने से देर नहीं लगाएंगी। लेकिन तमिलनाडु में अगर जयललिता का संगठन जीतता है तो केंद्र के साथ डीएमके का साथ बना रहेगा। लेकिन क्योंकि भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे करूणानिधि परिवार के लिए सरकार का साथ ही संजीवनी बन सकता है। केरल और पश्चिम बंगाल की हार वाम मोर्चे के लिए सदमा तो होगा, लेकिन उम्मीद की जा सकती है कि संघर्षों के लिए मशहूर इस मोर्चे के नेता महंगाई और भ्रष्टाचार के मसले पर केंद्र की नाक में दम करने से नहीं हिचकेंगे। जिसकी अनूगूंज देर तक सुनाई देगी। केरल में प्रचार करते वक्त भारतीय जनता पार्टी महासचिव अरूण जेटली ने उम्मीद जताई है कि इन विधानसभा चुनावों के नतीजे राजनीतिक स्तर पर कई बदलाव लाएंगे। हो सकता है, बदलाव आएं, लेकिन इसमें बीजेपी का भी योगदान होगा, इसे लेकर संदेह की गुंजाइश बनी हुई है।

Monday, April 11, 2011

समाजवाद की प्रासंगिकता और तीसरी धारा की करवट लेती राजनीति

उमेश चतुर्वेदी
डॉक्टर राममनोहर लोहिया की जन्मशताब्दी बीत गई, स्वतंत्रता के बाद भारतीय मनीषा और राजनीति को झकझोर कर रख देने वाली इस शख्सियत की याद को जनमानस के बीच ताजा करने की कोशिश क्यों करती...लोकसभा की फकत चार साल की सदस्यता में ही इस शख्सियत ने शाश्वत सवालों को उठाकर तत्कालीन सरकारों को सोचने और बचाव की मुद्रा में आने के लिए बाध्य किया, भारतीय संसदीय इतिहास में ऐसी दूसरी नजीर नहीं मिलती। ऐसे में स्वाभाविक ही था कि लोहिया को सरकारी स्तर पर याद किया जाता और उनकी जन्मशताब्दी मनाई जाती। लेकिन ऐसा नहीं हो सका..जबकि इस सरकार और कांग्रेस पार्टी में अब भी लोहियावदी समाजवाद के अब भी कई समर्थक शामिल हैं। उम्मीद तो यह भी थी कि जयप्रकाश और लोहिया के नाम पर तीसरी कतार में खड़े होकर समाजवादी राजनीति करने वाले लोगों के बीच भी कोई हलचल होगी, लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा भी नहीं हुआ। ना सिर्फ समाजवादी, बल्कि मार्क्सवादी धारा के लोग भी मानते हैं कि देश में इन दिनों जैसी परिस्थितियां हैं, उनमें लोहिया की राह पर चलते हुए आंदोलन खड़े किए जा सकते हैं और उनके ही जरिए मौजूदा हालात से निबटा जा सकता है। लोहिया जन्मशताब्दी की पूर्व संध्या पर उनकी रचनाओं के लोकार्पण के मौके पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एबी वर्धन का कहना कि देश में लोहियावादी तरीके से आंदोलन खड़ा करने की परिस्थितियां मौजूद हैं, लेकिन मौजूदा राजनीतिक तंत्र की साख ही संकट में है, लिहाजा जनता भरोसा करने को तैयार नहीं है।
यह सच है कि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय- दोनों ही मोर्चों पर हालात बेहद तकलीफदेह और कशमकश भरे हैं। महंगाई बेलगाम हो गई है, गरीब की जिंदगी को कौन कहे, निम्न मध्यवर्ग की जिंदगी भी बेकाबू महंगाई से बदहाल होती जा रही है। राजनीतिक तंत्र में भ्रष्टाचार संस्थानिक तौर पर जड़ जमा चुका है। राज्यों के मुख्यमंत्रियों से लेकर केंद्रीय मंत्रियों तक पर खुलेआम भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, हसन अली जैसे टैक्स चोर के साथ महाराष्ट्र के तीन-तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों के पैसे के लेन-देन की बात सामने आती है, आजाद भारत के इतिहास में दूसरी बार प्रधानमंत्री पर अपनी सरकार बचाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त का आरोप लगा है। इन सब मसलों से ऐसा नहीं कि जनता परेशान नहीं है..आम लोगों में रोष नहीं है...लेकिन शहरी इलाकों में आर्थिक उदारीकरण ने जिस तरह जिंदगी के संघर्ष को सामाजिक संघर्षों से भी कहीं ज्यादा बड़ा बना दिया है, इसलिए लोग सब चलता है- कहकर राजनीति और व्यवस्था के साख पर आए संकट को देखने के लिए मजबूर हैं। ऐसे में क्या लोहिया चुप रहते..निश्चित तौर पर वे नए सिरे से आंदोलन खड़ा कर देते, कमजोर लोगों और जनता के हक-हकूक की आवाज उठाना उनका उसूल था, लिहाजा वे अपने इस उसूल से किसी भी कीमत पर समझौते नहीं करते।
भारतीय राजनीति में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान, शरद यादव और नीतीश कुमार जैसी शख्सियतें लोहिया और जयप्रकाश की समाजवादी धारा पर ही राजनीति करने का दावा करती रही हैं। कांग्रेस के मुखर प्रवक्ता मोहन प्रकाश भी लोहियावादी राजनीति के पुरोधा रहे हैं। ऐसे में अगर आम लोगों और मजलूमों की सहूलियत की बात करने वाली मनीषा इन राजनेताओं पर टकटकी लगाकर देखती हैं तो यह वाजिब ही है। लेकिन दुर्भाग्यवश समाजवादी धारा के सहारे राजनीति और सत्ता की सीढ़ियां नापती रही राजनेताओं की इस पहली पंक्ति को लोहिया याद तो हैं, लेकिन उनके उसूल लगातार पीछे छूटते गए हैं। हालांकि लोहिया की जन्मशताब्दी की पूर्व संध्या पर राजधानी दिल्ली में एक मंच पर जब लोहियावाद के समर्थक एक मंच पर जुटे तो एक बार फिर यही सवाल उठा कि क्या लोहिया की याद में लोगों की समस्याओं के लिए मैदान में उतरना और समाजवादियों को एक मंच पर लाना जरूरी नहीं हो गया है। शरद यादव हों या रामविलास पासवान या फिर मुलायम सिंह यादव, तीनों कम से कम एक मुद्दे पर सहमत रहे कि अगर मौजूदा हालात के खिलाफ मजबूत आवाज नहीं उठाई गई तो आने वाले वक्त में देश को और भी कठिन हालात और चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। जाहिर है कि इस मौके पर एक बार फिर से तीसरे मोर्चे को जिंदा करने और आम लोगों की राजनीति करने की मांग उठाई गई। इसकी राम विलास पासवान और मुलायम सिंह यादव ने जोरदार शब्दों में वकालत की। लेकिन शरद यादव इस सवाल से कन्नी काट गए। दरअसल राजनीति की दुनिया में रामविलास पासवान की हालत किसी से छुपी नहीं है। पहले लोकसभा और बाद में बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की जो हालत हुई है, उसमें उन्हें समाजवाद और उनकी एकता की याद आनी स्वाभाविक है। उत्तर प्रदेश में दूसरी बड़ी ताकत रहे मुलायम सिंह को भी अपना जनाधार डोलता नजर आ रहा है, लिहाजा उन्हें भी समाजवादी एकता का शिगूफा पसंद आ रहा है। लेकिन क्या यह इतना आसान है।
डॉक्टर राममनोहर लोहिया पर आरोप लगता रहा है कि उन्होंने समाजवादी आंदोलन को बार-बार तोड़ा। 1963 में जब वे फर्रूखाबाद लोकसभा सीट से उपचुनाव में जीतकर संसद पहुंचे, तब एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार ने उनके बारे में लिखा था कि चीनी मिट्टी के बर्तनों में सांड़ घुस आया है। इससे साफ है कि लोहिया को लेकर एक वर्ग की धारणा क्या थी। कुछ इसी अंदाज में 1977 के बाद कई बार समाजवादी पार्टियां टूटीं और बिखरी हैं। उन्होंने अपने नेता लोहिया की इस विरासत को बखूबी संभाले रखा। तीन-तीन बार केंद्र की सत्ता में पहुंचने के बाद समाजवादी धारा के आंदोलन में इतना बिखराव हुआ कि राजनीतिक हलकों में इसे लेकर एक जुमला ही कहा जाने लगा – इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा। लेकिन ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि लोहिया ने समाजवादी आंदोलन को तोड़ा तो उसके पीछे उनके सिद्धांत और उसूल थे। जबकि बाद के दौर में समाजवादी आंदोलन के बिखरने की वजह समाजवादी नेताओं के अहं का आपसी टकराव और वंश-परिवारवाद का बढ़ावा रही है। लोहिया परिवार और वंशवादी राजनीति के खिलाफ थे, लेकिन उनके मौजूदा अनुआयियों के अंदर यह रोग कूट-कूट भर गया है। यही वजह है कि समाजवादी आंदोलन पर जनता का भरोसा कम होता गया है।
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के खेमे में बंटी भारतीय राजनीति में लोहिया के बहाने समाजवादी धारा के नेता भले ही आपसी एकता की चर्चा चला रहे हों, या फिर एक होना उनकी मौजूदा राजनीतिक मजबूरी हो, लेकिन सच तो यह है कि परिवारवाद और पैसावाद की परिधि से वे बाहर निकलने को तैयार नहीं है। समाजवादी धारा के नेता जब तक इन बुराइयों से दूर थे, अपने प्रभाव क्षेत्र की अधिसंख्य जनता के हीरो थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने उसूलों को तिलांजलि देकर उसी राजनीतिक संस्कृति को अख्तियार करना शुरू किया, जिसके विरोध में उनका पूरा विकास हुआ था, जनता की नजरों से वे उतरते गए। इसके साथ ही समाजवादी धारा की राजनीति की साख पर संकट बढ़ता गया। ऐसे में सवाल उठ सकता है कि उड़ीसा में बीजू जनता दल और हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल की साख अभी – भी क्यों बची हुई है। सच तो यह है कि उनकी साख अपनी समाजवादी सोच से ज्यादा बीजेपी की अपनी कमियों और खामियों के चलते बची हुई है।
तो क्या यह मान लिया जाय कि लोहिया के विचार और समाजवादी सोच पर आधारित उनकी राजनीति के दिन लद गए...इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है। लेकिन इतना तय है कि जब तक आम आदमी का सही मायने में सशक्तिकरण हो सकेगा, देसी भाषाओं के जरिए लोकतांत्रिक ताकत हासिल नहीं की जा सकेंगी, राजनीति जनता से सीधे ताकत नहीं हासिल करेगी, लोहिया की प्रासंगिकता बनी रहेगी।

Thursday, April 7, 2011

रालेगण सिद्धि के गांधी की आवाज

उमेश चतुर्वेदी
संसद और राष्ट्रपति भवन से महज डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित सरदार पटेल भवन की चारदीवारी से सटा मंच पांच अप्रैल की सुबह से ही गुलजार है। उदारीकरण के बाद की चमक-दमक भरी दुनिया में स्मार्ट पर्सनैलिटी और खूबसूरत चेहरे ही आकर्षण का केंद्र माने जा रहे हैं। इसके बावजूद राजधानी के जंतरमंतर रोड पर ठिगने कद का एक बूढ़ा आदमी हजारों लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। पांच अप्रैल की सांझ को यहां अपार जनसमुदाय गांधीजी का प्रिय भजन वैष्णव जन तो तेने कहिए गाने में मगन था, उस भीड़ में दो-तीन युवतियां ऐसी भी थीं, जिनके भर हाथ सजे चूड़े बता रहे थे कि उनकी हाल ही में शादी हुई है। लेकिन ठिगने कद के गांधी टोपीधारी अन्ना हजारे के सादे व्यक्तित्व का चुंबक इन युवतियों को भी जंतरमंतर पर खींच लाया है। देश के तमाम कोनों से जुटे बूढ़े-जवान, औरत-मर्द, पढ़े-लिखे, अनपढ़ हर तरह के लोग इस भीड़ में शामिल हैं। वे अन्ना के साथ हैं। अन्ना की जबान जब खुलती है तो वे धाराप्रवाह मराठी बोलते हैं। हिंदी की कुछ लाइनें मराठी में छौंक का काम करती हैं। लेकिन लोग उन्हें सुनने को ब्याकुल हैं। यह नजारा कम से कम उन भारतीयों के लिए राहत का संदेश लेकर आया है, जिन्हें लगता है कि देश में लूट-खसोट चलती रहेगी, अफसर-नेता और कारपोरेट का गठजोड़ जनता की गाढ़ी कमाई से मलाई काटता रहेगा। लेकिन जन लोकपाल बिल की अन्ना हजारे की मांग ने नजारा बदल कर रख दिया है। सूचना के अधिकार के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी, समाजवादी आर्यसमाजी स्वामी अग्निवेश, गोविंदाचार्य सभी इस महायज्ञ में आहुति देने और भ्रष्टाचार का खात्मा करने की लड़ाई में शामिल हो गए हैं।
भ्रष्टाचार पूरे देश में संस्थानिक हालात को प्राप्त कर चुका है। भ्रष्टाचार की आंच में झुलसता आम नागरिक इसे अपनी नियति मानने को मजबूर हो चुका था। लेकिन अन्ना की एक आवाज ने निराशा के इन स्वरों को बदलकर रख दिया है। दुष्यंत कुमार की गजल की वे पंक्तियां एक बार साकार होती नजर आ रही हैं – कौन कहता है आसमां में सूराख नहीं हो सकता/ एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो। अन्ना हजारे ने पत्थर उछाल दिया है, आसमां में सूराख कितना बड़ा होगा, यह तो तय होना बाकी है। लेकिन इस पत्थर की धमक कितनी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अन्ना हजारे से अपना अनशन वापस लेने की मांग की है। लेकिन अन्ना अपनी जिद्द पर अड़े हैं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, मुख्य सतर्कता आयुक्त पी जे थॉमस की नियुक्ति और कॉमनवेल्थ खेल घोटाले में चौतरफा घिरी सरकार पर अन्ना की मांग का दबाव कितना है, यह प्रधानमंत्री की अपील से साफ है।
यथास्थितिवाद की ओर लगातार कदम बढ़ाते जा रहे देश को लगता था कि जयप्रकाश आंदोलन सामाजिक बदलाव का आखिरी आंदोलन था। हालांकि हमें यह ध्यान रखना होगा कि जयप्रकाश नारायण के शामिल होने के पहले गुजरात विद्यापीठ के छात्रों ने गुजरात सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। हॉस्टल में बदहाल व्यवस्था को लेकर शुरू हुआ यह आंदोलन पूरे राज्य की बदहाली से जुड़ गया। देखते ही देखते इस आंदोलन में पूरे गुजरात का छात्र समुदाय जुट गया। गुजरात की हवा बिहार तक पहुंची और वहां महंगाई, भ्रष्टाचार और बदहाली से जूझ रहे छात्रों का गुस्सा फूट पड़ा। लेकिन यह आंदोलन पूरी तरह नेतृत्व विहीन था। जयप्रकाश तो छात्र नेताओं की मांग पर आंदोलन की कमान थामने को तैयार हुए। हालांकि अपनी अस्वस्थता के कारण उनका मन तैयार नहीं हो पा रहा था। लेकिन एक बार उन्होंने आंदोलन की कमान क्या थामी, देश में परिवर्तन की नई बयार ही बह चली। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाकर उस बदलाव को रोकने और बदहाली-भ्रष्टाचार के खिलाफ उठती आवाजों को दबाने की कोशिश तो की, लेकिन जयप्रकाश लहर के सामने वे कारगर नहीं हो पाईं। 1977 में हुए चुनावों में उन्हें बुरी तरह पराजय का दंश झेलना पड़ा। लेकिन इस आंदोलन की नाकामयाबी ही कही जाएगी कि इससे निकले लालू प्रसाद यादव जैसे नेता बदलाव की बयार के प्रतीक की बजाय पुरानी भ्रष्ट व्यवस्था का ही अंग बन गए। बाद के दौर में लालू-मुलायम अपनी जातियों के नेता के तौर पर ज्यादा जाने जाने लगे। 1974 में चंद्रशेखर ने जयप्रकाश को लिखी एक चिट्ठी में अपनी चिंता जाहिर करते हुए लिखा था कि जो लोग आपके आंदोलन में शामिल हो रहे हैं, वे व्यवस्था बदलने नहीं, बल्कि सत्ता बदलने आ रहे हैं और भविष्य में अपनी जातियों के नेता साबित होंगे। जयप्रकाश आंदोलन के बाद अस्तित्व में आई जनता पार्टी की सरकार को देश ने एक सकारात्मक प्रयोग की तरह देखा, लेकिन यह प्रयोग अपने अंतर्विरोधों के ही चलते असमय ही ध्वस्त हो गया और सार्वजनिक हित के लिए शुरू हुआ आंदोलन खत्म हो गया। इस आंदोलन के पैंतीस साल बाद यह कहने में हर्ज नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस की सत्ता की राजनीति में नाकामयाब रहे नेताओं ने सत्ता हासिल करने के लिए जयप्रकाश का इस्तेमाल किया था।
आंदोलन तो 1987 में भी विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में हुआ। वीपी भी जेपी बनना चाहते थे। लेकिन उनमें और जेपी में अंतर यह था कि जेपी जहां खुद सत्ता से दूर रहने के लिए मानसिक तौर पर तैयार थे, वहीं वी पी सिंह खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे और चंद्रशेखर को सत्ता से दूर रखने के लिए उन्होंने देवीलाल के साथ जो राजनीतिक चौपड़ बिछाई, उससे देश एक बार फिर बदलाव हासिल करने से वंचित रह गया। इन अर्थों में अन्ना हजारे का आंदोलन कुछ अलग है। यह जनांदोलन तो बन चुका है। सामाजिक कार्यकर्ता क्रांति प्रकाश 13 साल की उम्र में ही जयप्रकाश आंदोलन में कूद गए थे। उनके मुताबिक जनआंदोलन में पूरी दुनिया में जनता से चंदा मांगने की रवायत है। लेकिन अन्ना के इस आंदोलन में पैसे की मांग नहीं हो रही है। इस आंदोलन के जरूरी खर्च सामाजिक स्वयंसेवी संगठन उठा रहे हैं। ऐसा नहीं कि जेपी की तरह राजनेता अन्ना के साथ नहीं आ रहे हैं। अन्ना के साथ उमड़ती भीड़ का फायदा उठाने में राजनीतिक दल भी शामिल हो रहे हैं। पांच अप्रैल को धरना स्थल पर जनता दल यूनाइटेड के नेता शरद यादव की मौजूदगी कुछ ऐसे ही संकेत देती है। यही कुछ बिदु हैं, जो इस आंदोलन की सफलता के लिए संशय खड़ा करते हैं। क्योंकि इस देश में नेताओं की तरह एनजीओ की भी साख अच्छी नहीं है। लेकिन अन्ना की अपनी साख और अपना इतिहास पाकसाफ है। नि:स्वार्थ भाव और गांधीवादी तरीके से अपने गांव रालेगांव सिद्धि में जिस तरह वे बदलाव लाने में कामयाब रहे हैं, उससे उनके व्यक्तित्व में चार चांद लग गए हैं। महाराष्ट्र की विलासराव देशमुख सरकार के भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ अहिंसक तरीके से उन्होंने जो आंदोलन चलाया, उसकी याद आज भी देश के जेहन में ताजा है। उसके चलते विलासराव देशमुख सरकार गिरते-गिरते बची थी। तीन मंत्रियों को उन्हें अपने मंत्रिमंडल से हटाना पड़ा था। यही वजह है कि अन्ना के साथ चलने में बदहाल और लालफीताशाही से जूझते आम नागरिक को सुकून मिल रहा है। यह सुकून ही जनता को उम्मीदों की डोर से बांधे हुए है। ऐसे में यह न मानने की कोई वजह नहीं दिखती कि अन्ना का आंदोलन नाकामयाब होगा। देशभर से जुटे लोगों के समर्थन और उत्साह के सहारे भ्रष्टाचार के खात्मे की दिशा में नया इतिहास जरूर बनेगा।

Thursday, March 31, 2011

कहीं डीम्ड यूनिवर्सिटी जैसा न हो हाल

उमेश चतुर्वेदी
ज्ञान और सूचना की सदी के तौर पर घोषित इक्कीसवीं सदी में भारतीय मनीषा को आगे रखने के लिए अपने मानव संसाधन विकास मंत्रालय की योजनाओं का कोई सानी नहीं है। कपिल सिब्बल की अगुआई वाले मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नामचीन कॉलेजों और संस्थानों को एक और ताकत और सम्मान देने का फैसला किया है। मंत्रालय की योजना है कि देश के नामचीन संस्थान और कॉलेज अपनी खुद की डिग्री दे सकें। शिक्षा के विकास की गति और सरकारी दावे को देखते हुए सरकार की इस योजना में कोई बुराई नजर नहीं आती। अगर कॉलेज या संस्थान नामचीन हैं तो उन्हें डिग्री के लिए किसी विश्वविद्यालय या डीम्ड विश्वविद्यालय पर क्यों आश्रित रहना चाहिए। कुशल और शिक्षित दिमागों और हाथों की खोज में जुटी दुनिया में इससे भारतीय छात्रों की पूछ और पहुंच ही बढ़ेगी। तभी एशिया और ज्ञान की इक्कीसवीं सदी में भारतीय डंका ठीक तरीके से बज सकेगा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की इन उम्मीदों और उत्साह पर रंज करना जरूरी भी नहीं है। लेकिन वैधानिक तरीकों की आड़ में अपने यहां जिस तरह से शिक्षा क्षेत्र में मनमानियां की जा रही हैं, डर उसी की वजह से है। कुछ इसी तरह भारतीय छात्रों का भला चाहते हुए स्वर्गीय अर्जुन सिंह ने डीम्ड विश्वविद्यालयों की सीरिज खड़ी कर दी। शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने और ज्यादा से ज्यादा छात्रों तक को डिग्रियां देने के लिए डीम्ड विश्वविद्यालयों की जो सीरीज खड़ी की गई, उनकी हालत अंदरखाने में जाकर ही पता चल पाएगी। हकीकत में ये डीम्ड विश्वविद्यालय डिग्रियां बांटने की दुकानें बन गए हैं। दिल्ली से सटे हरियाणा में दो मानद विश्वविद्यालय हैं। दोनों ने अपने अध्यापकों को मौखिक आदेश दे रखे हैं कि किसी छात्र को फेल नहीं करना है। इन विश्वविद्यालयों के संचालकों की समस्या यह है कि अगर उनके यहां छात्र फेल होने लगे तो दूसरी बार उनके यहां एडमिशन कौन लेगा, फिर उनकी शैक्षिक दुकान कैसे चलेगी। दिल्ली से ही सटे हरियाणा के एक मानद विश्वविद्यालय में अध्यापकों की भर्तियों के वक्त इंटरव्यू विश्वविद्यालय संचालकों के घर की दो महिलाएं लेती हैं। अभ्यर्थियों ने भले ही इंजीनियरिंग, पत्रकारिता, सोशल वर्क, बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन या अंग्रेजी पढ़ाने के लिए आवेदन किया होगा, ये दोनों महिलाएं ही उनका इंटरव्यू लेंगी। लियोनार्दो द विंची की तरह ये महिलाएं या तो इतनी प्रतिभाशाली हैं कि वे सब कुछ जानती हैं या फिर नई शिक्षा व्यवस्था से खिलवाड़ हो रहा है। राजधानी दिल्ली के दक्षिणी हिस्से में चल रहे एक संस्थान से लोगों ने दो साल पहले की तारीख में एमफिल में एडमिशन करा लिया और अब वे विश्वविद्यालय का अध्यापक बनने के लिए जरूरी नेट की परीक्षा से छूट पा गए हैं। सच तो यह है कि ये डीम्ड विश्वविद्यालय और संस्थान पैसे लाओ और डिग्रियां बांटने की दुकान की तरह काम कर रहे हैं। इसलिए क्या गारंटी है कि नामचीन कॉलेजों और संस्थानों को डिग्री देने की सहूलियत मिलते ही उसका फायदा पैसा कमाने की दुकान बन चुके संस्थान नहीं उठाएंगे और यह अधिकार पाने के लिए खानापूर्ति करने में कामयाब नहीं होंगे। कहने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक कमेटी बना दी है, जो डिग्री देने की हैसियत चाहने वाले संस्थानों के शैक्षिक इतिहास और गरिमा की जांच करेगी। यह कमेटी उन कॉलेजों के स्तर की जांच वहां पढ़ाई-लिखाई के इतिहास और शिक्षा के क्षेत्र में वर्षो के उनके रिकार्ड के आधार पर जांच करेगी। इसके साथ ही उन्हें नेशनल असेसमेंट एंड एक्रीडिटेशन कौंसिल में कम से कम ए श्रेणी में पंजीकृत होना होगा। जिस देश में मेडिकल कौंसिल, आईसीटीईए और डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने वाली कमेटियों में पैसों का खेल चलता हो, वहां यह कैसे नहीं होगा कि डिग्री देने वाले संस्थानों को मान्यता देने वाली एजेंसी या समिति में तीन-पांच न हो और शिक्षा की दुकानें बने कॉलेज भी डिग्री बांटने की दुकान बन जाएं। पहले किसी संस्थान पर किसी विश्वविद्यालय से जुड़े होने के चलते शैक्षिक गुणवत्ता बनाए रखने का दबाव रहता था, लेकिन बदले हालात में यह दबाव संस्थानों से खत्म हो जाएगा। इसका असर यह होगा कि दुकानें चल निकलेंगी।
अभी फर्जी डिग्री से पायलटों की भर्ती का मामला चर्चा में है। फर्जी डिग्री से पायलट बनने की वजह यही है कि डीजीसीए जैसी संस्थाओं ने ऐसे संस्थानों को प्रशिक्षण की छूट दे दी, जिनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसे कमाना था। जयपुर से गिरफ्तार एक छात्र ने मीडिया से साफ कहा भी कि उसे पायलट ट्रेनिंग के लिए अपने संस्थान को पांच लाख रूपया देना पड़ा था। लेकिन जब वह गिरफ्तार हुआ तो संस्थान बता रहा है कि उसने सिर्फ एक लाख रूपए ही बतौर फीस वसूली है। सच तो यह है कि पायलट बनाने वाले संस्थान को भी भावी विमान चालकों की गुणवत्ता से कोई लेना-देना नहीं था। उन्हें सिर्फ पैसे बनाना था। अगर वे कमजोर छात्रों को फेल कर देते या फिर फर्जी डिग्री पर आने वाले छात्रों के प्रवेश को रोक देते तो उनकी कमाई मारी जाती। लिहाजा उन्होंने अपनी कमाई का ध्यान रखा, भावी यात्रियों की सुरक्षा पर सोचना भी उन्होंने जरूरी नहीं समझा। वैसे भी अगर वे एडमिशन रोकते या फिर कमजोर छात्रों को फेल करते तो अगले साल उन्हें नए छात्र नहीं मिलते।
कपिल सिब्बल ने मानव संसाधन विकास मंत्री बनते ही डीम्ड विश्वविद्यालयों की जांच कराई थी। उनकी जांच में देश के 128 डीम्ड विश्वविद्यालयों में से 44 किसी भी मानक पर खरे नहीं उतरते थे। इनमें राजधानी दिल्ली के नजदीक स्थित हरियाणा का मानव रचना इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी और लिंग्या यूनिवर्सिटी के साथ ही नोएडा का जेपी इंस्टीट्यूट ऑफ इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलजी भी शामिल था। जाहिर है कि जब राजधानी से सटे संस्थान मानद विश्वविद्यालय बनने के बाद नियमों का मजाक उड़ा सकते हैं तो दूर के विश्वविद्यालयों और संस्थान क्या करेंगे, इसका अंदाजा लगाना आसान है। वैसे भी जिन 44 डीम्ड विश्वविद्यालयों पर सवाल उठे हैं, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से स्टे ले रखा है। यानी उनका फिलहाल कुछ बिगड़ता नहीं दिख रहा है, उल्टे छात्रों को वे डिग्री बांटने की कवायद में जुटे हुए ही हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि संस्थानों और कॉलेजों को डिग्री देने की छूट मिली तो गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए फुलप्रूफ इंतजाम कैसे होंगे। क्या सरकार फिर डीम्ड विश्वविद्यालयों की तरह इंतजार करेगी कि वे कैसा प्रदर्शन करते हैं और फिर उन पर सवाल खड़े करेगी और फिर होगा ढाक के तीन पात।
सच तो यह है कि शिक्षा की दुकानों के तौर पर तब्दील हो रहे संस्थानों पर अभी तक कोई कारगर लगाम नहीं लगाई जा सकी है। इसलिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय उच्च शिक्षा के विकास के लिए अपनी पीठ चाहे जितनी थपथपा लें, हकीकत तो यह है कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी के साथ शैक्षिक तौर पर मजाक हो रहा है। बेहतर है कि सरकार संस्थानों को डिग्री बांटने का अधिकार देने के अपने फैसले पर विचार करके इतने कड़े प्रावधान बनाए, जिससे किसी संस्थान या डीम्ड विश्वविद्यालय को डिग्री बेचने की छूट न मिल सके।

Saturday, March 19, 2011

जाट आरक्षण के किंतु-परंतु

उमेश चतुर्वेदी
उत्तर भारत के सबसे उल्लासमय त्यौहार होली की होलिका जलाकर जाट आंदोलन फिलहाल भले ही खत्म हो गया है, लेकिन भारतीय राजनीति में आरक्षण को लेकर जो आग दोनों बड़े दलों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने लगाई है, उसकी कीमत देश को चुकानी पड़ती रहेगी। मौजूदा जाट आंदोलन को लेकर उत्तर प्रदेश और हरियाणा की राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार का जो चलताऊ रवैया रहा है, उससे आरक्षण आंदोलन को लेकर भारतीय राजनीति के भावी कदमों का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट जिस तरह अपना चूल्हा-चौका और चौपाल रेलवे लाइनों पर लगाकर बैठे रहे और राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार भी हाथ पर हाथ धरे बैठी रही, उससे साफ है कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में ताकतवर समूह के छोटे-मोटे हितों के लिए व्यापक जनसमुदाय की बलि दी जा सकती है। हरियाणा और उत्तर प्रदेश से गुजरने वाली रेलगाड़ियों के यात्री चूंकि मजबूत वोट बैंक नहीं थे, लिहाजा उनकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। पश्चिम बंगाल में चूंकि जाट कोई वोट बैंक नहीं है, लिहाजा रेल मंत्री ममता बनर्जी रेलवे को हो रहे नुकसान को लेकर अपने उस दर्द को भी भूल गईं, जो उन्होंने इसी 25 फरवरी को रेल बजट पेश करते हुए देश के सामने रखा था।
लोकतंत्र में जब कोई समुदाय मजबूत वोट बैंक बन जाता है तो उसे लेकर राजनीति कितनी मुतमईन हो जाती है, इसे जाटों के आरक्षण आंदोलन से समझा जा सकता है। हरियाणा की कांग्रेस सरकार और उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी की सरकार ने इस आंदोलन में हस्तक्षेप करने की कोई कोशिश नहीं की। उलटे जाटों के आरक्षण का समर्थन ही करती रहीं। आज जो जाट समुदाय आरक्षण की मांग कर रहा है, उसे एक दशक पहले तक खुद को आरक्षित समुदाय में संबोधित किए जाने से भी परेशानी होती थी। वह समुदाय मारपीट तक करने के लिए उतावला हो जाता था। लेकिन राजनीति के उकसावे ने उसे आरक्षण के लिए इस कदर उतावला बना दिया है कि अब वह आरक्षण के लिए मारपीट करने के लिए उतावला होता नजर आ रहा है। मौजूदा दौर में जब भी कोई समुदाय अपने लिए आरक्षण की मांग करता है तो उसका आधार मोरार जी देसाई सरकार द्वारा गठित बीपी मंडल आयोग है। यह सच है कि आजादी के पहले तक देश का जाट समुदाय एक हद तक पिछड़ा और कमजोर था। कुछ इलाकों में उसे शूद्रों की श्रेणी में भी रखा जाता था। लेकिन आजादी के साठ – बासठ साल में जाट आबादी बहुल इलाकों में जिस तेजी से विकास हुआ है, उसने जाट समुदाय की आर्थिक स्थिति बदल कर रख दी है। हाल के दिनों में जिस तरह राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और उसके आसपास और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिस तरह औद्योगीकरण और शहरीकरण हुआ है, उसने जाट समुदाय की आर्थिक स्थिति बेहतर बना दी है। अब जाट का छोरा अपनी दुल्हन को लेने के हेलीकॉप्टर से जाने लगा है, चमचमाती गाड़ियां और गले में मोटे –मोटे सोने की चेन उसकी जीवन शैली का अंग बन गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सचमुच अब भी जाट समुदाय को आरक्षण की जरूरत है। मंडल कमीशन ने आरक्षण देने के लिए जो 11 मानक तय किए थे, उन मानकों में जाट समुदाय कहीं भी आरक्षित श्रेणी में आने के लिए फिट नहीं बैठता था। जिनमें सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक मानक शामिल किए गए थे। गौरतलब है कि मंडल आयोग ने सभी पैमानों के लिए समान वेटेज नहीं दिया था, सामाजिक सूचकांकों के लिए उसने जहां तीन पाइंट वेटेज तय किया था तो शैक्षिक पिछड़ापन के लिए दो पाइंट। वहीं आर्थिक के लिए एक पाइंट वेटेज था। इसी तरह सामाजिक स्थिति के आकलन के तहत पहले दो बिंदु थे- ऐसी जातिया-वर्ग, जिन्हें अन्य जातिया सामाजिक तौर पर पिछड़ा मानती हैं तो दूसरा बिंदु था, ऐसी जातियां, जो मुख्यत: अपने जीवनयापन के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर थीं। शैक्षिक पैमानों के अहम बिंदु थे, ऐसी जातियां, जहां 5 से 15 साल की उम्र के बच्चे, जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा हो, उनका अनुपात राज्य के औसत से 25 फीसदी अधिक हो तथा जाति-वर्ग विशेष के ऐसे बच्चे, जो 5-15 साल की उम्र के बीच स्कूल छोड़ जाते हों, उनकी संख्या राज्य के औसत से 25 फीसदी अधिक हो। दरअसल जाटों को आरक्षण देने की वकालत 1989 में बनी राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने भी नहीं की थी। वी पी सिंह की इस सरकार में देवीलाल जैसा कद्दावर जाट नेता बतौर उपप्रधानमंत्री शामिल था। यह पूरी दुनिया जानती है कि राष्ट्रीय मोर्चा की उस सरकार के सबसे बड़े घटक जनता दल का सबसे बड़ा वोट बैंक जाट समुदाय ही था। अगर उस वक्त जाटों ने अपने लिए आरक्षण की मांग की होती तो वी पी सरकार उसे आसानी से मान लेती। लेकिन तब आरक्षित समुदाय में शामिल होना जाट समुदाय के लिए अपमान की बात थी। जनता दल अपने अंतर्विरोधों के कारण खुद खत्म हो गया और यही वह दौर था, जब उत्तर भारत की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी ने अपना आधार बढ़ाना शुरू किया था। गोविंदाचार्य की सामाजिक इंजीनियरिंग में पार्टी की निगाह जनता दल के बड़े वोट बैंक जाटों के साथ ही पिछड़े वर्ग पर निगाह थी। तब भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे में जाटों के आरक्षण का मुद्दा शामिल नहीं था। हिंदुत्व की राह पर चल रही भारतीय जनता पार्टी को जाटों ने बाद के चुनावों में भरपूर समर्थन दिया। यहीं से बतौर वोट बैंक जाटों पर कांग्रेस की निगाह लगी। इसके बाद भी उसने अपने एक वरिष्ठ नेता पी शिवशंकर की अगुआई में बने पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट को आधार बनाया, जिसे उसने नवंबर 1997 में पेश किया था। जिसने राजस्थान के जाटों को कमजोर बताया था। इसके बाद कांग्रेस ने राजस्थान में जाटों को आरक्षण देने का शिगूफा छोड़ दिया। जाहिर है कि इसका फायदा कांग्रेस को मिला। उसे भैरो सिंह शेखावत की सरकार को जाट वोट बैंक के जरिए हटाने का मौका मिल गया। जाटों को कांग्रेस का यह समर्थन 1998 के आम चुनावों में भी मिला। जब पूरे उत्तर भारत में अटल बिहारी वाजपेयी की लहर चल रही थी, राजस्थान में ज्यादातर लोकसभा सीटें कांग्रेस के खाते में गईं। लेकिन ठीक तेरह महीने बाद हुए चुनावों में वाजपेयी ने राजस्थान के अपने चुनाव अभियान में जाटों को पिछड़ा वर्ग में शामिल करने का ऐलान कर दिया। जिसका सीधा फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिला। इससे घबराई अशोक गहलौत की राज्य सरकार चुनावों के तत्काल बाद जाटों को पिछड़ा वर्ग में आरक्षित करने का ऐलान कर दिया। वोट बैंक पर पकड़ को लेकर जिस जल्दबाजी में यह कदम उठाया गया, उसका हश्र गहलौत को जहां गुर्जरों के आंदोलन के रूप में झेलना पड़ा है, वहीं उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सरकारें हाल तक झेलती रही हैं।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सचमुच जाटों को आरक्षण चाहिए। इस पर मतभेद हो सकता है। जहां तक हरियाणा की बात है तो वहां का वह प्रमुख समुदाय है। राज्य की राजनीति समेत तमाम क्षेत्रों में उसकी पकड़ बरकरार है। ऐसे में उन्हें आरक्षण मिल जाय तो बाकी समुदायों का क्या होगा, जो सचमुच कमजोर हैं। यही हालत उत्तर प्रदेश की है, जिसके पश्चिमी इलाके में जाट जनसंख्या प्रभावी भूमिका में है। पश्चिमी इलाके की राजनीति और अर्थव्यवस्था को जाट समुदाय प्रभावित करता है। क्या ऐसे समुदाय को भी आरक्षण चाहिए। एक और प्रमुख तथ्य यह है कि उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में सरकारी क्षेत्रों में नौकरियां आखिर बची ही कितनी हैं। निजीकरण के दौर में लगातार कम होती सरकारी नौकरियों में आखिर तमाम समुदायों को आरक्षण का कितना फायदा मिल सकता है। जाहिर है कि ये सवाल कड़वे हैं और उनका जवाब जब भी तलाशा जाएगा, आरक्षण समर्थकों की आंखें तो खुलेंगी ही, आरक्षण का समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों की पोलपट्टी भी खुलेगी। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इस तरह से सोचने की हिम्मत आज के राजनीतिक दल नहीं दिखा रहे हैं। जबकि सत्ता और विपक्ष की राजनीति करने के चलते उनकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी बनती है।

Monday, February 28, 2011

महंगाई से जूझ रहे लोगों को दादा ने आखिर क्या दिया

उमेश चतुर्वेदी
महंगाई से जूझ रहे लोगों को उम्मीद थी कि प्रणब मुखर्जी जब देश का 80वां बजट पेश करेंगे तो उसमें महंगाई से राहत के उपाय होंगे, लेकिन प्रणब मुखर्जी के बजट प्रस्तावों में ऐसा कुछ खास नहीं निकला, जिससे महंगाई से जूझ रही जनता राहत की उम्मीद कर सके। सरकार और कांग्रेस पार्टी इसे किसानों और आम आदमी का बजट बताते थक नहीं रही है। हालांकि कांग्रेस पार्टी को भी पता है कि यह बजट आम आदमी की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाएगा। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी के शब्दों पर गौर फरमाएं तो यह तथ्य साफ हो जाएगा। बजट पेश होने के बाद प्रतिक्रिया देते हुए मनीष तिवारी का कहना कि वित्तमंत्री ने सस्ती लोकप्रियता हासिल करने वाला बजट पेश नहीं किया है, साफ करता है कि कांग्रेस भी मानती है कि प्रणब मुखर्जी का बजट आम लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। शायद यही वजह है कि समूचा विपक्ष इस बजट को सिर्फ वायदों का पिटारा बता रहा है। यों तो वित्तमंत्री बजट को दो हिस्सों में पढ़ते हैं, लेकिन लोगों को बजट प्रावधानों से ज्यादा नजर अपनी आम जरूरत की चीजों की कीमतों पर रहती है। लोग यह भी चाहते हैं कि आयकर की छूट सीमा बढ़े। इस लिहाज से प्रणब मुखर्जी का बजट कमजोर है। लोगों को उम्मीद थी कि इस बार आयकर की छूट सीमा एक लाख साठ हजार से बढ़ाकर तीन लाख रुपये कर दी जाएगी, लेकिन यह छूट महज बीस हजार रुपये की बढ़ी। महिलाओं को पिछले कई साल से छूट देने की परंपरा ही बन गई है, लेकिन इस बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी है। बुजुर्ग लोगों को आयकर की छूट सीमा दो लाख चालीस हजार से बढ़ाकर ढाई लाख रुपये कर दी गई। हां, अस्सी साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्गो के लिए यह छूट सीमा पांच लाख रुपये तक कर दी गई है। अभी तक पैंसठ साल के बुजुर्गो को ही वृद्धावस्था पेंशन देने का प्रावधान था। अब यह उम्र सीमा घटाकर साठ साल कर दी गई है। फिर राशि भी दो सौ से बढ़ाकर पांच सौ रुपये कर दी गई है। महंगाई के इस दौर में जैसी गति दो सौ रुपये की थी, वैसी ही गति पांच सौ की है। ऐसे में बुजुर्गो को क्या फायदा मिलेगा। बीस हजार रुपये की आयकर छूट का साढ़े आठ फीसदी महंगाई दर के दौर में लोगों को क्या फायदा मिलेगा, इसे वित्तमंत्री ही ठीक तरीके से बता सकते हैं। लेकिन यह तय है कि आम लोगों को खास फायदा नहीं मिला है। वित्तमंत्री ने एक बोल्ड कदम जरूर उठाने का ऐलान किया है कि केरोसिन और एलपीजी के लिए अब सीधे नगद ही सब्सिडी दी जाएगी। अब तक यह सब्सिडी तेल कंपनियों को ही मिलती थी। जब किसानों को 73 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी दी गई थी, तब कुछ एनजीओ और राजनीतिक दलों ने मांग रखी थी कि यह सब्सिडी सीधे नगदी तौर पर किसानों को ही दी जाए तो हर किसान को साढ़े छह हजार रुपये मिलेंगे और उसका सीधा फायदा उसे मिलेगा। सरकार ने तब किसानों को ऐसा फायदा भले ही लेने नहीं दिया, लेकिन केरोसिन और एलपीजी पर नगद सब्सिडी देने का ऐलान करके एक सराहनीय कदम उठाने की कोशिश जरूर की है। लेकिन इसके लिए क्या सरकारी प्रक्रिया होगी, किन्हें यह फायदा मिलेगा, कहीं यह फायदा सिर्फ सरकार की नजर में रहे गरीब लोगों को ही मिल पाएगा..? ये कुछ सवाल हैं, जिनका जवाब सरकार को देना होगा। लेकिन यह तय है कि अगर इस सब्सिडी को लागू करने के लिए पारदर्शी और अचूक तरीका अख्तियार नहीं किया गया तो इससे सरकारी बाबुओं के मालामाल होने और भ्रष्टाचार की नई राह खुल जाएगी। सरकार के नए ऐलानों से लोहा, ब्रांडेड रेडिमेड कपड़े, ब्रांडेड सोना, विदेशी हवाई यात्रा महंगी हो जाएगी। जबकि सौर लालटेन, साबुन, मोबाइल, एलईडी टीवी, कागज, प्रिंटर, साबुन, गाडि़यों के पुर्जे, कच्चा रेशम, सिल्क, रेफ्रिजरेटर, मोबाइल, सीमेंट, स्टील का सामान, कृषि मशीनरी, बैटरी वाली कार, बच्चों के डायपर आदि सस्ते होंगे। लेकिन सरकार ने जिस तरह सर्विस टैक्स के दायरे में बड़े अस्पतालों में इलाज समेत कई सेवाओं को लागू किया है, उससे तय है कि महंगाई और बढ़ेगी। आज के तनाव भरे दौर में जिस तरह से लोगों की जिंदगी पर खतरा बढ़ा है, उसमें बीमा पर लोगों का आसरा बढ़ा है। लेकिन बीमा पॉलिसी पर भी सेवाकर बढ़ाकर वित्तमंत्री ने एक तरह से लोगों की पॉकेट पर ही निगाह गड़ा दी है। ऐसे में महंगाई से राहत की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आयातित कार बैटरियों और सीएनजी किट पर सीमा शुल्क घटाकर सरकार ने पर्यावरणवादी कदम उठाने की कोशिश तो की है, लेकिन सच तो यह है कि इन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए सीमा शुल्क का आधा किया जाना ही राहत भरा बड़ा कदम नहीं हो सकता। कच्चे रेशम पर भी सीमा शुल्क घटाकर पांच प्रतिशत किया गया है, लेकिन देसी बुनकरों के लिए खास छूटों का ऐलान नहीं है। हालांकि नाबार्ड के जरिए तीन हजार करोड़ की मदद का ऐलान जरूर किया गया है। सरकार का दावा है कि इसका फायदा तीन लाख हथकरघा मजदूरों को मिलेगा। वित्तमंत्री ने किसानों को 4.75 लाख करोड़ रुपये का कर्ज देने का ऐलान किया है। इसके साथ ही वक्त पर कर्ज लौटाने पर उन्हें 3 फीसदी की छूट देने का ऐलान भी किया गया है। इसके साथ ही उन्हें 7 फीसदी ब्याज पर कर्ज देने की भी घोषणा है। इसके साथ ही कोल्ड स्टोरेज के लिए एसी पर कोई एक्साइज नहीं लगाया गया है। इसके साथ ही माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र को मजबूती देने के लिए अलग से व्यवस्था की गई है, लेकिन इसका फायदा किसानों की बजाय छोटे उद्यमियों को आर्थिक मदद के तौर पर दिलाने का वायदा है। सच तो यह है कि इसका सबसे ज्यादा फायदा किसानों को मिलना चाहिए। उन्हें कम पूंजी के जरिये अपनी खेती को उन्नत बनाने की जरूरत हर साल पड़ती है, लेकिन सरकार ने अपनी माइक्रोफाइनेंसिंग के दायरे में किसानों पर ध्यान नहीं दिया। वित्तमंत्री ने 2000 से ज्यादा आबादी वाले गांवों में बैंक की सुविधा देने और ग्रामीण बैंकों को 500 करोड़ रुपये देने का भी ऐलान किया है। जाहिर है, गांवों तक सरकारी बैंक ही पहुंचेंगे, लेकिन गांवों में सरकारी बैंकों की जो हालत है और किसानों के साथ उनका क्या सलूक है, यह छुपा नहीं है। उनकी हालत सुधारने और किसान हितैषी बनाने के संबंध में प्रणब मुखर्जी का बजट मौन है। पिछले साल बढ़ी दालों की कीमतों और दूध के आसन्न संकट से निबटने के लिए वित्तमंत्री ने अपने बजट में प्रावधान तो किए हैं। दलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्होंने जहां 300 करोड़ की रकम का प्रावधान किया है, वहीं इतनी ही रकम दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए भी देने का ऐलान है। लेकिन वित्तमंत्री यह भूल गए हैं कि इतने बड़े देश में सिर्फ 300 करोड़ की रकम से दाल और दूध का उत्पादन उस स्तर तक नहीं पहुंचाया जा सकता, जितनी कि देश को जरूरत है। भारतीय जनता पार्टी समेत विपक्षी दलों और बाबा रामदेव ने जिस तरह काले धन को देश व्यापी मुद्दा बना रखा है, उसका दबाव भी प्रणब मुखर्जी के बजट प्रस्तावों में दिखा। बजट भाषण पढ़ते हुए उन्होंने काले धन के दुष्प्रभावों को लेकर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि सरकार इससे निपटने के लिए पांच सूत्रीय कार्ययोजना चला रही है। जिसके तहत काले धन के विरुद्ध वैश्विक संघर्ष में साथ, देना उपयुक्त कानूनी ढांचा तैयार करना, अनुचित तरीकों से कमाए गए धन से निपटने के लिए संस्थाएं स्थापित करना, क्रियान्वयन के लिए प्रणालियां विकसित करना और लोगों को कौशल का प्रशिक्षण देना शामिल किया गया है, लेकिन काले धन को लेकर सरकार के कड़े कदम क्या होंगे, उसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा उनके बजट भाषण में नहीं दिखी। जाहिर है कि वित्तमंत्री ने सिर्फ चतुराई का ही परिचय दिया है। इससे साफ है कि वित्तमंत्री के मौजूदा बजट भाषण का जमीनी स्तर पर खास फायदा नहीं होने जा रहा। किसान पहले की तरह हलकान रहेंगे, मध्यवर्ग अपनी कमाई में गुजर-बसर करने के लिए मजबूर रहेगा।

Friday, February 25, 2011

रेल बजट : लेकिन आम यात्रियों की सहूलियतों की चिंता कहां हैं


उमेश चतुर्वेदी
पश्चिम बंगाल के चुनावी साल में ममता बनर्जी रेल बजट पेश करें और उनके आंचल से ममता ना बरसे, ऐसा कैसे हो सकता है। ममता बनर्जी भले ही रेल मंत्री हैं, लेकिन उनका ध्यान दिल्ली के रफी मार्ग स्थित रेलवे बोर्ड के मुख्यालय रेल भवन पर कम ही रहता है। उनकी निगाह कोलकाता के राइटर्स बिल्डिंग पर ही है। यह पूरा देश जानता है और राजनीतिकों की छोड़िए, आम आदमी भी यही मानकर चल रहा था कि संसद में इस बार भी पश्चिम बंगाल एक्सप्रेस ही दौड़ेगी। हालांकि ऐसा नहीं हुआ, अलबत्ता कोलकाता पर वे ज्यादा मेहरबान रहीं। कोलकाता को अकेले पचास ट्रेनें, मेट्रो रूट को बढ़ावा और कोच फैक्टरी की सौगात देकर उन्होंने यह साबित कर दिया है कि दुनिया चाहे जो कहे, जब तक उनके हाथ में रेलवे की कमान है, अपने कोलकाता और बंगाल पर मेहरबान बनी रहेंगी। एनडीए सरकार के रेल मंत्री के तौर पर जब उन्होंने पहली बार रेलवे का बजट पेश किया था, तब भी उन पर बंगाल के लिए बजट पेश करने का आरोप लगा था। इन आरोपों के बाद उन्होंने तीखी टिप्पणी की थी – यदि भारत उनकी मातृभूमि है तो पश्चिम बंगाल उनका स्वीट होम है और ऐसा कैसे हो सकता है कि अपने स्वीट होम के लिए वे कुछ नहीं करें।
लेकिन ममता ने बाकी इलाकों को उतने उपहार भले ही नहीं दिए, जितने कोलकाता को मिले हैं, उतने किसी और को नहीं। लेकिन यात्री किराए में बढ़ोत्तरी ना करना, बुकिंग फीस घटाकर एसी के लिए दस रूपए और गैर एसी के लिए पांच रूपए करना निश्चित तौर पर यात्रियों को सुखकर लगेगा। माल भाड़े में भी कोई बढ़त ना करके ममता ने साबित किया है कि उनकी निगाह भले ही पश्चिम बंगाल के चुनावों पर है, लेकिन जनता के दुख-दर्दों से उनका वास्ता है। महंगाई से जूझ रही जनता के लिए निश्चित तौर पर ममता का ये आंचल जरूर राहत लेकर आया है। वैसे भी मध्य एशिया और अरब देशों में बढ़ती अराजकता के चलते कच्चे तेल की कीमतें 105 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई है। जाहिर है इस महंगाई का सामना रेलवे को भी करना पड़ रहा है। ऐसे में भी अगर ममता ने रेल किराए या माल भाड़े में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की तो जाहिर है कि उन्होंने जन पक्षधरता दिखाई है। लेकिन उदारीकरण के दौर में ऐसी जनपक्षधरता ज्यादा दिनों तक चलने वाली नहीं है। करीब 16 लाख कर्मचारियों के भारी-भरकम बेड़े वाली रेलवे रोजाना करीब एक करोड़ लोगों को ढोती है। जाहिर है कि इसमें भारी भरकम रकम खर्च होती है। लेकिन यह खर्च कहां से आएगा, ममता बनर्जी के बजट में इसका जिक्र नहीं है। अलबत्ता उन्होंने रेलवे की तरफ सरकार को छह प्रतिशत का लाभांश भी दिया है। रेलवे के जानकारों को लगता है कि इसमें कहीं न कहीं कोई गड़बड़ जरूर है। अगर सचमुच में भी ऐसा हुआ है तो इसकी कीमत आनेवाले दिनों में रेलवे को आर्थिक तौर पर चुकानी पड़ सकती है। ममता ने रेलवे के लिए अब तक के सबसे अधिक 57, 630 करोड़ रुपये के परिव्यय का प्रस्ताव किया है। लेकिन जहां तक रकम जुटाने का सवाल है तो इसे बांड और बाजार से उगाहने की दिशा में मोड़ दिया गया है। ममता के इस बजट से पंद्रह हजार करोड़ रूपए बाजार से उगाहने का लक्ष्य है। इससे साफ है कि कर्ज आधारित व्यवस्था पर रेल को चलाने की कोशिश है। ममता ने नई लाइनों के लिए 9583 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। इसके साथ ही 1300 किलोमीटर नई लाइनें, 867 किलोमीटर लाइनों का दोहरीकरण और 1017 किलोमीटर का आमान परिवर्तन करने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन ममता के पुराने बजटों से साफ है कि ऐसे प्रस्ताव उन्होंने पहले भी रखे हैं, लेकिन उन पर काम न के बराबर भी हुआ है। जिस कोलकाता पर वे मेहरबान रही हैं, वहां के मेट्रो के विस्तार का लक्ष्य उन्होंने यूपीए सरकार के रेलमंत्री के तौर पर अपने पहले बजट में भी रखा था। लेकिन हकीकत यह है कि इस दिशा में अब तक कोई खास प्रगति नहीं हो पाई है। इसे कोलकाता वासी अच्छी तरह से जानते हैं। ममता ने अपने बजट प्रस्ताव में आठ क्षेत्रीय रेलों पर टक्कररोधी उपकरण लगाने का भी प्रस्ताव किया है। इन उपकरणों का नीतीश कुमार के रेल मंत्री रहते सफल परीक्षण किया जा चुका था। ऐसे में सवाल यह उठना लाजिमी है कि आखिर इन्हें लागू करने की कोशिश अब जाकर क्यों शुरू हुई है। ममता ने जयपुर-दिल्ली और अहमदाबाद-मुंबई रुट पर ऐसी डबल डेकर ट्रेनें चलाने का ऐलान किया है। ऐसा ऐलान पिछले बजट में धनबाद-कोलकाता रूट के लिए भी किया गया था। लेकिन हकीकत में अब तक इस रूट पर डबल डेकर ट्रेनों का सफल परीक्षण तो नहीं हो सका है। जब बंगाल के इलाके में सफल प्रयास नहीं हो पाया तो दूसरे इलाके में इसके जल्द सफल होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। भारतीय रेल की सबसे बड़ी समस्या उसकी रफ्तार है। ममता ने यात्री गाडियों की रफ्तार 160 से बढाकर 200 किलोमीटर
प्रति घंटे करने के बारे में व्यावहारिक अध्ययन कराने का ऐलान किया है। लेकिन जिस हालत में भारतीय रेलवे के ट्रैक हैं, उसमें इसे व्यवहारिक जामा पहनाया जाना आसान नहीं है। उत्तर पूर्वी राज्यों और जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी भावनाओं को बढ़ावा देने में रेलवे की गैरमौजूदगी को भी जानकार बड़ा कारण बताते रहे हैं। इस संदर्भ में ममता का वह प्रयास सराहनीय कहा जा सकता है, जिसके तहत उन्होंने सिक्किम को छोड पूर्वोत्तर के सभी राज्यों की राजधानियों को अगले सात साल में रेल संपर्क से जोड़ने का कार्यक्रम बनाया है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब रेलवे की हालत ही खराब है तो इसके लिए जरूरी रकम आएगी कहां से। रेल बजट इस बारे में साफ जानकारी नहीं देता। रेलवे के जानकार मानते हैं कि भारतीय रेलवे जिस हालत में है, उसमें उसकी हालत सुधारने के लिए परियोजना बजट बढ़ाया जाना चाहिए। रेलवे की जो हालत है, उसमें परियोजनाएं बजट प्रस्तावों में रख तो दी जाती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उनके विकास की दिशा में कोई काम नहीं हो सकता। जब ऐसे ही खुशफहमी भरा बजट लालू यादव पेश करते थे तो नीतीश कुमार कहा करते थे कि उनके इस बजट की कीमत आने वाले रेलमंत्री को चुकानी पड़ेगी। ममता बनर्जी ने रेलवे पर श्वेत पत्र लाकर लालू राज की खुशफहमियों की कलई खोलने की कोशिश की थी। लेकिन खुद ममता रेलवे के ढांचागत विकास के लिए खास योजना लेकर नहीं आ सकी हैं। भारतीय यात्रियों को भारतीय रेलों से वक्त की पाबंदी और साफ-सुथरी ट्रेनों के साथ सहूलियतों की अपेक्षा रहती है। लेकिन दुर्भाग्यवश ममता के इस पूरे बजट में इन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।

Saturday, February 12, 2011

अनुभवों के विस्तारित आकाश का प्रस्थान बिंदु


उमेश चतुर्वेदी
हिंदी में लोक साहित्य के अध्ययन का आधार बना गीत - रेलिया ना बैरी, जहजिया ना बैरी , पइसवा बैरी भइले ना - भी दरअसल प्रवासी पीड़ा की ही अभिव्यक्ति था। लेकिन आज प्रवास का मकसद वैसा नहीं रहा, जैसा उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों से लेकर आजादी के कुछ बरसों बाद तक रहा है। लिहाजा प्रवासी रचनात्मकता के स्वर भी बदले हैं। पहले का प्रवासन चूंकि अभाव और मजबूरियों का प्रवास था, लिहाजा उस वक्त की रचनात्मकता में सिर्फ और सिर्फ अभाव और मजबूरियों का ही जिक्र मिलता है। सैनिक और विशाल भारत का संपादन करते वक्त पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी प्रवास और उसकी पीड़ा के संपर्क में आ गए थे। जिसका नतीजा बाद में प्रवास और प्रवासी रचनात्मकता के उनके गहन अध्ययन में नजर आया। लेकिन आज प्रवास का मकसद बदल गया है। आज के प्रवास में मजबूरी नहीं बल्कि शौक है। बेहतर या उससे भी आगे की कहें तो सपनीली जिंदगी की तलाश आज के प्रवास का अहम मकसद बन गया है। शायद यही वजह है कि मशहूर कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव प्रवासी लेखन को खाए-अघाए लोगों का लेखन कहने से खुद को रोक नहीं पाते। यह सच है कि प्रवासी लेखन को लेकर इन दिनों हिंदी साहित्यिक समाज में खास आलोडऩ है। लेकिन इसके पीछे विशुद्ध रचनात्मक वजह नहीं है। बल्कि आज ब्रिटेन -अमेरिका या कनाडा जैसे समृद्ध देशों में रह-रहे रचनात्मक लोगों को सबसे ज्यादा अपनी रचनात्मक पहचान की मान्यता हासिल करने से जुड़ गया है। लेकिन ऐसा नहीं कि प्रवासी रचनात्मकता को पहचान पहले से हासिल नहीं रही है या फिर प्रवासी लेखक को यथेष्ट सम्मान नहीं मिलता रहा है। अगर ऐसा होता तो आज से करीब चौथाई सदी पहले गंगा में अमेरिका में रह रही लेखिका सुषम बेदी का उपन्यास गंगा जैसी पत्रिका में कमलेश्वर उत्साह से धारावाहिक तौर पर नहीं छाप रहे होते। कादंबिनी के पुराने अंकों में जब किसी ब्रिटिश या प्रवासी लेखक की रचना राजेंद्र अवस्थी प्रकाशित करते तो बाकायदा उसकी घोषणा की जाती- ब्रिटेन से आई कहानी। जाहिर है कि प्रवासी लेखन को पहले से ही इज्जत मिलती रही है। पत्रकारिता की दुनिया में भी एक दौर में जब हिंदुस्तान टाइम्स के वाशिंगटन स्थित संवाददाता एन सी मेनन रिपोर्टें लिखते तो उनकी रिपोर्ट के साथ अलग से खास बाइलाइन लगाई जाती- एन सी मेनन राइट्स फ्रॉम वाशिंगटन। जाहिर है कि वाशिंगटन, लंदन या ओस्लो के लेखन को तब भी खास महत्व मिलता था।
दरअसल प्रवासी लेखन का जोर भारत सरकार द्वारा शुरू किए गए प्रवासी भारतीय सम्मेलनों के बाद जोर पकड़ रहा है। भारत सरकार का यह आयोजन अब सालाना गति हासिल कर चुका है। लेकिन ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि यह आयोजन पूरी तरह आर्थिक और राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने लिए है। सांस्कृतिक पहचान और भारतीय धरती से जुड़ाव की दिशा में भारत सरकार द्वारा पोषित और पल्लवित किए जा रहे प्रवासी भारतीय सम्मेलन का अब तक कोई योगदान नहीं रहा है। इन संदर्भों में डीएवी गल्र्स कॉलेज यमुनानगर और कथा(यूके) का प्रवासी भारतीय साहित्य सम्मेलन को पहला ऐसा सांस्कृतिक कार्यक्रम कहा जा सकता है, जिसमें प्रवासी भारतीय लेखन को उसकी मूल नाल से जोडऩे की कोशिश हो रही है।
मौजूदा प्रवासी लेखन का प्रमुख सुर अपनी जड़ों से जुडऩे की कोशिश तो है ही, प्रवास में गए लोगों की अगली पीढ़ी की सांस्कृतिक चिंताएं भी ज्यादा हैं। जहां प्रवासियों की पहली पीढ़ी सूरदास के कृष्ण की तरह अपने गांव- अपने पुराने परिवेश को - उधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं की तर्ज पर याद करती रहती है। जबकि ब्रिटेन-अमेरिका या कनाडा में पैदा उन्हीं प्रवासियों की संतानों के लिए भारतीय संस्कार और संस्कृति कोई मायने नहीं रखती। जाहिर है यह सांस्कृतिक तनाव कई बार प्रवासी परिवारों के लिए सांस्कृतिक भ्रम लेकर आता है। इस भ्रम के चलते पीढिय़ों के बीच टकराव भी होता है। जाहिर है कि प्रवासी रचनाओं में सांस्कृतिक विभ्रम की यह स्थिति खूब नजर आती है।
दुनियाभर से आए प्रवासी रचनाकारों को लेकर यमुनानगर में जितनी कहानियों पर चर्चाएं हुईं, ज्यादातर का प्रमुख सुर यही रहा। मौजूदा प्रवासी लेखन में इससे भी आगे की बात हो रही है। आज का प्रवासी लेखन विदेशी समाज के अनुभवों से भी समृद्ध कर रहा है। विदेशी संसार में देसी मन के अनुभवों का जो विस्तार हुआ है, उसे प्रवासी साहित्यकारों की पैनी निगाहों ने बारीकी से पकड़ा है। इन अर्थों में कहें तो प्रवासी लेखन ने हिंदी साहित्य के आकाश को विस्तार दिया है। नई जमीन के नए अनुभवों से ओतप्रोत इस रचना संसार में भी खामियां हो सकती हैं। जिन पर विचार होना चाहिए और होगा भी। यमुनानगर की धरती पर शुरू हुआ यह समारोह निश्चित तौर पर प्रवासी भारतीय लेखन के वैचारिक आलोडऩ के लिए नई जमीन मुहैया कराएगा। इतनी उम्मीद तो हम कर सकते ही हैं।

Saturday, February 5, 2011

राजा की गिरफ्तारी के निहितार्थ

उमेश चतुर्वेदी
पूर्व संचार मंत्री ए राजा की गिरफ्तारी से उस तबके के लोग बेहद आशान्वित महसूस कर रहे हैं, जिन्हें मौजूदा व्यवस्था से अब भी उम्मीद बनी हुई है। उन्हें लगता है कि प्रभावशाली नेता और उसके साथ रसूखदार अधिकारियों की गिरफ्तारी से भ्रष्टाचारियों में यह संदेश जरूर जाएगा कि मौजूदा व्यवस्था के हाथ उसकी गर्दन तक पहुंच सकते हैं। खालिस्तानी आतंकवाद की भेंट चढ़े मशहूर पंजाबी कवि पाश की कविता है- सबसे खतरनाक होता है हमारे सपने का मर जाना। भ्रष्टाचार के विरोधी में लामबंद नजर आ रही एक पीढ़ी में इस उम्मीद का बचे रहना जरूरी है। लेकिन क्या इस एक गिरफ्तारी से भ्रष्टाचार के समूल नाश की उम्मीद पाल लेना बेमानी नहीं लगता। अतीत पर भरोसा करें तो ऐसा सोचना गलत भी नहीं है। नरसिंह राव सरकार के संचार मंत्री रहे पंडित सुखराम की भी हिमाचल फ्यूचरिस्टिक कंपनी को बेजा फायदा पहुंचाने और घोटाले में नाम आने के बाद ठीक वैसे ही सीबीआई ने गिरफ्तार किया था, जैसे ए राजा को गिरफ्तार किया गया है। जिस तरह राजा के साथ तत्कालीन टेलीकॉम सचिव सिद्धार्थ बेहुरा को गिरफ्तार किया गया है, सुखराम के साथ उसी तरह तब की दूरसंचार विभाग की अतिरिक्त सचिव रूनू घोष को भी सीबीआई ने जेल की राह दिखाई थी। लेकिन भ्रष्टाचार को न रूकना था और न ही रूका। 1995 में प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने हिमाचल फ्यूचरिस्टिक घोटाले के खिलाफ 16 दिन तक संसद की कार्रवाई नहीं चलने दी थी। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के खिलाफ बीजेपी समेत समूचे विपक्ष का रवैया भी कुछ वैसा ही रहा, जिसके चलते संसद के शीतकालीन सत्र में कोई विधायी कामकाज नहीं हो सका।
समूचा विपक्ष इस मसले की संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराने की मांग पर अड़ा हुआ था। विपक्ष अपनी इस मांग पर अब भी कायम है। राजा की गिरफ्तारी के बाद विपक्ष का तर्क और मजबूत ही हो गया है। उसका कहना है कि राजा की गिरफ्तारी से साबित होता है कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजा का हाथ है। यह बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी तीन साल से जानते रहे हैं, लेकिन उन्होंने राजा के खिलाफ कार्रवाई करने में तीन साल की देर लगा दी। राजा की गिरफ्तारी को कांग्रेस की साख बचाने की कवायद से भी जोड़कर देखा जा सकता है। गिरफ्तारी के फौरन बाद कांग्रेस प्रवक्ताओं ने इसका श्रेय लेने की कोशिश भी की। इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान का सहारा जरूर लिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर भ्रष्टाचार हुआ है तो कानून अपना काम जरूर करेगा। यह ठीक है कि सीबीआई प्रधानमंत्री के अधीन ही काम करती है। बिना उनके इशारे पर सीबीआई राजा और बेहुरा की गिरफ्तारी का कदम नहीं उठा सकती थी। लेकिन यह भी सच है कि प्रधानमंत्री कार्यालन ने सदिच्छा से राजा की गिरफ्तारी के लिए हरी झंडी नहीं दिया है। सुब्रह्ममण्यम स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए राजा पर कई सवाल सुप्रीम कोर्ट ही उठा चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने ही जब सवाल पूछा कि आखिर इतने बड़े घोटाले के आरोपी राजा अब तक मंत्रिमंडल में क्यों बने हुए हैं, तब जाकर उनसे इस्तीफा मांगा गया।
सच तो यह है कि बढ़ती महंगाई और 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की ठोस जांच में हीलाहवाली से सरकार की साख पर सवाल उठ खड़े हुए हैं। राष्ट्रमंडल खेल आयोजन में घोटाला की खबर आने के बाद भी सरकार की ओर से कोई ठोस कदम उठाते हुए नहीं दिखे। अभी राष्ट्रमंडल खेल आयोजन के घोटाले से उबरने की कांग्रेस कोशिश कर ही रही थी कि मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले से सरकार और कांग्रेस की नींद उड़ गई। लिहाजा अशोक चव्हाण को हटाकर कांग्रेस ने अपने दामन को पाक-साफ दिखाने की कोशिश की। अपेक्षाकृत शालीन व्यक्तित्व के धनी पृथ्वीराज चव्हाण को दिल्ली से भेजकर महाराष्ट्र की बागडोर थमाई गई। लेकिन अब उनका भी नाम आदर्श घोटाले में सामने आ रहा है। लेकिन एक लाख 76 हजार करोड़ का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की खबर सब पर भारी पड़ गई। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री की चेतावनी के बाद भी राजा अपने ढंग से स्पेक्ट्रम बांटते रहे। लेकिन गठबंधन धर्म की मजबूरियों ने शायद प्रधानमंत्री का हाथ बांधे रखा और राजा बचे रहे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के कड़े तेवर के बाद राजा को जाना पड़ा। इसके बाद इस महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी तेजतर्रार वकील कपिल सिब्बल को थमाई गई। सिब्बल साहब के वकील दिमाग ने इसमें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार को भी शामिल करने की कोशिश की। लेकिन सीबीआई के हाथों राजा की गिरफ्तारी ने सिब्बल के उस तर्क को भी बेदम बनाकर रख दिया है।
तो क्या यह मान लिया जाय कि राजा की गिरफ्तारी बिना किसी राजनीतिक उद्देश्य के ही संभव हो पाई है और क्या यह गिरफ्तारी सिर्फ कानून को अपना काम करने देने का नतीजा है। निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है। दरअसल सरकार के सामने विपक्ष को साधने के लिए इससे बड़ा कोई दूसरा रास्ता नजर नहीं आ रहा है। सरकार जानती है कि अगर वह 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन घोटाले में ठोस कदम नहीं उठाती तो उसके लिए शीतकालीन सत्र की तरह संसद का बजट सत्र चला पाना आसान नहीं होगा। अगर विपक्ष ने बजट सत्र भी नहीं चलने देने की ठान ली तो देश की आर्थिक देनदारियों और लेनदारियों पर संकट उठ खड़ा होगा। अपने सिद्धांतों और राजनीतिक प्राथमिकताओं के मुताबिक सरकार के लिए बजट पास करा पाना भी सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा। सरकार इस बहाने विपक्ष की जेपीसी की मांग के धार को भी कुंद करने की कोशिश कर रही है। हालांकि अभी विपक्ष झुकता नजर नहीं आ रहा है। उल्टे उसने जेपीसी की मांग और तेज कर दी है। विपक्षी नेताओं के एक वर्ग को लगता है कि राजा कि गिरफ्तारी से उसे राजनीतिक फायदा मिल सकता है। चाहे भारतीय जनता पार्टी के नेता हों या फिर किसी और पार्टी के, वे भी मुगालते में हैं। राजा के इस भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे पहले सवाल तमिलनाडु भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष सीपी राधाकृष्णन ने उठाए थे। उनके बयान को एक हिंदी पाक्षिक के अलावा किसी ने स्थान नहीं दिया था। लेकिन जैसे ही यह मामला लेकर सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका के जरिए उठाया, भारतीय जनता पार्टी इस मसले को संसद और बाहर भुनाने के लिए कूद पड़ी। यह बात और है कि सीपी राधाकृष्णन की राय पर पहले उनकी ही पार्टी ने ध्यान नहीं दिया। इससे साफ है कि भारतीय जनता वक्त रहते इस राजनीतिक मसले का फायदा उठाने के लिए कितनी तैयार है। 1995 के संचार घोटाले के आरोपी सुखराम को कांग्रेस ने निकाल बाहर किया तो उन्होंने हिमाचल कांग्रेस बना ली। सुखराम को मुगालता था कि हिमाचल के लोग उसे हाथोंहाथ अपना लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। भारतीय जनता पार्टी भी हिमाचल प्रदेश में राजनीतिक रसूख हासिल करने की जुगाड़ में थी। उसे सुखराम की पार्टी में ही सहारा नजर आया और पार्टी ने उसी सुखराम को अपना लिया, जिनके भ्रष्टाचार के खिलाफ 16 दिनों तक संसद नहीं चलने दी थी। भ्रष्टाचार पर रोक नहीं लग पाने के पीछे भारतीय राजनीति की इस अवसरवादिता का भी बड़ा हाथ रहा है।
तीस जनवरी को गांधी जी की पुण्यतिथि पर देश के छह महानगरों में स्वयंसेवी संगठनों और स्वतंत्रता सेनानियों की मांग पर जुटी लोगों की भीड़ ने भी सरकार की भौहों पर बल ला दिया है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बेंगलुरू में भ्रष्टाचार के खिलाफ जुटे लोगों की मांग है कि एक ऐसा लोकपाल बिल लाया जाए, जिसके दायरे में प्रधानमंत्री का पद भी हो। भ्रष्टाचार और उसे रोकने के उपायों की मांग को लेकर जुटी भीड़ ने भी सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है। लोगों की इस भीड़ से एक तथ्य साबित तो हुआ कि आम लोग अब सरकार को हीलाहवाली करने वाली संस्था मानने लगे हैं। राजनीतिक पंडितों के एक वर्ग का माना है कि राजा की गिरफ्तारी की एक वजह सरकार पर बढ़ता यह जनदबाव भी है।

Friday, January 28, 2011

राजनीति और अपराध के मकड़जाल का नतीजा

उमेश चतुर्वेदी
दिसंबर 1994 को मुजफ्फरपुर में गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णैया की पत्थर मार कर नृशंस हत्या की खबर आने के बाद बिहार और वहां की कानून व्यवस्था पर सवालिया निशान लग गए थे। मुजफ्फरपुर में कृष्णैया और नासिक के मालेगांव में यशवंत सोनवाणे की हत्या की घटना में एक समानता है कि दोनों जिम्मेदार अधिकारी थे। लेकिन एक की हत्या पगलाई भीड़ ने की थी, जबकि दूसरे को जिंदा जलाने वाले तेल माफिया थे। कृष्णैया की हत्या ने यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया था कि जिस राज्य में देश की सर्वोच्च और प्रतिष्ठित सेवा का अधिकारी सुरक्षित नहीं है, वहां आम जनता कितनी सुरक्षित होगी। लेकिन ठीक गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हुई इस लोमहर्षक घटना के लिए महाराष्ट्र के कानून-व्यवस्था पर सवाल नहीं उठ रहा है। वहां इसे महज एक आपराधिक घटना के तौर पर देखा जा रहा है। महाराष्ट्र की इस दुस्साहसिक घटना की जांच के बाद निश्चित रूप से यह पता चलेगा कि आला प्रशासनिक अधिकारी को जिंदा जलाने वाले कोई सामान्य अपराधी नहीं हैं, बल्कि उनके पीछे कोई रसूखदार राजनीतिक ताकत जरूर है। क्योंकि बिना रसूख और पैसे की ताकत के सामान्य अपराधी किसी अधिकारी की हत्या को अंजाम नहीं दे सकता।
19 नवंबर 2005 में कुछ ऐसे ही घटनाक्रम में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में इंडियन आयल कारपोरेशन के मार्केटिंग अधिकारी एस मंजूनाथ की हत्या कर दी गई थी। यशवंत सोनावाणे की तरह मंजूनाथ का भी कसूर यही था कि वे तेल में मिलावटखोरों के खिलाफ अभियान चला रहे थे। उनके रहते मिलावटखोर और कालाबाजारी करने वाले बेईमान पेट्रोल पंप मालिकों की काली कमाई में रूकावट हो रही थी। लिहाजा उन्होंने अपनी काली कमाई जारी रखने के लिए अधिकारी को ही राह से हटाने का फैसला ले लिया। मंजूनाथ की हत्या की जांच में भी पता चला कि इसके पीछे रसूखदार राजनीतिक वरदहस्त वाले लोगों का भी हाथ था। पेट्रोल पंपों के कारोबार से जुड़े होने के चलते हत्यारे और उन्हें प्रश्रय देने वाले मालदार तो खैर थे ही। चाहे मंजूनाथ हों या फिर यशवंत सोनवाणे, राजनीति की दुनिया में व्याप्त भ्रष्टाचार उन्हें अपनी राह का रोड़ा मानने लगती है। पहले तो उन्हें पैसे देकर खरीदने की कोशिश की जाती है। अपने सेवाकाल के शुरूआती दौर में ज्यादातर अधिकारी समाज बदलने का ही माद्दा लेकर आते हैं। लेकिन जैसे-जैसे भ्रष्ट व्यवस्था से उनका पाला पड़ता है, शुरूआती हिचक पर वे काबू पाने की कोशिश में जुट जाते हैं। रही- सही कसर पूरी कर देती है भ्रष्ट व्यवस्था, व्यवस्था ही उन्हें बदलने की कोशिश करने लगती है। पहले ही दिन से उन्हें खरीदने की कोशिश की जाती है। इस कोशिश के सामने अधिकांश टूट जाते हैं और जो नहीं टूटते, उन्हें या तो मंजूनाथ बना दिया जाता है या फिर सत्येंद्र दुबे। राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण में काम कर रहे इंजीनियर सत्येंद्र दुबे को भी खरीदने की कम कोशिश नहीं की गई थी। लेकिन बिहार के सीवान जिले का रहने वाला वह युवा इंजीनियर अपनी असल जिम्मेदारी निभाने के लिए जुटा रहा। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने ही विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा करने की भी ठान ली। ऐसे में भ्रष्ट अधिकारियों, ठेकेदारों और इंजीनियरों की तिकड़ी ने उन्हें रास्ते से ही हटाने की ठान ली। 27 नवंबर, 2003 को गया में तैनात यह इंजीनियर जब अपने घर लौट रहा था, तभी उसे गोली मार दी गई। सत्येंद्र दुबे की हत्याकांड का मामला इतना तूल पकड़ा कि नीतीश सरकार को उसकी सीबीआई जांच कराने का आदेश देना पड़ा। दुबे हत्याकांड के अधिकारी पकड़ तो लिए गए हैं, लेकिन हकीकत यह है कि वे महज हत्यारे हैं। उनकी हत्या की साजिश रचने वाले राजनेता और अधिकारी अब भी सींखचों से बाहर हैं। हाल के दिनों में एक और हत्या ने राजनीति और भ्रष्टाचारियों के कॉकटेल और उसके जरिए होने वाले अपराधों की कलई खोलने के लिए चर्चित रहा। 24 दिसंबर, 2008 को उत्तर प्रदेश के औरेया जिले में तैनात पीडब्ल्यूडी इंजीनियर मनोज गुप्ता की भी हत्या कर दी गई। उनका कसूर सिर्फ इतना ही था कि उन्होंने सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी के स्थानीय विधायक शेखर तिवारी को चंदा देने से मना कर दिया था। दिलचस्प बात यह है कि यह चंदा पार्टी के ही नाम पर मांगा गया था। इस हत्याकांड से भ्रष्टाचार के मसले पर राजनेताओं और अधिकारियों की मिलीभगत पर बहस-मुबाहिसों का दौर ही शुरू हो गया था।
बिहार में तो हालात भले ही बदलते नजर आ रहे हैं। नीतीश शासन में जिस तरह अधिकारियों को अभयदान मिला हुआ है, उससे सत्ताधारी जनता दल – यू और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं में असंतोष है। विधानसभा चुनावों के पहले हुई जनता दल – यू की एक बैठक में इस मसले को जनता दल-यू नेताओं ने जिस तरह तूल दिया, उससे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी झुंझला गए थे। लेकिन नीतीश कुमार ने जिस तरह अधिकारियों की स्वायत्तता दी है, उससे अब बिहार में काम करने को लेकर अधिकारियों में कोई हीनताबोध या किसी भय का भाव नहीं है। लेकिन जी कृष्णैया की हत्या के बाद नब्बे के दशक के मध्य में अधिकारी बिहार में तैनाती को लेकर हिचक दिखाने लगे थे। कृष्णैया आंध्र प्रदेश के निवासी थे। उनकी हत्या के बाद उनके माता-पिता ने कहा था कि वे किसी भी व्यक्ति को यह सलाह नहीं देंगे कि वे अपने बच्चे को बिहार में काम करने के लिए जाने दे। निश्चित तौर पर यशवंत सोनावाने की हत्या के बाद किसी अधिकारी के परिजन अपने किसी जानकार के महाराष्ट्र में काम करने के लिए आगाह नहीं करेंगे। लेकिन कृष्णैया की हत्या दरअसल छोटन शुक्ला नाम के एक स्थानीय नेता की मौत से गु्स्साई जनता ने की थी। बिहार पीपुल्स पार्टी के नेता छोटन शुक्ला की हत्या को लेकर लोग मान रहे थे कि हत्यारों को सत्ता प्रतिष्ठान का समर्थन हासिल है। हत्यारों की भीड़ में लवली आनंद और आनंद मोहन जैसे नेता भी थे। आनंद मोहन पर हत्या से ज्यादा भीड़ को उकसाने का आरोप है और इसके चलते वे जेल में बंद भी हैं। यशवंत सोनवाणे की हत्या निश्चित तौर पर अपराधियों का कृत्य है। लेकिन यह तय है कि उन अपराधियों के पीछे कोई राजनीतिक ताकत जरूर है।
सत्येंद्र दुबे और मंजूनाथ भी अधिकारी थे। लेकिन वे प्रशासनिक अधिकारी नहीं थे। जिन पर कानून और व्यवस्था की भी जिम्मेदारी होती है। वैसे तो हत्या, हत्या ही होती है। लेकिन यशवंत सोनावाणे की हत्या निश्चित तौर पर बाकी अधिकारियों की हत्या से अलग है। क्योंकि वे मामूली अधिकारी नहीं थे। वे प्रशासनिक अधिकारी थे। उन पर कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी भी थी। फिर भी उनकी हत्या के लिए भ्रष्ट तंत्र और उसके अपराधियों को कोई भय या हिचक का बोध नहीं हुआ। इसके भी अपने कारण हैं। अंग्रेजी राज्य से लेकर सन 1971-72 तक प्रशासनिक अधिकारियों का अपना जलवा रहता था। लेकिन सत्तर के दशक के शुरूआती दिनों में शुरू हुए प्रशासनिक सुधारों के बाद प्रशासनिक अधिकारियों की ताकत कम हुई है, इसके साथ ही उनका रसूख कम हुआ है। इन सुधारों ने प्रशासनिक अधिकारियों के अधिकारों में कटौती हुई और जिले में तैनात पुलिस अधीक्षकों को भी ताकत दी गई। जबकि उसके पहले तक वे जिला प्रशासनिक अधिकारियों के सहायक की भूमिका में होते थे। 1985-86 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व के दौरान पुलिस अधिकारियों ने प्रशासनिक अधिकारियों की पकड़ को कम करने की मांग रखी थी। उन्हें अपनी गोपनीयता रिपोर्ट किसी आईएएस अधिकारी के हाथों लिखे जाने पर भी एतराज था। लिहाजा सरकार ने उनकी मांगे मान ली। अधिकारों के विकेंद्रीकरण के नाम पर ये तो हुआ, लेकिन जिला और स्थानीय स्तर पर सक्रिय अपराधियों और माफियाओं ने उनकी परवाह करनी कम कर दी। उन्हें पता है कि प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ में पहले जैसा चाबुक नहीं रहा। इसका ही फायदा उठाकर सत्तर और अस्सी के दशक में धनबाद में माफियाओं का उभार सामने आया था। जिसमें सूरजदेव सिंह तेजी से उभरे थे। खुलेआम हथियार लेकर चलना और प्रशासनिक अमले को हड़का देना उनके लिए बांएं हाथ का खेल था। हालांकि बाद में एक दमदार अधिकारी मदनमोहन झा ने उन पर काबू पाने की सफल कोशिश की थी। रही-सही कसर राजनेताओं ने पूरी कर दी है। उन्हें अधिकारियों पर हाथ छो़ड़ने से गुरेज नहीं रहा। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के एक नेता बच्चा पाठक ने तो अपने गृह जिले बलिया के एडीएम को उनके चैंबर से ही खींच लिया था। नब्बे के दशक के शुरूआती दिनों में उन्होंने जब इस कृत्य को अंजाम दिया था, तब वे राज्य के मंत्री थे। उस अधिकारी का कसूर सिर्फ इतना था कि उसने कांग्रेस के एक स्थानीय नेता महेंद्र शुक्ल को जमानत पर छोड़ने से मना कर दिया था। अधिकारी के साथ हुई इस बदसलूकी को बलिया में लोग बड़े चाव से बच्चा पाठक की वीरता के तौर पर सुनाते हैं। हालांकि ऑन रिकॉर्ड इस मामले को दबा दिया गया।
वैसे अधिकारियों का भी एक बड़ा तबका राजनेताओं और ठेकेदारों के भ्रष्टाचार के हाथों में खेलने में ही अपनी भलाई देखता है। ऐसे में उनकी भी वकत कम हुई है। यशवंत सोनावाणे की हत्या की घटना ने इस मकड़जाल को एक बार फिर उजागर किया है।

Tuesday, January 25, 2011

भारतीय गणतंत्र की ताकत

उमेश चतुर्वेदी
26 जनवरी 1950 को जब भारतीय संविधान को स्वीकृति मिली, तब दुर्भाग्यवश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इस अद्भुत ऐतिहासिक बदलाव को देखने के लिए हमारे बीच मौजूद नहीं थे। संविधान को लेकर बापू की परिकल्पना क्या थी, इसे जानने-समझने के लिए 1922 में दिए उनके एक बयान को देखना होगा। तब गांधी जी ने कहा था कि भारतीय संविधान भारतीयों के मुताबिक होगा और इसमें हर भारतीय की इच्छा झलकेगी। दरअसल गांधी चाहते थे कि भारतीय संविधान ना सिर्फ भारतीय आत्मा से युक्त हो, बल्कि भारतीय समाज और राजनीतिक जरूरतों को ध्यान में रखने वाला हो। यही वजह है कि उनके इस ऐतिहासिक बयान के ठीक दो साल बाद पंडित मोतीलाल नेहरू ने अंग्रेज सरकार के सामने आजाद भारत का संविधान बनाने के लिए संविधान सभा के गठन की मांग रखी। गांधी के सपने को कांग्रेस और उसके आलानेता समझते थे। यही वजह है कि 1946 में जब संविधान सभा का गठन हुआ तो उसमें हर समुदाय को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की गई। इसमें 30 से अधिक लोग अल्पसंख्यक वर्ग के थे। फ्रेंक एंथनी एंग्लो इंडियन समुदाय के प्रतिनिधि थे। इस सभा में अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष हरेंद्र कुंवर मुखर्जी थे, जबकि गोरखा समुदाय के प्रतिनिधि अरि बहादुर गुरांग थे। अन्य अहम सदस्यों में बी.आर. अंबेडकर, कृष्णास्वामी अय्यर, के.एम. मुंशी और गणेश मावलंकर थे। इतना ही नहीं, इस सभा में महिला सदस्यों को भी शामिल किया गया, जिनमें सरोजनी नायडू, हंसाबाई मेहता, दुर्गाबाई देशमुख और राजकुमारी अमृत कौर प्रमुख थीं। इस सभा के पहले सभापति बिहार के वरिष्ठ समाजवादी नेता सच्चिदानंद सिन्हा चुने गए। बाद में इस सभा के सभापति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को बनाया गया। यह संयोग ही है कि उसी संविधान के तहत भारत के पहले राष्ट्रपति का चुनाव हुआ तो कांग्रेस की पहली पसंद यही डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ही थे। संविधान सभा की पहली बैठक नौ दिसंबर 1946 को हुई थी। जबकि संविधान बनाने के लिए इस सभा ने भीम राव अंबेडकर की अध्यक्षता में बाकायदा एक प्रारूप समिति(ड्राफ्ट कमेटी) का गठन भी किया। जिसकी पहली बैठक 29 अगस्त 1947 को हुई। इस समिति में अंबेडकर के अलावा छह और सदस्य थे। इतनी मेहनत के बाद बने संविधान को बेहतर होना ही था। भारतीय संविधान में भारत को गणतांत्रिक गणराज्य कहा गया है। लेकिन हमारा गणराज्य पूर्व सोवियत संघ की तरह राज्यों का संघ नहीं है। गणतंत्र का मतलब समूह तंत्र यानी राज्यों का समूह ही होता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे यहां राज्य सोवियत संघ या स्विटजरलैंड की तरह आजाद तो नहीं हैं, लेकिन उनकी स्वायत्तता का संविधान ने खासा ध्यान रखा है। भारत में शासन तीन सूचियों के तहत होता है – संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। सबसे दिलचस्प बात यह है कि राज्य सूची के विषयों मसलन कानून और व्यवस्था को लेकर केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार में दखल नहीं दे सकती। लेकिन जब कानून – व्यवस्था की यह ढिलाई देश की सेहत पर असर डालने लगती है तो केंद्र को धारा 355 और 356 के तहत कार्रवाई करने का अधिकार संविधान ने दे रखा है। केंद्र सूची पर निश्चित तौर सिर्फ और सिर्फ केंद्र का ही अधिकार है तो समवर्ती सूची पर राज्यों और केंद्र दोनों का अधिकार है। लेकिन विवाद की स्थिति में संसद की ही बात मानी जाएगी। 356 और संसद के विशेषाधिकार का प्रावधान दरअसल देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने का अधिकार देता है। किसी राज्य सरकार को केंद्र सरकार बर्खास्त तो कर सकती है। लेकिन देश का गणतांत्रिक स्वरूप बनाए रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने इसके लिए जरूरी उपबंध कर दिया है। मसलन जब तक संसद के दोनों सदन अलग-अलग केंद्र सरकार के इस फैसले पर सहमति नहीं जताते तो उसका आदेश वैध नहीं रह सकेगा। बिहार में ऐसा हो चुका है। इसी तरह कर्नाटक के पूर्व मुख्य मंत्री एस आर बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि कोई राज्य सरकार बहुमत में है या अल्पमत में, इसका फैसला विधानसभा में ही होना चाहिए। इस एक उपबंध ने राज्य सरकारों की स्वायत्तता को बरकरार रखने और राज्यपालों के जरिए केंद्र सरकार की मनमानी पर पूरी तरह रोक लगा दी। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि राज्य अपनी मनमानी कर सकें। संविधान ने उन्हें रोकने के लिए भी केंद्र को भरपूर हथियार मुहैया कराए हैं।
सबसे पहले जानते हैं कि संघात्मक संविधान की प्रमुख विशेषताएँ क्या मानी जाती हैं। राजनीति शास्त्र के पंडितों के मुताबिक राजनयिक शक्तियों का संघीय एवं राज्य सरकारों के बीच संवैधानिक विभाजन संघात्मक संविधान की पहली शर्त है। संघीय संविधान के मुताबिक केंद्रीय प्रभुसत्ता से न तो संघीय और न ही राज्य सरकारें अलग हो सकती हैं। इसके साथ ही संघात्मक संविधान केंद्र और राज्य दोनों के लिए समान तौर पर सर्वोच्च होता है। चूंकि संघ एवं राज्य सरकारों के बीच अधिकारों का साफ विभाजन होता है, लिहाजा संघात्मक सविधान का लिखित होना सबसे ज्यादा जरूरी है। संघात्मक संविधान संघीय एवं राज्यों के समझौते को आखिरी तौर पर पुष्ट करता है। इस वजह से ऐसे संविधान को व्यावहारिक रूप से अपरिवर्तनीय भी होना चाहिए। कम से कम किसी एक पक्ष के के मत से ऐसा संविधान परिवर्तित नहीं किया जा सकता। संविधान में बदलाव खास हालत में विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा ही किया जा सकता है। संवैधानिक अधिकारों, काम करने और साधनों को लेकर केंद्र और राज्य सरकार में जब भी विवाद हो तो उन पर फैसला लेने के लिए न्यायपालिका के पास संविधान के संघात्मक प्रावधानों की व्य़ाख्या का पूरा और आखिरी अधिकार होना चाहिए। कहना न होगा कि 1787 में 12 स्वतंत्र राष्ट्रों की संविदा के अनुसार बने अमेरिका का संविधान इन सभी खासियतों वाला आदर्श संविधान है। हमारा संविधान भी इन विशेषताओं के नजरिए से खरा उतरता है। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी एवं फ्रांस आदि में भी संघात्मक यानी गणतांत्रिक व्यवस्था है। लेकिन उनकी तुलना में भारतीय गणतंत्र को कहीं ज्यादा व्यवहारिक माना जाता है।
भारतीय गणतंत्र की ताकत भारतीयों द्वारा लिखित 395 अनुच्छेद व आठ अनुसूची से सुसज्जित दुनिया का विशालतम संविधान ही है। इस संविधान में अब तक 93 संशोधन हो चुके हैं, जिससे यह पहले से भी अधिक शक्तिशाली हो गया है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि यह संविधान हर भारतीय को अपनी बात वाजिब ढंग से कहने और इंसाफ पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का अधिकार भी देता है। यही वजह है कि एटा उत्तर प्रदेश का कोई परेशान पिता अपनी बेटी के अपहरण पर पुलिस की ढिलाई बरतने से निराश होकर सुप्रीम कोर्ट को पोस्ट कार्ड लिखता है और सुप्रीम कोर्ट उसे ही याचिका मानकर प्रशासन की खटिया खड़ा कर देता है। भारतीय गणतंत्र की ताकत न्यायपालिका की न्यायिक मामलों में स्वायत्तता भी है। इसके साथ ही नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय को बनाना भी है। हालांकि इतिहास में कई बार उससे खिलवाड़ हो चुके हैं। लेकिन अब न्यायपालिका जाग गई है और उसे आम भारतीय के पक्ष में और जरूरत पड़े तो अपने बीच के लोगों के खिलाफ भी फैसले सुनाने से परहेज नहीं रहा।
भारतीय गणतंत्र की सर्वोच्च शक्ति नागरिक है और उससे भी बड़ी उसकी राष्ट्र के प्रति निष्ठा है। राष्ट्र के प्रति आम भारतीय के मन में इज्जत सिर्फ इस लिए ही नहीं है कि इस राष्ट्र को बनाने और उसकी परिकल्पना के पीछे स्वतंत्रता आंदोलन का बड़ा योगदान रहा है। बल्कि इस देश में नागरिकों को मिले समानता के अधिकार ने उसके प्रति निष्ठाएं बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि भाई-भतीजावाद, राजनीतिक भ्रष्टाचार और आधिकारिक लापरवाही अपने गणतंत्र के लिए अब भी चुनौती बनी हुई है। कभी-कभी सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयता का उन्माद भी भारतीय गणतंत्र की राह में बड़ा रोड़ा बनकर खड़ा हो जाता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इसी गणतंत्र में इन चुनौतियों से जूझने का माद्दा भी है। लचीलापन और वक्त पड़ने पर कठोर देशभक्ति का भाव- दोनों मिलकर भारतीय गणतंत्र को महान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

Tuesday, January 11, 2011

मनरेगा की बढ़ी दरों से किसे होगा फायदा

उमेश चतुर्वेदी
महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना के तहत मजदूरी बढ़ाने के मसले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जिस तरह सोनिया गांधी को जवाब लिखा था, उससे लग रहा था कि मनरेगा के तहत ग्रामीण बेरोजगारों को पुरानी दरों पर ही पसीना बहाना पड़ेगा। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष के नाते सोनिया गांधी का सुझाव था कि जब राज्यों ने अपने यहां न्यूनतम मजदूरी दरें बढ़ा दी हैं, लिहाजा मनरेगा की मेहनताना दरें भी बढ़ाई जानी चाहिए। लेकिन प्रधानमंत्री का मानना था कि सरकार कानूनी तौर पर मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी दरें बढ़ाने के लिए बाध्य नहीं है। बहरहाल सोनिया गांधी के सुझाव पर मनरेगा की मजदूरी की दरें से सत्रह से तीस फीसदी तक बढ़ा दी गईं हैं। इससे केंद्र सरकार पर तकरीबन 3500 करोड़ रूपए सालाना का अतिरिक्त बोझ बढ़ने का अनुमान जताया जा रहा है। प्रधानमंत्री इन दरों को बढ़ाने से हिचक रहे थे तो शायद उसके पीछे सरकारी खजाने पर बढ़ने वाला इस बोझ की चिंता ही काम कर रही थी। बहरहाल केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का दावा है कि इससे देश के पांच करोड़ ऐसे लोगों को सीधे फायदा होगा, जिन्हें नियमित तौर पर रोजगार हासिल नहीं है। उपर से देखने में सरकार का यह दावा सही लगता है। लेकिन इसके तह में जाने के बाद इसकी हकीकत परत-दर-परत खुलकर सामने आ जाती है।
मनरेगा योजना ग्रामीण इलाके के उन लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाई गई थी, जिन्हें पूरे साल रोजगार हासिल नहीं होता। इस योजना के जरिए उन लोगों को सरकार साल में कम से कम सौ दिन का रोजगार मुहैय्या कराती है, जो बेरोजगार हैं। इसका मकसद यह है कि कम से कम इसकी कमाई से मनरेगा मजदूरों के परिवार को भुखमरी का सामना नहीं करना पड़ेगा। यूपीए की पहली सरकार में इस योजना का श्रेय सरकार का बाहर से समर्थन करते रहे वामपंथी लेते रहे हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अतुल कुमार अनजान खुलेतौर पर कहते रहे हैं कि 2008 की विश्वव्यापी मंदी के दौरान मनरेगा के ही चलते भारतीय अर्थव्यवस्था पर खास असर नहीं पड़ा। क्योंकि इस योजना के जरिए गांवों तक पैसा प्रवाह बढ़ा और इससे अर्थव्यवस्था चलती रही। 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने भी अपनी इसे सफल योजना के तौर पर जमकर प्रचारित किया और वोट के मैदान में इसका फायदा उठाने की कामयाब कोशिश भी की। इस बीच छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुईं, महंगाई सुरसा की तरह मुंह बाए बढ़ती रही। ऐसे में यह वाजिब ही था कि मनरेगा के तहत काम करने वालों की मजदूरी बढ़ाने की मांग उठे। बढ़ती महंगाई के दौर में सौ या सवा सौ रूपए की रोजाना की मजदूरी पर गुजारा करना आसान कैसे हो सकता है। यहां यह ध्यान देने की बात यह है कि मजदूरी की दरें तमाम राज्यों में भी अलग-अलग है। सबसे कम 80 रूपए मजदूरी अरूणाचल प्रदेश और नगालैंड में है तो इससे कुछ ज्यादा 81.40 मजदूरी मणिपुर में है। वहीं झारखंड में यह दर 99 रूपए है। उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और राजस्थान में 100 रूपए है। जबकि हरियाणा के लोगों को रोजाना 141 रूपए की दर पर मनरेगा के तहत मजदूरी दी जाती है। इन आंकड़ों से साफ है कि राज्यों में ये दरें एक समान नहीं हैं। बहरहाल जिन राज्यों में सौ रूपए से कम मजदूरी है, वहां के मजदूरों को अब कम से कम सौ रूपए मिलेंगे। इसी तरह उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और झारखंड में 120 रूपए दिए जाएंगे। राजस्थान में यह दर जहां 119 रूपए होगी, वहीं हरियाणा में सबसे ज्यादा 141 रूपए मिलेंगे। लेकिन सबसे बडा सवाल यह है कि जिस न्यूनतम मजदूरी दर को आधार बनाकर इसे बढा़या गया है, कुछ राज्यों में अब भी मनरेगा के तहत उतनी रकम नहीं मिलने जा रही। मसलन राजस्थान में न्यूनतम मजदूरी दर इन दिनों 135 रूपए है, लेकिन बढ़ी हुई दरों पर यहां कुल जमा 119 रूपए ही मिलेंगे। उपर से देखने में मनरेगा दर में यही एक गड़बड़ी नजर आ रही है। लेकिन ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काम कर रहे स्वयंसेवी संगठनों को इस बढ़ी हुई दर में भी राजनीति नजर आ रही है। पीस फाउंडेशन से जुडे धीरेंद्र सिंह का कहना है कि मनरेगा के तहत एक साथ 3500 करोड़ रूपए ज्यादा मिलने से बैंकों को कहीं ज्यादा फायदा होगा। क्योंकि यह रकम बैंकों के ही तहत मजदूरों के पास जाएगी। नए नियमों के तहत बैंक अपने यहां जमा रकम से नौगुना ज्यादा रकम का लोन दे सकते हैं। जाहिर है मनरेगा के तहत आवंटित हुए पैसे से बैंकों का कारोबार बढ़ेगा।
स्वयंसेवी संगठनों को लगता है कि बढ़ी हुई यह रकम भी नाकाफी है। क्योंकि 2009 में सौ रूपए की जो कीमत थी, उसके मुकाबले आज के दौर में 120 या 141 रूपए की कीमत भी बेहद कम है। स्वयंसेवी संगठनों का सवाल यह भी है कि मूलतः यह योजना ग्रामीण बेरोजगारों के लिए है। लेकिन हकीकत तो यह है कि गांवों में अब लोग रहे ही नहीं। दरअसल अब बेरोजगारी की समस्या शहरों के लिए ज्यादा है और मनरेगा की यह रकम सिर्फ ग्रामीण बेरोजगारी को ही एक हद तक रोक सकती है। उनका कहना है कि अगर छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू करते वक्त ही मनरेगा की मजदूरी दरें बढ़ाई गईं होतीं तो शायद शहरी बेरोजगारी को एक हद तक रोका जा सकता था। जिसका फायदा शहरों को भी होता, तब ग्रामीण बेरोजगार मजबूरी में शहरों का रूख नहीं करते।

सुबह सवेरे में