Wednesday, December 12, 2012

सौ नंबर के गुनाह



उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली पुलिस का एक नारा है- दिल्ली पुलिस सदा आपके साथ। दिल्ली पुलिस का यह सूक्त वाक्य गली-चौराहों और आए दिन अखबारों में साया होने वाले विज्ञापनों के बावजूद जनता में क्यों नहीं पैठ बना पाया है...इसका अनुभव आखिरकार पिछले दिनों हो ही गया। उसी दिन समझ में आया कि राह चलते घायलों को देखने के बाद मददगार भावों के बावजूद दिल्ली का नागरिक क्यों सौ नंबर पर फोन करने से बचता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के बगल से गुजरते वक्त एक दिन शाम को सड़क पर दूर से ही नजर आई भीड़ ने बता दिया कि वहां कोई अनहोनी हो गई है। नजदीक जाने पर भयावह नजारा था।

Thursday, November 22, 2012

बहुसदस्यीय कैग का करें स्वागत



उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हो चुका है)
लगता है ठीक 1993 की तरह एक बार फिर कांग्रेस सरकार इतिहास दोहराने जा रही है। एक और संवैधानिक संस्था को वह बहुसदस्यीय बनाने की तैयारी में है। पिछली बार वह विपक्ष के दबाव में ऐसा करने को मजबूर हुई थी, संयोगवश उस वक्त के प्रधानमंत्री को भी विपक्ष और मीडिया मौनी बाबा कहता था। आज के भी प्रधानमंत्री को विपक्ष इसी उपाधि से नवाजता है। प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायण सामी तो यही कह रहे हैं कि अब सरकार भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग के पद को चुनाव आयोग की तरह बहुसदस्यीय बनाने जा रही है। जब 1993 में चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाने की जब विपक्ष ने मांग रखी थी तो उस वक्त तब के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की अति सक्रियता इसकी वजह बनी थी। तब दिलचस्प यह है कि शेषन से विपक्ष नाराज और परेशान था और उस वक्त शेषन से उसे बचाव चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाने में ही नजर आता था। लेकिन इस बार हालात बदले हुए हैं। मौजूदा नियंत्रक और महालेखापरीक्षक विनोद राय से विपक्ष को नहीं, सरकार को परेशानी महसूस हो रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कैग को बहुसदस्यीय बनाने के बाद उनसे जो मौजूदा शिकायतें दूर हो जाएंगी।

Wednesday, November 7, 2012

बिहार में गठबंधन के अंतर्विरोध



उमेश चतुर्वेदी
2010 में भारी बहुमत के बाद पाटलिपुत्र की गद्दी पर नीतीश की वापसी के बाद यह तय हो गया था कि संख्या बल के लिहाज से बेहतर स्थिति में आने के बावजूद गठबंधन में सबकुछ ठीक नहीं चलने वाला है। हालांकि विचारों और पत्रकारिता की अपनी दुनिया में ऐसी चर्चाएं और आशंकाएं करने की परिपाटी नहीं रही है। इसलिए ऐसी चर्चाओं और आशंकाओं को सिरे से नकार दिया जाता है। नीतीश और बीजेपी के बिहार के गठबंधन को लेकर भी जब 2010 में ऐसी कोई आशंका जताने की कोशिश शुरू हुई, उसे राजनीतिक पंडितों ने नकारने में देर नहीं लगाई थी। लेकिन महज दो साल की यात्रा के बाद ही वे आशंकाएं उठने लगी हैं।

Saturday, November 3, 2012

अन्ना को वीके का साथ



उमेश चतुर्वेदी
क्या भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कामयाबी या फिर एक खास स्तर तक चर्चा के लिए व्यवस्था तंत्र का में काम कर चुका बड़ा और नामी नुमाइंदा होना जरूरी है...अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के लिए पहले जो भूमिका व्यवस्था तंत्र से बाहर निकले अरविंद केजरीवाल निभा रहे थे, लगता है अन्ना के साथ उसी जिम्मेदारी को संभालने पूर्व सेनाध्यक्ष वीके सिंह आ गए हैं। अन्ना के साथ आते ही उन्होंने मौजूदा लोकसभा को भंग करने की जोरदार मांग करके अपनी दमदार मौजूदगी जताने की कोशिश भी कर दी है।

ताकि बनी रहे नजरों की धार



उमेश चतुर्वेदी
अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे की सक्रियता के दौर में जिस तरह रोजाना घपले-घोटाले की खबरें सामने आ रही हैं, राज्यों के लोकायुक्तों की पुलिस मामूली से समझे जाने वाले कर्मचारियों से करोड़ों की संपत्ति बरामद कर रही हैं...ऐसे में लगता तो यही है कि हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं, जहां नैतिक आचरण की कोई अहमियत नहीं रह गई है। ऐसे में अगर भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाले सबसे बड़ी वैधानिक संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग के प्रमुख प्रदीप कुमार नैतिक शिक्षा की वकालत करें तो हमें हैरत नहीं होनी चाहिए।

सोशल मीडिया की लत



उमेश चतुर्वेदी
सूचना तकनीक के मौजूदा हथियारों मसलन मोबाइल फोन, कंप्यूटर, इंटरनेट और सोशल मीडिया के आने के पहले तक चौराहे और चौपाल पर सुबह-शाम लगने वाली गप्प गोष्ठियां रोजाना घरेलू कलह की वजह बनती रही हैं। लेकिन बतरस की लत ही ऐसी थी कि बड़े-बड़े सूरमा तक इसमें डूबने में ही आनंद पाते रहे हैं। कुछ ऐसी ही हालत बदले दौर में बतरस का अड्डा बने सोशल मीडिया का भी है। अब लोग इसमें इतना डूब जाते हैं कि उन्हें दुनिया-जहान की परवाह ही नहीं रहती। इसमें सबसे ज्यादा बाजी मार ली है फेसबुक ने।

Monday, October 8, 2012

क्या किसान समर्थक होंगे भूमि सुधार



उमेश चतुर्वेदी
भारत में इन दिनों भूमि अधिग्रहणों के खिलाफ कम से कम 1700 आंदोलन हो रहे हैं। निश्चित तौर पर इनमें से सभी आंदोलनों के साध्य और साधन सही नहीं है। यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि इन आंदोलनों में सबके लक्ष्य भी सही नहीं होंगे। इसके बावजूद अगर पूरे देश में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ इतने आंदोलन चल रहे हैं तो यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि उदारीकरण के दौर में लगातार आगे बढ़ रही नव आर्थिकी के लिए हो रहे भूमि अधिग्रहण में कहीं न कहीं कोई खोट अवश्य है। इस खोट की तरफ ध्यान दिलाने के लिए गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े रहे गांधीवादी कार्यकर्ता और भारतीय एकता परिषद के अध्यक्ष पी वी राजगोपाल पिछले एक साल से लगातार देशव्यापी यात्रा पर हैं। दो अक्टूबर 2011 को शुरू हुई उनकी यात्रा का समापन दिल्ली में इस साल दो अक्टूबर को होना था। इस यात्रा में एक लाख लोगों को दिल्ली पहुंचना था। यात्रा के आखिरी दौर में ग्वालियर से एक लाख लोगों की यात्रा का दिल्ली आना कम बड़ी बात नहीं है। वहां से दिल्ली के लिए कूच भी कर चुके हैं। देशभर के भूमिहीन और मेहनतकश आदिवासी और दूसरे तबके के लोगों की एक लाख की संख्या जुट जाना भी कम बड़ी बात नहीं है। पीवी राजगोपाल अपनी इन्हीं मांगों को लेकर 2007 में 25 हजार लोगों को दिल्ली लाकर उदारीकरण के दौर के भूमि सुधारों पर रोष जता चुके हैं।

सुबह सवेरे में