Friday, April 10, 2015

अछूत महिला उषा का सच हुआ सपना


उमेश चतुर्वेदी
राजस्थान के एक छोटे से इलाके में कभी अछूत की तरह रहने वाली महिला के लिए यह सपने के सच होने जैसा ही था, जब उसने ब्रिटेन के जाने-माने विद्वानों को लंदन की यूनिवसिटी ऑफ पोर्ट्समाउथ में ब्रिटिश एसोसिएशन आफ साउथ एशियन स्टडीज के सालाना कांफ्रेंस में संबोधित किया है। यूनिवर्सिटी की प्रेस रिलीज में इस घटना को याद करते हुए लिखा गया है कि दुनिया के सबसे कमजोर और हाशिए के कुछ लोगों के अधिकार और पहचान की तरफ विश्वविद्यालय के लोगों ने पूरा ध्यान दिया।
सेंट्रल लंदन से करीब 130 किलोमीटर दूर स्थित समारोह में राजस्थान के अलवर जिले की 42 वर्षीय उषा चौमुर को ब्रिटिश अकादमिक विद्वानों के बीच बोलने के लिए पिछली रात बुलाया गया था। इस मौके पर उषा ने ब्रिटिश विद्वानों को पूरे आत्मविश्वास से ना सिर्फ संबोधित किया, बल्कि अपनी तरह जिंदगी  गुजारने वाली लाखों महिलाओं के विचार सामने रखे। जिन्हें आज भी अपने पहचान और मौलिक अधिकारों के लिए जद्दोजहद करना पड़ रहा है।

Wednesday, April 8, 2015

राजस्थान की अछूत महिला को लंदन से बुलावा

उमेश चतुर्वेदी
कभी वह समाज से उपेक्षित और अछूत थी। कभी हाथों से ही मैला साफ करती थी, रजवाड़ों की नगरी अलवर की उसी महिला को अब लंदन से बुलावा  मिला है। लंदन की यूनिवसिटी आफ पोर्ट्समाउथ में ब्रिटिश एसोसिएशन आफ साउथ एशियन स्टडीज के सालाना कांफ्रेंस में उस अगले हफ्ते भाग लेने के लिए निमंत्रण मिला है। ब्रिटिश एसोसिएशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज दक्षिण एशियायी अध्ययन का दुनिया का प्रमुख केंद्र है।अलवर के हजूरीगेट के हरिजन कॉलोनी की 42 साल की उषा चौमूर  अगले हफ्ते ब्रिटेन के नीति निर्माताओं  और बुद्धिजीवियों के बीच स्वच्छता और भारत में  महिला अधिकार विषय पर अपना विचार रखेंगी। उषा जाने-माने एनजीओ सुलभ इंटरनेशनल द्वारा पुनर्वासित किए जाने से पहले हाथों से घर-घर में मैला की सफाई करती थीं। तब उन्हें अछूत माना जाता था। उषा अब हाथ से मैला साफ करने की पुरातन परंपरा से मुक्ति की दिशा में दूसरे लोगों के लिए मोटीवेटर की भूमिका निभा रही हैं। श्रीमती चौमूर भारत में स्वच्छका अभियान की प्रमुख हस्ती और सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ बिंदेश्वर पाठक के साथ इस सम्मेलन में हिस्सा लेंगी । डॉ पाठक को भी इस सम्मेलन के विशेष सत्र को संबोधित करने के लिए बुलाया गया है।
जन्म के साथ ही उषा चौमूर की जिंदगी की कहानी जैसे पहले ही लिख दी गई थी। अशिक्षित और दस साल की उम्र में ही शादी के बंधन में बंध चुकी उषा को जीवन यापन के लिए पीढ़ियों से चले आ रहे  काम में झोंक दिया गया। भारत के जटिल जातीय समाज में सबसे निम्न तबके में अछूत बिरादरी से उषा चौमूर आती हैं। जिसका काम हाथ से उच्च जातियों के घरों से मानव मल की सफाई करना और उसे ढोना था। कई लोगों की नजर में यह अपमानजनक और अछूत का काम था।

Thursday, April 2, 2015

आप में ये तो होना ही था

उमेश चतुर्वेदी
दस फरवरी को दिल्ली में आए एकतरफा चुनावी नतीजों ने लोकतांत्रिक परंपराओं में आस्था और बदलाव की राजनीति से उम्मीद रखने वाले लोगों को हैरत में डाल दिया था। अचंभा इस बात का था कि बदलाव को लेकर मौजूदा राजनीतिक तंत्र से जनता का किस कदर मोहभंग हो गया है। जैसा कि अक्सर होता है, हैरत और खुशियों के बीच भी कुछ आत्माएं ऐसी होती हैं, जो तमाम बदलावों के बीच भी कुछ आशंकाओं से सिहर उठती हैं। यह बात और है कि विजेताओं का इतिहासगान करने वाले मौजूदा मीडिया परिदृश्य में शक और आशंका वाली आवाजों को विघ्न संतोषी या कुंठित मानकर दरकिनार कर दिया जाता है। केजरीवाल के प्रचंड उभार के बाद निकले विजय जुलूस के ढोल-नगाड़े की आवाजों के बीच ऐसी आशंकित आवाजें वैसी ही मध्यम पड़ गई थीं, लेकिन रामलीला मैदान में उठी इंसान से इंसान के भाईचारे की अपील के महज डेढ़ महीने बाद ही आशंका की मध्यम आवाजों का वाल्युम बढ़ गया है। 28 मार्च को दिल्ली के कापसहेड़ा के एक रिजॉर्ट में आम आदमी पार्टी के बीच जो हुआ, वह बदनाम हो चुकी पारंपरिक राजनीति से भी कहीं ज्यादा अभद्र और गंदा रहा। हो सकता है कि योगेंद्र यादव, प्रोफेसर आनंद कुमार और प्रशांत भूषण बदलाव की आकांक्षा वाली  भारतीय राजनीति के अंगने के वैसे फूल ना हों, जिसकी सुगंध दूर-दूर उस अंदाज में फैलती हो, जिस अंदाज में केजरीवाल की सुगंध वायु प्रसारित हो रही है। लेकिन यह भी सच है कि राजनीति के गलियारे में ये आवाजें अपनी साफ-सुथरी पहचान और भीनी सुगंध के चलते दूसरे आंगनों में भी पहचानी जाती रही है। ऐसे में उमर अब्दुल्ला का यह कहना कि आप ने भी दूसरे के समान बनने का फैसला कर लिया है, दरअसल साफ-सुथरी राजनीति की चाहत रखने वाले लोगों की निराशाओं का ही प्रतीक है।

आम आदमी पार्टी के प्रचंड उभार के दौर में भी एक वर्ग ऐसा रहा है, जिसे केजरीवाल की अगुआई वाली राजनीति से कोई उम्मीद नहीं रही। वैसे भी केजरीवाल की पार्टी का समूचा विकासक्रम सिर्फ किसी तरह आगे बढ़ने का इतिहास रहा है। याद कीजिए 2004-05 को, तब सूचना के अधिकार के अहम कार्यकर्ता के तौर पर उनका उभार हुआ था। उस वक्त उनकी प्रमुख सहयोगी अरूणा रॉय थीं। सूचना के अधिकार की मांग को लेकर अरूणा रॉय के साथ तब की बौद्धिक जमात का एक बड़ा हिस्सा था। उसमें हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष स्वर्गीय प्रभाष जोशी भी थे। सोशल मीडिया पर तो खबरें भी छायी रहीं कि 2004 में कांग्रेस की अगुआई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनने के बाद अरूणा रॉय ने अरविंद केजरीवाल की सोनिया गांधी से सिफारिश की थी कि केजरीवाल चूंकि बेहतर काम कर रहे हैं, लिहाजा उनका तबादला नहीं किया जाए। इसीलिए उनका दिल्ली से बाहर तबादला नहीं हुआ। इसके पीछे का सच चाहे जो भी हो, लेकिन तथ्य तो साफ है कि सोनिया गांधी की अगुआई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की महत्वपूर्ण सदस्य रहीं अरूणा राय से केजरीवाल का गहरा रिश्ता रहा। यह बात और है कि अब उनके आंदोलनों में अरूणा रॉय कहीं नजर नहीं आतीं।

Tuesday, March 31, 2015

पत्रों में साया सनातनी संस्कृति का तप



 मेश चतुर्वेदी
(यह समीक्षा पांचजन्य के 05 अप्रैल 2015 के अंक में संपादित करके प्रकाशित की जा चुकी है)
उदात्त भारतीय परंपराओं के बिना भारतीय संस्कृति की व्याख्या और समझ अधूरी है। सनातनी व्यवस्था अगर पांच हजार सालों से बनी और बची हुई है तो इसकी बड़ी वजह उसके अंदर सन्निहित उदात्त चेतना भी है। पश्चिम की विचारधारा पर आधारित लोकतंत्र के जरिए जब से नवजागरण और कथित आधुनिकता का जो दौर आया, उसने सबसे पहले सनातनी व्यवस्था को दकियानुसी ठहराने की की कोशिश शुरू की। सनातनी संस्कृति के पांच हजार साल के इतिहास के सामने अपेक्षाकृत बटुक उम्र वाली संस्कृतियां भी अगर हिंदू धर्म और संस्कृति पर सवाल उठाने का साहस कर पाईं तो उसके पीछे पश्चिम आधारित लोकतंत्र और आधुनिकता की अवधारणा बड़ी वजह रही। लेकिन इसी अवधारणा के दौर में एक शख्स अपनी पूरी सादगी और विनम्रता के साथ तनकर हिंदुत्व की रक्षा में खड़ा रहा। उसने अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा और कठिन तप के सहारे आधुनिकता के बहाने हिंदुत्व पर हो रहे हमलों का ना सिर्फ मुकाबला करने की जमीन तैयार की, बल्कि देवनागरी पढ़ने वाले लोगों के जरिए दुनियाभर में हिंदुत्व, सनानती व्यवस्था, सनातनी ज्ञान और उदात्त संस्कृति को प्रस्तारित करने में बड़ी भूमिका निभाई।

Tuesday, March 17, 2015

विकल्प की राजनीति के भविष्य पर चर्चा


प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और मीडिया स्टडीज ग्रुप (एमएसजी) ने मंगलवार को संयुक्त तौर पर चर्चाः विकल्प की राजनीति का भविष्य विषय पर एक कार्यक्रम का आय़ोजन किया। चर्चा का संचालन करते हुए मीडिया स्टडीज ग्रुप के अध्यक्ष अनिल चमड़िया ने कहा कि आम आदमी हमेशा अपनी राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए एक नए और मजबूत, सुदृढ़ विकल्प की तलाश करता रहा है। इसी लिहाज से आम आदमी बनाम आम आदमी पार्टी की राजनीति को देखा जाना चाहिए। लेकिन आप में प्रशांत भूषण औऱ योगेंद्र यादव को लेकर जो कुछ हो रहा है वह निराशाजनक है।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अरुण कुमार ने कहा कि वैकल्पिक राजनीति में आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक तीनों तरह के विकल्पों को शामिल किया जाना चाहिए। 1990 के बाद से भारत की नीतियों पर मल्टीनेशल का कब्जा हो गया है और आम आदमी हाशिये पर आ गया है। आम आदमी पार्टी बनी तो उसके साथ एक दस्तावेज बना जिसमें हाशिये के लोगों की बात शामिल थी लेकिन वो दस्तावेज कभी भी चर्चा के लिए सावर्जनिक नहीं किया गया। कुमार ने कहा, पार्टी को डर था कि चुनाव से पहले इसे जारी कर दिया गया तो मध्यवर्ग या कोई और तबका नाराज हो जाएगा।

Monday, March 16, 2015

चंद्रपॉल सिंह यादव एनसीयूआई के अध्यक्ष बने

उमेश चतुर्वेदी

डॉ. चंद्रपॉल सिंह यादव को सर्वसम्मति से भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एनसीयूआई) का एक बार फिर अध्यक्ष चुन लिया गया है।  डॉ यादव समाजवादी पार्टी से राज्यसभा के सदस्य हैं और लगातार दूसरी बार एनसीयूआई के अध्यक्ष निर्वाचित हुए हैं। एनसीयूआई अध्यक्ष के तौर पर उनका कार्यकाल पांच साल का होगा।

Friday, February 27, 2015

विकास की मौजूदा अवधारणा और हमारे गांव

उमेश चतुर्वेदी
(यह आलेख गोविंदाचार्य की ओर से प्रकाशित स्मारिका गांव की ओर में प्रकाशित हुआ है)
आजादी के आंदोलन के दौरान गांधीजी ने एक बड़ी बात कही थीअगर अंग्रेज यहीं रह गएउनकी बनाई व्यवस्था खत्म हो गई और भारतीय व्यवस्था लागू हो गई तो मैं समझूंगा कि स्वराज आ गया। अगर अंग्रेज चले गए और अपनी बनाई व्यवस्था ज्यों का त्यों छोड़ गए और हमने उन्हें जारी रखा तो मेरे लिए वह स्वराज नहीं होगा। विकास की मौजूदा अवधारणा में लगातार पिछड़ते गांवों, उनमें भयानक बेरोजगारी, कृषि भूमि का लगातार घटता स्तर और शस्य संस्कृति की बढ़ती क्षीणता के बीच गांधी की यह चिंता एक बार फिर याद आती है। आजादी के बाद गांधी को उनके सबसे प्रबल शिष्यों ने ना सिर्फ भुलाया, बल्कि उनकी सोच को भी तिलांजलि दे दी। गांधी को सिर्फ उनके नाम से चलने वाली संस्थाओं, राजकीय कार्यालयों की दीवारों पर टंगी तसवीरों, राजघाट और संसद जैसी जगहों के बाहर मूर्तियों तक सीमित कर दिया। उनकी सोच को भी जैसे इन मूर्तियों की ही तरह सिर्फ आस्था और प्रस्तर प्रतीकों तक ही बांध दिया गया। ऐसा नहीं कि आजादी के बाद भारतीयता और भारतीय संस्कृति पर आधारित विचारों के मुताबिक देश को बनाने और चलाने की बातें नहीं हुईं।
जयप्रकाश आंदोलन का एक मकसद गांवों को स्वायत्त बनाना और उन्हें भारतीय परंपरा में विकसित करना भी था। खुद लोहिया भी ऐसा ही मानते थे। दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद में जिस मानव की सेवा और उसे अपना मानकर उसके सर्वांगीण विकास की कल्पना है, वह एक तरह से हाशिए पर स्थित आम आदमी ही है। जिसके यहां विकास की किरणें जाने से अब तक हिचकती रही हैं। मौजूदा व्यवस्था में सिर्फ उस तक विकास की किरणें पहुंचाने का छद्म ही किया जा रहा है। गांधी के एक शिष्य जयप्रकाश भी गांधी की ही तरह भारतीयता की अवधारणा के मुताबिक गांवों के विकास के जरिए देश के विकास का सपना देखते थे। पिछली सदी के पचास के दशक के आखिरी दिनों गांधी जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी और आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जयप्रकाश को अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने का निमंत्रण दिया था। 1942 के आंदोलन के प्रखर सेनानी जयप्रकाश तब तक सक्रिय राजनीति से दूर सर्वोदय के जरिए गांवों और फिर भारत को बदलने के सपने को साकार करने की कोशिश में जुटे हुए थे। जयप्रकाश ने तब नेहरू के प्रस्ताव को विनम्रता से नकारते हुए लिखा था कि आपकी सोच उपर से नीचे तक विकास पहुंचाने में विश्वास है और मैं नीचे से उपर तक विकास की धारा का पक्षधर हूं। इसलिए मेरा आपके मंत्रिमंडल में शामिल होना ना आपके हित में होगा न ही देश के हित में। हालांकि उनके तर्क के आखिरी वाक्य पर बहस की गुंजाइश हो सकती है। क्योंकि नेहरू के विकास मॉडल का हश्र हम देख रहे हैं। न तो गांव गांव ही रह पाए हैं और ना ही शहर बन पाए हैं। यानी अगर उस मंत्रिमंडल में जयप्रकाश शामिल हुए होते तो शायद सर्वोदय के सपने के मुताबिक देश में नया बदलाव तो आया ही होता। यानी गांव अधकचरे नहीं रह पाए होते।

Monday, February 16, 2015

हस्तिनापुर में बीजेपी की करारी हार के पीछे की हकीकत

उमेश चतुर्वेदी
भारतीय लोकतंत्र की एक बड़ी कमी यह मानी जाती रही है कि यहां की बहुदलीय व्यवस्था में सबसे ज्यादा वोट पाने वाला दल या व्यक्ति ही जीता मान लिया जाता है। भले ही जमीनी स्तर पर उसे कुल वोटरों का तिहाई ही समर्थन हासिल हुआ हो। नरेंद्र मोदी की अगुआई में भारी बहुमत वाली केंद्र सरकार भी महज कुछ मतदान के तीस फीसदी वोटरों के समर्थन से ही जीत हासिल कर पाई है। इन अर्थों में दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की जीत दरअसल लोकतांत्रिक व्यवस्था की सर्वोच्च मान्यताओं की जीत है। केजरीवाल की अगुआई में मिली जीत में दिल्ली के 54 फीसदी वोटरों का समर्थन हासिल है। आधे से ज्यादा वोट हासिल करने वाली केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 90 फीसदी से ज्यादा सीट हासिल की है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह बड़ी और साफ जीत है। जाहिर है कि उनकी जीत के गुण गाए जा रहे हैं और गाए जाएंगे भी। दुनियाभर की संस्कृतियों में चढ़ते सूरज को सलाम करने और उसकी पूजा करने की एकरूप परंपरा रही है। इन अर्थों में केजरीवाल की ताजपोशी की बलैया लिया जाना कोई अनहोनी नहीं है।

Saturday, January 24, 2015

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ दिल्ली कूच

एकता परिषद का रजत जयंती समारोह
2020 में दिल्ली से जेनेवा तक की होगी जय जगत यात्रा

भूमि अधिकार के लिए 30 जनवरी को पूरे देश में रखा जाएगा उपवास
22 जनवरी से 24 जनवरी तक रायपुर के तिल्दा मैदान में चले एकता परिषद के रजत जयंती समारोह में अंतिम दिन तिल्दा घोषणा-पत्र जारी किया गया, जो एकता परिषद सहित विभिन्न जन संगठनों के लिए आगामी सालों में आंदोलन की दिशा दिखाएगा। इसके साथ ही आहवान किया गया कि आगामी 30 जनवरी को गांधी जी की शहादत दिवस पर पूरे देष में जिला एवं विकास खंड स्तर पर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को रद्द करवाने के लिए उपवास रखा जाएगा। इसमें एकता परिषद और ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा आगरा में किए गए समझौते को लागू करने की मांग भी की जाएगी। इसके लिए अगले महीने आगरा से दिल्ली तक की यात्रा कर भारत सरकार को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश रद्द करने के लिए घेरा जाएगा। सम्मेलन में शामिल लोगों ने सहमति जाहिर की कि पूरी दुनिया से गैर बराबरी खत्म कर न्याय और शांति की स्थापना तक आंदोलन चलाया जाए। इसके 2020 में दिल्ली से जेनेवा तक की 15 महीने तक की पदयात्रा (मिलेनियम वाक) आयोजित की जाएगी।


तिल्दा स्थित प्रयोग आश्रम में आगामी रणनीति की घोषणा करते हुए पी.व्ही. राजगोपाल ने एकता परिषद की 19 सदस्यीय नर्इ राष्ट्रीय समिति की भी घोषणा की। श्री रनसिंह परमार, श्री प्रदीप एवं सुश्री जानकी जी वरिष्ठ साथी के रूप में काम करेंगे, जबकि राष्ट्रीय संयोजक के रूप में श्री रमेश शर्मा, श्री अनीश कुमार एवं सुश्री श्रद्धा कश्यप दायित्वों को निभाएंगे।
श्री राजगोपाल ने कहा कि आगामी सालों में एकता परिषद को बड़ी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना है। हमें अपने-अपने क्षेत्रों में वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक वन अधिकार के लिए व्यापक स्तर पर कार्य करना है। आवासीय अधिकार कानून के तैयार मसौदे को कानून के रूप में लागू करवाने के लिए सरकार पर दबाव बनाना है। आंदोलन के माध्यम से जहां भूमिहीनों को जमीनें मिली हैं, वहां आंदोलन के रूप में जैविक खेती को बढ़ावा देना है। अगले कुछ सालों में देश के सभी जिलों में 500-500 युवाओं को प्रशिक्षित कर न्याय एवं समानता के आंदोलन का सक्रिय साथी बनाया जाएगा। एकता परिषद द्वारा 2016 में अंतराष्ट्रीय महिला सम्मेलन, 2017 में गांधीजी के चंपारण आगमन के सौ साल पूरे होने पर चंपारण वर्ष और 2018 में मार्टिन लूथर किंग की शहादत के 50वें साल में जाति, धर्म, नस्ल और लिंग भेद के खिलाफ अहिंसात्मक अर्थव्यवस्था पर अंतराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया जाएगा। ये सभी आयोजन 2020 की जय जगत यात्रा की तैयारियों के तारतम्य में किये जाएंगे। आगामी आंदोलन के लिए हम सब रोजाना एक रुपया और एक मुट्ठी अनाज संग्रह करेंगे, इसके लिए हर गांव में एक अनाज बैंक बनाया जाएगा।


कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए रनसिंह परमार ने कहा कि एकता परिषद को स्थानीय से विश्वव्यापी मुकाम तक पहुंचाने में राजगोपाल जी का नेतृत्व और हजारों साथियों के परिश्रम एवं संघर्ष का योगदान रहा है। इस अवसर पर एकता परिषद के पुराने साथियों को सम्मानित भी किया गया। मध्यप्रदेष के पूर्व मुख्य सचिव शरदचंद्र बेहार ने कहा कि समिति के नए साथियों को दायित्व दिया गया है, पर यह सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम आदिवासी, दलित, भूमिहीन एवं गरीबों को उनके अधिकार दिलाने के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लें। आज देश के विभिन्न राज्यों से आए साथी संगठनों एवं एकता परिषद के कार्यकर्ताओं ने चल रहे आंदोलन के बारे में अनुभवों को साझा किया। समारोह में देष भर से 2000 से ज्यादा कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया। अंतराष्ट्रीय स्तर पर नेपाल, थाइलैंड, जर्मनी, फ्रांस और बेलिजयम से आए प्रतिनिधियों ने संगठन के आंदोलन के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया।

Thursday, January 1, 2015

जम्मू-कश्मीर पर अस्फुट चिंतन

जम्मू-कश्मीर में पीडीपी का साथ हो या फिर नेशनल कांफ्रेंस का सहयोग, लंबी राजनीति के लिए बीजेपी को भारी पड़ना तय है। पीडीपी को घाटी में मिले वोटों के पीछे अलगाववादियों की अपील ने बड़ी भूमिका निभाई है, वहीं नेशनल कांफ्रेंस के प्रमुख नेता फारूख अब्दुल्ला मोदी को वोट देने की बजाय अपना वोट समुद्र में फेंकने की अपील करते रहे हैं। जाहिर है कि दोनों बीजेपी और उसकी नीतियों के धुर विरोधी रुख के साथ सियासी ज़मीन पर खड़े हैं। इसलिए तय है कि दोनों दलों के साथ बीजेपी के रिश्ते असहज ही रहेंगे..अगर पीडीपी के साथ पार्टी जाती है तो उस पर अलगाववादियों को नैतिक शह देने का भी आरोप लगेगा। ऐसे में बेहतर तो यही होगा कि बीजेपी विपक्ष में बैठे और अपनी नीतियों पर कायम रहते हुए राज्य में अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश करे। सरकार में शामिल होने के बाद या खुद सरकार बना कर वह राज्य की विकास नीतियों को सीधे प्रभावित तो कर सकेगी..लेकिन ठीक विपरीत विचारधारा की सवारी कर रहे दलों के साथ उसके लिए सियासी कदमताल आसान नहीं होगी..जिसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ सकता है ।

सुबह सवेरे में