Saturday, November 27, 2010

बिहार के आंकड़े भी कुछ कहते हैं

उमेश चतुर्वेदी
भारतीय राजनीति में एक बड़ी बिडंबना देखने को मिलती है। हर कामयाब राजनेता अपनी गलतियों से सीखने के बावजूद अपने पिछले प्रदर्शन को ही अपनी उपलब्धि मान बैठता है। लगातार साथ चलने वाले कथित सलाहकार और चंपू उसके स्पष्ट नजरिए को धुंधला बनाने में कुछ ज्यादा ही योगदान करते हैं। इसका खामियाजा उसे और बड़ी कीमत देकर चुकाना पड़ता है। बिहार के मौजूदा चुनाव के आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो कई और दिलचस्प निष्कर्ष भी सामने आते हैं। मौजूदा विधानसभा अभियान में एक तथ्य साफ नजर आ रहा था – नीतीश लहर का उभार। लालू प्रसाद यादव को विपक्षी नेता होने के नाते इसे नकारना ही था। लेकिन उनकी यह नकार जमीनी हकीकतों से दूर थी। दरअसल पिछले यानी 2005 के विधानसभा चुनावों के दौरान उन्हें 31.1 प्रतिशत वोट मिला था। तब रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी के साथ उनका गठबंधन नहीं था। तब पासवान की पार्टी अकेले चुनाव मैदान में थी। उस वक्त उसे 13.2 प्रतिशत वोट मिला था। जबकि जनता दल-यू और बीजेपी गठबंधन 36.2 प्रतिशत वोटों के साथ कामयाब हुआ था। लालू यादव और रामविलास पासवान को उम्मीद थी कि उनके साथ आने से उनका कुल मिलाकर वोट प्रतिशत 34.3 प्रतिशत हो जाएगा। जो बीजेपी-जेडी-यू गठबंधन के पिछले वोटों की तुलना में महज 2.8 फीसदी ही कम रहेगा। उन्हें यह भी उम्मीद रही होगी कि बटाईदारी कानून के लागू किए जाने की चर्चा से भूमिहार और ठाकुर वोटरों की नाराजगी का उन्हें फायदा मिलेगा। जिससे उनके गठबंधन के साथ कम से कम इन सवर्ण जातियों का समर्थन भी हासिल हो जाएगा। लेकिन लालू यादव यहीं पर एक चूक कर गए। उन्होंने बहुमत मिलने की हालत में खुद के मुख्यमंत्री बनाए जाने का ऐलान कर दिया। लालू यादव ऐसा करते वक्त भूल गए कि उनके पंद्रह साल के राज में उनसे अगर कोई सबसे ज्यादा नाराज रहा है तो वे सवर्ण मतदाता ही रहे हैं। उनका यह आकलन गलत रहा, क्योंकि तमाम बदलावों के बावजूद कम से कम सवर्ण मतदाता अभी-भी लालू को स्वीकार करने के मूड में नहीं है। फिर भारतीय राजनीति में यह देखा गया है कि अनुसूचित जातियों का वोट बैंक वाली पार्टियों के साथ जब भी किसी दूसरी किसी पार्टी का गठबंधन होता है तो यह वोट बैंक दूसरी पार्टी के साथ चला जाता है, लेकिन दूसरी पार्टी के वोटर अनुसूचित जातियों के साथ कम ही आते हैं। यानी रामविलास पासवान के वोटरों ने आरजेडी उम्मीदवारों के लिए वोटिंग में झिझक नहीं दिखाई, लेकिन आरजेडी के समर्थकों के लिए पासवान के उम्मीदवारों को वोट देना रास नहीं आया। नीतीश कुमार के पक्ष में सिर्फ उनका सुशासन ही नहीं रहा। बल्कि समाज के दूसरे वर्गों को भी सत्ता में मिली भागीदारी ने उनकी साख और समर्थन बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चुनाव नतीजों के विश्लेषण में कुछ तथ्यों की ओर लोगों का ध्यान नहीं जा रहा है। यह सच है कि करीब ढाई दशक बाद 2006 में बिहार में पंचायत चुनाव हुए। जिसमें महिलाओं को पचास प्रतिशत का आरक्षण दिया गया। महिलाओं को विकास और फैसले लेने की प्रक्रिया में पहली बार भागीदारी मिली। कानून-व्यवस्था की हालत सुधरने के बाद उनमें आत्मविश्वास भी जगा। दलितों में महादलित जातियों को घर बनाने की सुविधाएं और जमीन देकर नीतीश कुमार ने नया वोट बैंक भी बनाया। चूहा खाने के लिए अभिशप्त मुसहर जैसी जातियों को पहली बार घर की छत नसीब हुई। देश में पहली ग्राम कचहरी योजना की शुरूआत भी नीतीश कुमार ने ही की। इसका दोहरा फायदा हुआ। छोटे-मोटे झगड़ों के लिए गांव वालों को थाना-कचहरी के चक्कर काटने से मुक्ति मिली और न्यायमित्र के तौर पर हजारों लोगों को रोजगार भी मिला। गांवों के स्कूलों में शिक्षा मित्र के साथ ही हजारों शिक्षकों की नियुक्ति ने भी नीतीश कुमार के लिए नया वोट बैंक बनाने में मदद दी।
मौजूदा चुनाव में फिर भी दूसरी पार्टियों को 26.8 फीसद वोट मिले हैं, जिनमें सीपीआई, सीपीएम, बीएसपी समेत कई पार्टियां शामिल हैं। कांग्रेस भी 8.4 प्रतिशत वोट पाने में कामयाब रही है। यानी नीतीश के खिलाफ 52.8 फीसदी वोटिंग हुई है। इससे साफ है कि अगर पहले की तरह लालू यादव ने कांग्रेस का भी साथ लिया होता और अपनी पुरानी सहयोगी वामपंथी पार्टियों के साथ तालमेल किया होता तो उनके लिए तसवीर इतनी बुरी नहीं होती। सबसे बड़ी बात यह है कि 1990 के बाद यह पहला मौका होगा, जब लालू यादव या उनके परिवार के लिए अहम संवैधानिक स्थिति नहीं होगी। 1990 से 2005 तक उनके या उनके परिवार के पास मुख्यमंत्री या नेता विपक्ष की कुर्सी रही है। लेकिन चुनावी नतीजों ने इस बार उनसे यह अधिकार भी छीन लिया है। कायदे से नेता विपक्ष होने के लिए कुछ विधानसभा सीटों की दस फीसदी सदस्य होने चाहिए। इस हिसाब से बिहार में नेता विपक्ष की संवैधानिक कुर्सी हासिल करने के लिए आरजेडी के पास 25 विधायक होने चाहिए थे। लेकिन इस बार उनके पास महज 22 विधायक ही जीत कर आए हैं।
आखिर में : आंकड़ों की नजर में बिहार चुनाव ने कुछ नई इबारतें भी लिखी हैं। दुनिया में किसी गठबंधन की यह सबसे बड़ी जीत है। बिहार में इसके पहले 1995 में लालू यादव की अगुआई में आरजेडी ने 320 सीटों में 182 सीट जीत हासिल की थी।

Thursday, September 16, 2010

राजनीतिक दलों में सचमुच कब आएगा आंतरिक लोकतंत्र


उमेश चतुर्वेदी

सोनिया गांधी चौथी बार कांग्रेस आई की अध्यक्ष चुन ली गई हैं। कहने को तो जनप्रतिनिधित्व कानूनों के मुताबिक पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत उन्हें अध्यक्ष चुना गया है। वैसे तो उनका चुनाव महज औपचारिकता ही था। लिहाजा पार्टी में जश्न का माहौल है। उन्हें बधाईयां देने-दिलाने का दौर तेज है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करते नहीं थकते। लेकिन पश्चिमी लोकतांत्रिक समाजों की तरह यहां बड़ी पार्टियों के अध्यक्षों के चुनावों के बाद बधाईयों या समालोचनाओं की परंपरा भी नहीं है। लोकतांत्रिक समाज की पहली ही शर्त वैचारिकता और कार्यक्रम आधारित विरोध होता है। लेकिन हमारे राजनीतिक दलों की आपसी दुश्मनी इससे भी कहीं आगे की है। उनके बीच अश्पृश्यता की हद तक विरोधी होने की परंपरा है। उपर से देखने पर यही कारण नजर आता है कि जब किसी दल विशेष का नया नेता चुना जाता है तो उसे बधाई देने या उसकी समालोचना नहीं की जाती। हमारी राजनीतिक संस्कृति इसे सामने वाले दलों का आंतरिक मामला मानकर उस पर टिप्पणियां करने से बचती है। लेकिन क्या देश का शासन संभाल रही महत्वपूर्ण पार्टियों का आंतरिक चुनाव मामूली घरेलू मसला जैसा ही है। जिन अध्यक्षों और कार्यकारिणी के फैसलों पर देश के करोड़ों लोगों के भाग्य का फैसला निर्भर करता हो क्या वह सचमुच मामूली घरेलू मामला हो सकता है, अगर भारतीय राजनीति और उसके पुरोधा ऐसा मानते हैं तो उसका भगवान ही मालिक है। हालांकि बात इतनी सी नहीं है। दरअसल आज हमारे यहां जो राजनीतिक संस्कृति विकसित हो चुकी है, उसमें आम कार्यकर्ता का अपनी योग्यता और नेतृत्व क्षमता के दम पर अपनी पार्टी के सर्वोच्च पद पर पहुंचना संभव ही नहीं रहा। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस हो या फिर देश का प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी, उनके यहां कार्यकर्ताओं की भूमिका महज दरी बिछाने और पानी पिलाने तक ही सीमित हो गई है। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसी परिवार आधारित पार्टियों की तो बात ही छोड़ देनी चाहिए, जो पारिवारिक लिमिटेड कंपनियों की तरह चलती हैं। यही वजह है कि जब सोनिया गांधी अध्यक्ष बनती हैं तो भारतीय जनता पार्टी प्रतिक्रिया देने से बचती है और जब नितिन गडकरी सारे वरिष्ठों को दरकिनार करके अध्यक्ष पद की कुर्सी पर काबिज किए जाते हैं तो कांग्रेस को यह घटना प्रतिक्रिया के लायक नहीं लगती।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का पूरा विकास चूंकि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के साथ हुआ है, इसलिए उससे लोकतांत्रिक परंपराओं की उम्मीद कुछ ज्यादा ही की जाती है। आजादी का सपना और आजादी के बाद के लोकतांत्रिक समाज के निर्माण की रूप रेखा कांग्रेस की अगुआई में ही देश ने देखा था। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि आजादी के बाद उसी कांग्रेस में चुने हुए पहले अध्यक्ष सीताराम केसरी थे। जिन्हें पहले तो कांग्रेस ने मजबूरी में कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया और बाद में बाकायदा वे अध्यक्ष चुने गए। कांग्रेस के शुभचिंतकों की नजर में केसरी ने हो सकता है कांग्रेस का खास भला न किया हो, देवेगौड़ा के मुताबिक वे प्रधानमंत्री बनने की हड़बड़ी में भी थे। सबसे बड़ी पार्टी का अध्यक्ष बनते ही उनके मन में ऐसी अभीप्सा जागना संभव भी था। लेकिन उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि वे चुने हुए अध्यक्ष थे। लेकिन 1998 में कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन में उस अर्जुन सिंह की पहल पर उन्हें अध्यक्ष पद से हटा दिया गया, जो खुद पीवी नरसिंह राव के चलते कांग्रेस से बाहर हो चुके थे और उन्हें केसरी ने ही कांग्रेस में प्रवेश कराया था। रामशरण जोशी की किताब 'अर्जुन सिंह : एक सहयात्री इतिहास का' में अर्जुन सिंह की इन कोशिशों का विस्तार से वर्णन किया गया है। सोनिया गांधी तब से कांग्रेस से अध्यक्ष हैं। हां उनके पहले औपचारिक चुनाव में उत्तर प्रदेश के कांग्रेस नेता जितेंद्र प्रसाद और दूसरे चुनाव में राजेश पायलट ने जरूर ताल ठोंका था। लेकिन वे खेत रहे थे।
भारतीय राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद का आरोप लगाने वाले बहुत हैं। लेकिन सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद यह सवाल गौड़ हो जाता है। हां, रस्मी तौर पर रविशंकर प्रसाद ने इस चुनाव पर सवाल जरूर उठाया। कांग्रेस से भीतर इस पर सवाल उठने की गुंजाइश तो आज की राजनीतिक संस्कृति ने छोड़ी ही नहीं है। राजनीतिक कार्यकर्ता तो सिर्फ कृतकृत्य भयऊं गोसाईं की तर्ज पर ताली बजाने और आनंदित होने में ही गर्व का अनुभव करता है। लेकिन इससे यह सवाल गौड़ नहीं हो जाता कि कांग्रेस को अपना अध्यक्ष गांधी-नेहरू परिवार से बाहर क्यों नहीं मिलता। क्यों नहीं उसे अब कोई पुरूषोत्तम दास टंडन, पट्टाभि सीतारमैया, के कामराज जैसा आम कार्यकर्ता अध्यक्ष बनने और पार्टी की कमान संभालने योग्य नहीं लगता।
दरअसल आज गांधी और नेहरू परिवार कांग्रेस की ताकत और कमजोरी दोनों ही बन गया है। हाल के वर्षों में जब-जब कांग्रेस की कमान गांधी-नेहरू परिवार से बाहर गई है, कांग्रेस में बिखराव आया है। वह कमजोर भी हुई है। इसका फायदा गांधी-नेहरू परिवार के उत्तराधिकारियों को भी अपना राजनीतिक रसूख बनाने में मिलता है। राहुल गांधी जगह-जगह कहते फिरते हैं कि उनके नाम के आगे गांधी लगे होने के चलते उन्हें काफी फायदा मिला है। अपनी जनता का लगाव देखिए कि उसे भी गांधी-नेहरू परिवार ही ज्यादा अच्छा लगता है। लिहाजा जब कांग्रेस की कमान इस परिवार के हाथ में रहती है तो वह उस कांग्रेस के हाथ का साथ देने के लिए अपनी उंगलियों से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की ओर बढ़ा देती है, लेकिन जैसे ही कांग्रेस की अगुआई इस परिवार से बाहर जाती है, जनता की उंगलियां भी जैसे कांग्रेस के हाथ से दूर जाने लगती है। उसे देश के तारनहार के तौर पर सिर्फ गांधी-नेहरू परिवार ही नजर आता है। सोनिया गांधी को इसका श्रेय जरूर जाता है कि उन्होंने शिथिल हो चुकी कांग्रेस की रगों में नई जान फूंकी और उसे दोबारा सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचाया।
आज की राजनीति का सबसे बड़ा साध्य सत्ता हो गई है। राजनीतिक ताकत का आकलन सत्ता तक पहुंच से ही लगाया जाता है। यही वजह है कि आज नैतिक ताकत की सत्ता कमजोर हुई है। फिर सत्ता तक आम कार्यकर्ता की पहुंच भी लगातार कम हुई है। लिहाजा आम लोगों के लिए असल में सोचने वाली ताकतों की सत्ता तक पहुंच लगातार कम हुई है। इसका असर है कि आज आम आदमी हाशिए पर है। मजे की बात यह है कि हाशिए के लोगों की जब भी आवाज उठाई जाती है, उसका मकसद दूरंदेशी राजनीतिक विकास नहीं होता, बल्कि फौरी राजनीतिक फायदा उठाना होता है। सोनिया गांधी का अध्यक्ष बनना कांग्रेस के लिए फौरी फायदे का सौदा भले ही हो, लेकिन यह तय है कि यह उसी राजनीतिक संस्कृति को ही पुष्ट कर रहा है, जिसमें आम आदमी की भारतीय गणतंत्र में असल भागीदारी कम होती जाएगी। कांग्रेस का दावा है कि राहुल गांधी आजकल कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र बहाली की कोशिशों में जुटे हैं। कांग्रेस में यह लोकतंत्र बहाली तभी सफल मानी जाएगी, जब पार्टी के शीर्ष पद पर कोई आम कार्यकर्ता अपनी राजनीतिक क्षमता के दम पर पहुंच पाएगा। निश्चित तौर पर यह दूसरे दलों के लिए नजीर साबित होगा।

Sunday, August 1, 2010

साहित्यिकों से दो बातें

उमेश चतुर्वेदी
(रूसी विचारक प्रिंस क्रोपाटकिन से क्षमा सहित, जिनकी एक किताब का शीर्षक ही है –नवयुवकों से दो बातें )
महान कथाकार प्रेमचंद की कल जयंती बीत गई। मेरे जेहन में उनका जयशंकर प्रसाद के साथ खिंचवाई एक तसवीर ताजा हो गई है। इस तसवीर में कामायनी के रचयिता महाकवि प्रसाद धीर-गंभीर मुद्रा में खड़े हैं। लेकिन उनके साथ खड़े उपन्यास सम्राट की भंगिमा बिलकुल अलग है। उपन्यास सम्राट के फटे जूते से पैरों की अनामिका उंगली किंचित झांकती सी नजर आ रही है। प्रसाद जी की गंभीरता से ठीक उलट प्रेमचंद के स्मित होठ इससे बेपरवाह नजर आ रहे हैं। इस तसवीर के याद आने की अपनी वजह भी है। प्रेमचंद की यह भावमुद्रा दरअसल उनकी मनोदशा का प्रतीक भी है। प्रेमचंद आज भी नए-पुराने लेखकों से कहीं ज्यादा लोकप्रिय हैं। हिंदीभाषी इलाके में अगर लोकप्रियता के मामले में उनसे तुलसीदास ही भारी पड़ सकते हैं। उनकी भी जयंती आने ही वाली है। दोनों की भावभूमि भले ही अलग हो, लेकिन दोनों कम से कम एक मामले में समान हैं। जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता और पहचान दूसरे लेखकों और कवियों से कोसों आगे है। दोनों की रचनाएं आज जिंदगी के कठिन मोड़ों पर नई राह दिखाने के लिए बतौर उदाहरण के तौर पर भी पेश की जातीं हैं। लोक और अपने समय के साथ जुड़े होने के चलते आम जीवन में उनकी पैठ का इससे बड़ा कोई उदाहरण नहीं हो सकता। दैनंदिन जिंदगी में ऐसे अक्सर अनचाहे मौके आ जाते हैं, जब राह कठिन लगने लगती है। कई बार तो राह सूझती भी नहीं। निराशा के गहरे गर्त में डूबते ऐसे पलों में तुलसी और प्रेमचंद की रचनाएं राह दिखाती नजर आती हैं।
किसी साहित्यिक और उसके साहित्य की लोकप्रियता का इससे बेहतरीन उदाहरण क्या होगा। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि आज कम से कम हिंदी साहित्य की दुनिया में लोकप्रियता शब्द उपेक्षा का पात्र है। आज अगर कोई लोकप्रिय है तो उसका मतलब यही लगा लिया जाता है कि वह बाजारू है। आज बाजार के बिना एक कदम आगे बढ़ना मुश्किल है, लेकिन बाजार के साथ अगर आप कदमताल मिलाने लगते हैं तो आप बाजारू बन जाते हैं। हालांकि बाजारूपन कहीं ज्यादा सतही भाव लिए हुए है। लेकिन यह कहां की बात हो गई कि आप लोकप्रिय हो गए तो बाजारू हो गए। लेकिन हिंदी का साहित्यिक समाज आज इसी विरोधाभास को लेकर जी रहा है। इन्हीं विरोधाभासों के ही चलते गुलशन नंदा, रानू , वेदप्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक, जैसे लुगदी साहित्यकार बाजारू हैं। यह बात दीगर है कि उनकी कई लुगदी रचनाएं रेलवे स्टेशनों की किताबों की दुकानों की श्रृंखला एच ह्वीलर के जरिए सामान्य पाठकों की पहली पसंद रहीं हैं। उन पर लोकप्रिय फिल्में और टेलीविजन सीरियल तक बन चुके हैं। लोगों ने उन्हें पसंद भी किया, लेकिन ये रचनाएं क्लासिक का दर्जा नहीं पा सकीं। खैर यह अलग बहस का विषय है। एक बार फिर लौटते हैं प्रसाद और प्रेमचंद की तसवीर पर। यह तसवीर दो लोगों की मनोदशा के साथ ही हिंदी की हकीकत को भी बयां करती हैं। प्रेमचंद अगर लोकप्रिय हैं तो इसकी एक बड़ी वजह जनता से उनका जुड़ाव भी है। वे हमेशा लोगों से जुड़े रहे। हाल ही में सोजे वतन की जब्ती को लेकर उनका संस्मरण पढ़ने का मौका मिला। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा की पत्रिका पुस्तक वार्ता के एक अंक में छपे इस संस्मरण में उन्होंने सोजे वतन की जब्ती और इसे नौकरी की दुश्वारियों की चर्चा की है। इस चर्चा का लब्बोलुआब यह है कि उन दिनों में भी उन्होंने जनता से अपने जुड़ाव को नहीं तोड़ा था।
हिंदी में इन दिनों प्रगतिशील और जनवादी होने का दावा करने वाले लोगों की अच्छी-खासी संख्या रचनारत है। लेकिन सही मायने में आमलोगों से उनका जुड़ाव कम ही है। यही वजह है कि उनके बगल वाला भी नहीं जानता कि वे कितने बड़े और महत्वपूर्ण लेखक और रचनाकार हैं। बड़े-बड़े लेखकों की मौत के बाद प्रकाशित होने वाले रिपोर्ताजों में अक्सर इस बात का जिक्र होता है कि उन्हें तो बगल वाले ही नहीं जानते। इस बहाने हिंदी वालों की लानत-मलामत भी खूब की जाती है कि हाय देखो, हिंदीभाषी लोग कितने कुसंस्कारी हैं। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि हमारे साहित्यिक सही मायने में उस गली की समस्या के निदान से भी दूर भागते हैं, जिसमें वे रहते हैं। अगर निदान के लिए वे जुड़ना भी चाहते हैं तो उनका लहजा विशिष्टता का भाव लिए होता है। ऐसे में जनता भला कैसे उनसे जुड़ सकती है और जुड़ेगी नहीं तो उनके लेखन से वाकिफ कैसे होगी। मराठी के ग्रंथाली आंदोलन की खूब चर्चा की जाती है। ग्रंथाली के जरिए मराठी लेखकों ने अपने साहित्य को जनता के बीच ले जाने का उपक्रम शुरू किया था। उनके लिए राहत की बात यह है कि जिन दिनों यह आंदोलन शुरू हुआ, संयोग से बाजारवाद और उदारीकरण नहीं था। लिहाजा वे बाजारू होने के आरोप से बचे रह सके। ग्रंथाली का एक मकसद आम लोगों की समस्याओं से रूबरू भी होना था। मराठी का लेखक अपने पाठकों के दैनंदिन जीवन की समस्याओं से भी रूबरू होता है। उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहता है। यही वजह है कि वहां का पाठक अपने साहित्यिकों को सीधे जानता है।
ऐसा नहीं कि हिंदी में ऐसा नहीं हो सकता। नई पीढ़ी में ऐसे साहित्यिक आ रहे हैं जो दैनंदिन जीवन की समस्याओं से रूबरू होने और लोगों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़े होने से नहीं झिझकते। लेकिन जरूरत इस बात की है कि इस चलन को आम बनाया जाय। तभी जनता हमारे साहित्यिकों से ना सिर्फ जुड़ पाएगी, बल्कि उनकी रचनाओं से भी खुद को जुड़ा महसूस कर पाएगी।

Friday, July 2, 2010

ढक्कन वाली पीढ़ी और साहित्य का संस्कार


उमेश चतुर्वेदी
बहुत खुशनसीब वे होते हैं, जिनकी जिंदगी की तय खांचे और योजना के मुताबिक चलती है। लेकिन आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी ने अपने बच्चों तक की जिंदगी के लिए खांचे तय कर रखे हैं और इसी खांचे के तहत जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़ रही है। मनोवैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री भले ही इस चलन को गलत बताते रहें, थ्री इडियट जैसी फिल्में भी इसकी आलोचना करती रहें, लेकिन उदारीकरण के बाद आई भौतिकवाद की आंधी और उसमें कठिन और कठोर हुई जिंदगी की पथरीली राह पर चलते वक्त आज की जवान होती पीढ़ी के लोग सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि काश उनके भी माता-पिता ने उनकी जिंदगी का खांचा तय कर दिया होता ...
बहरहाल अपनी जिंदगी भी ऐसी खुशनसीबी के पड़ावों से नहीं गुजरी। जिस वक्त जिंदगी तय करने का वक्त था, पढ़ाई के उस दौर में रोजाना ट्रेन की घंटों की यात्रा करना मजबूरी थी। घर से कॉलेज की दूरी जो ज्यादा थी। लेकिन इस अनखांचे की जिंदगी ने खुदबखुद एक खांचा दे दिया। तब ट्रेन की लंबी यात्रा काटने के लिए किताबों और पत्रिकाओं का सहारा लेना शुरू किया और देखते ही देखते किताबें और पत्रिकाएं जिंदगी की पथरीली राह पर सहारा तो बन ही गईं, जिंदगी को देखने का नया नजरिया भी देने लगीं। किताबों की दुनिया से लोगों को परिचित कराने में ट्रेनों की बड़ी भूमिका रही है। मशहूर पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि रेल यात्राओं का एक बड़ा फायदा उनकी जिंदगी में यह रहा है कि इसी दौरान उन्होंने कई अहम किताबें पढ़ लीं। रेल यात्रियों के मनोरंजन में किताबों की जो भूमिका रही है, उसमें एक बड़ा हाथ एएच ह्वीलर बुक कंपनी और सर्वोदय पुस्तक भंडार जैसे स्टॉल का भी रहा है। यह भी सच है कि इन स्टॉल्स से गंभीर साहित्य की तुलना में इब्ने सफी और कुशवाहा कांत के साथ गुलशन नंदा, रानू, सुरेंद्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा जैसे लुगदी साहित्यकार ज्यादा बिकते रहे हैं। यहां पाठकों की जानकारी के लिए बता देना जरूरी है कि इन साहित्यकारों को लुगदी साहित्यकार क्यों कहा जाता है। दरअसल इनकी रचनाएं जिस कागज पर छपा करती थीं, वह कागज अखबारी कचरे और किताबों के कबाड़ की लुगदी बनाकर दोबारा तैयार किया जाता था। बहरहाल इसी लुगदी साहित्य के बीच ही गोदान, गबन से लेकर चित्रलेखा तक पढ़ने वाले पाठक भी मिल जाते थे। इसके साथ ही पाठकीयता का एक नया संसार लगातार रचा-बनाया जाता था। ट्रेन में बैठने की जगह मिली नहीं कि किताब या पत्रिका झोले से निकाली और अपनी दुनिया में डूब गए।
लेकिन आज हालात बदल गए हैं। तकनीकी क्रांति ने आज की पीढ़ी के हाथ में मोबाइल के तौर पर नन्हा-मुन्ना कंप्यूटर ही दे दिया है। मोबाइल फोन सचमुच में जादू का पिटारा है। बीएसएनएल की मोबाइल फोन सेवा का 2003 में उद्घाटन करते वक्त तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे पंडोरा बॉक्स ही कहा था। तो इस जादुई बॉक्स ने संगीत और एफएम का जबर्दस्त सौगात दे दिया है। आज की पीढ़ी इसका हेडफोन साथ लेकर चलती है और गाड़ी या बस में जैसे ही मौका मिला, हेड फोन कान में लगाती है और दीन-दुनिया से बेखबर संगीत की अपनी दुनिया में डूब जाती है। मेरे के मित्र हैं, वे इस पीढ़ी को ढक्कन वाली पीढ़ी कहते हैं। आपने होमियोपैथिक दवाओं की पुरानी शीशियां देखी होंगी। कार्क लगाकर उन्हें बंद किया जाता था। आज के हेडफोन कुछ वैसे ही कान में कार्क की तरह फिट हो जाते हैं, जैसे पहले ढक्कन लगाए जाते थे। जाहिर है कि ढक्कन वाली इस पीढ़ी से रेल और बस यात्राओं के दौरान पढ़े जाने का जो रिवाज रहा है, वह लगातार छीजता जा रहा है। आज की पीढ़ी के हाथ में पत्रिकाएं और किताबें कम ही दिखती हैं। लेकिन नई-नई सुविधाओं वाले गजट उनके हाथ में जरूर हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव मोहन प्रकाश जैसे नेता कहा करते हैं कि जब वे पढ़ाई करते थे, उस वक्त अगर दिनमान में उनकी चिट्ठी भी छप जाती थी तो वे पूरी यूनिवर्सिटी में गर्व से उसे लेकर अपने बगल में दबाए घूमा करते थे। वैसे भी दिनमान और धर्मयुग पढ़ना उस समय शान की बात मानी जाती थी। लेकिन आज की पीढ़ी के लिए नए गजट ही शान के प्रतीक हैं। जाहिर है कि सोच में आए इस बदलाव का असर भी दिख रहा है। चूंकि पाठकीयता नहीं है, उसका संस्कार नहीं है तो आप देखेंगे कि आज की पीढ़ी के ज्यादातर लोगों को सामान्य ज्ञान की सामान्य सी जानकारी भी नहीं है। इसका दर्शन यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में पढ़ाने वाले अध्यापकों-प्रोफेसरों को रोजाना हो रहा है। कई बार तो वे माथा तक पीटने के लिए मजबूर हो जाते हैं। लेकिन क्या मजाल कि ढक्कन वाली पीढ़ी के माथे पर शिकन तक आ जाए। हो सकता है बदले में आपको यह भी सुनने को मिले- इट्स ओके...सब चलता है यार...
तो क्या किताबें मर जाएंगी ...क्या नए गजट की दुनिया उन्हें खा जाएगी...यहां पर याद आता है मशहूर अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन का कथन। उन्होंने कहा था – दुनिया जैसी भी है, चलती रहेगी। फिर हम भी उम्मीद क्यों न बनाए रखें।

Sunday, June 27, 2010

बाजी जीत पाएंगे नीतीश कुमार


उमेश चतुर्वेदी
पिछले यानी 2009 के आम चुनावों के आखिरी दौर के मतदान के ठीक बाद कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने जब नीतीश कुमार की प्रशंसा की थी, भारतीय जनता पार्टी से उनके अलगाव का अंदेशा उसी दिन लगाया जाने लगा था। यह बात और है कि जिस फोटो वाले विज्ञापन के नाम पर नीतीश कुमार नाराज होने का स्वांग कर रहे हैं, नरेंद्र मोदी के साथ हंसता हुआ वह फोटो उन्होंने पिछले आम चुनाव में एनडीए की लुधियाना रैली में खिंचवाए थे। उस वक्त यह माना गया था कि नीतीश कुमार के चेहरे पर जो मुस्कान थी, वह असली थी। लेकिन 12 जून को पटना में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान उनकी इस मुस्कान की असलियत सामने आने लगी है।
गुजरात के पांच करोड़ रूपए की सहायता को वापस करने के नीतीश के फैसले से दो तरह के सवाल उठते हैं। एक सवाल राजनीतिक है, जिसे लेकर इन दिनों जमकर हो-हल्ला मचा है। लेकिन दूसरा सवाल भारतीयता से जुड़ा है। जिस समाजवादी विचारधारामें पल-पोसकर नीतीश कुमार आगे बढ़े हैं, जिस किशन पटनायक की अगुआई में उन्हें समाजवादी राजनीति की दीक्षा मिली है, उन सबकी सोच में भारतीयता ओतप्रोत थी। उनके लिए भारत के हर कोने का नागरिक एक समान था और डॉक्टर लोहिया से लेकर जयप्रकाश नारायण रहे हों या फिर किशन पटनायक, सबका मानना था कि पूरे देश के नागरिक को देश के हर इलाके में आने-जाने और रहने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। उनकी इस सोच का मतलब साफ था कि इससे भारतीय गणराज्य का नागरिक सही मायने में पूरे भारत को अपना मान सकेगा और क्षेत्रीयता की धारणा से उपर उठ सकेगा। कोसी में आई बाढ़ के बाद अगर गुजरात ने मदद की थी तो इसलिए नहीं कि दोनों ही राज्यों में एनडीए की सरकारें हैं, बल्कि इसलिए कि गुजरात का नागरिक भी हजारों किलोमीटर दूर अलग भाषा वाले बिहार के नागरिक के दुख को भी अपना समझ रहा था। अगर उसके मन में क्षेत्रीयता की धारणा रही होती तो वह कोसी के बाढ़ पीड़ितों के लिए आगे नहीं आता। यही बात गुजरात के लोगों पर भी लागू होती है। गुजरात में जब 2001 में भयानक सूखा पड़ा या 2002 में भारी भूकंप आया, उसमें पूरे देश ने यह सोचा होता कि वहां एक सांप्रदायिक सरकार काम कर रही है तो शायद ही सहायता मुहैया कराने में आगे रहा होता। दरअसल ऐसी सहायताएं मानवीय त्रासदी से उपजी भावनाओं की वजह से दी जाती हैं। वहां जाति-धर्म या क्षेत्रीयता की समस्याएं नहीं होतीं। अगर ऐसा ही होता तो पाकिस्तान के भूकंप पीड़ितों या बांग्लादेश के बाढ़ पीड़ितों के लिए भी भारतीय नागरिक आगे नहीं आते। नीतीश कुमार ने मुस्कुराते हुए अपने फोटो को छापने के खिलाफ गुजरात को जो जवाब दिया है, वह अतिवादी जवाब है और जिस मुस्लिम वोट की खातिर उन्होंने यह कदम उठाया है, वह भी इसे शायद ही जायज ठहराए। क्योंकि मुस्लिम नागरिक भी मानता है कि यह सहायता सांप्रदायिक नरेंद्र मोदी ने अपने घर से नहीं दी थी, बल्कि गुजरात के उन नागरिकों ने दी थी, जो बिहार के दर्द के साथ खुद को भी जुड़ा महसूस कर रहे थे। अगर ऐसे सवाल उठने लगे तो इसका जवाब देना नीतीश कुमार और उनके जनता दल यू के नेताओं को देना भारी पड़ सकता है।
रही बात राजनीतिक सवाल की, तो यह माना जा रहा है कि नीतीश कुमार ने गुजरात के पैसे को वापस इसलिए वापस भेजा है, ताकि बिहार के करीब बारह फीसदी मतदाताओं को खुश किया जा सके। नीतीश कुमार ने अपने शासन काल में निश्चित तौर पर व्यवस्था में एक हद तक बदलाव लाने की कामयाब कोशिश की है। उसका फायदा जितना उनकी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी को मिलना चाहिए था, उतना उसे नहीं मिला। बल्कि नीतीश कुमार अकेले हासिल करने में कामयाब रहे। बीजेपी से गठबंधन की वजह से नीतीश कुमार को पिछले यानी 2005 के विधानसभा चुनाव में खासी कामयाबी मिली। दरअसल कुशासन और एक खास वर्ग के लोगों को शासन-सत्ता में भागीदारी की वजह से बिहार की अधिकांश जनसंख्या नाराज थी। उसने जितना बीजेपी-जेडीयू गठबंधन को साथ नहीं दिया, उससे कहीं ज्यादा लालू के खिलाफ वोट डाला। जिसमें कुशवाहा-कुर्मी के साथ अगड़े वर्ग के वोटरों का भरपूर साथ मिला। यहां ध्यान देने की बात है कि बिहार में मुसलमान करीब बारह फीसदी हैं। ब्राह्मण, भूमिहार, क्षत्रिय और कायस्थ मिलकर करीब चौदह फीसदी हैं। इसी तरह कुर्मी और कुशवाहा मिलकर करीब बारह फीसदी हैं। नीतीश कुमार को लगता है कि जातीय गणित में कुर्मी-कुशवाहा के साथ महादलितों का करीब दस फीसदी वोट के साथ मुस्लिमों का बारह फीसदी वोट मिल जाए तो उन्हें बीजेपी की जरूरत नहीं रहेगी। वैसे भी बटाईदारी पर बनी कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का शिगूफा छोड़ने के बाद वैसे ही अगड़ा वर्ग उनसे नाराज चल रहा है। इसलिए उन्हें लगता है कि कुर्मी-कुशवाहा और महादलितों के साथ मुसलमानों का वोट मिल गया तो समझो अगले कई साल तक कुर्सी पक्की। पढ़ाई-लिखाई से इंजीनियर नीतीश कुमार ने यही गणित लगाकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। लेकिन वे यह भूल गए हैं कि राजनीति की दुनिया में दो जमा दो का गणित चार नहीं कई बार तीन और एक भी हो जाता है। खुद उनके भी राजनीतिक जीवन में ऐसा 1995 में हो चुका है।
इसे जानने के लिए नीतीश कुमार की मूल पार्टी समता पार्टी के गठन और 1995 के विधानसभा चुनावों में मिली सफलता को भी देखना होगा। 1994 में वीपी सिंह ने राजनीति से सन्यास लेकर लोकसभा में पार्टी के नेता पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद जार्ज फर्नांडिस ही जनता दल संसदीय दल के स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे। लेकिन आज के जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने जोड़तोड़ करके खुद को संसदीय दल का नेता घोषित करा लिया था। इससे जार्ज आहत थे। इस बीच बिहार की राजनीति में लालू यादव नीतीश कुमार को अलग-थलग कर रहे थे। तभी जार्ज और नीतीश ने मिलकर जनता दल से अलग समता पार्टी बनाई और 1995 के विधानसभा चुनावों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, सीपीएम – माले और ऐसे ही दलों के साथ सीटों का तालमेल करके चुनाव लड़ा। लेकिन चुनाव नतीजों के बाद समता पार्टी के विधायक दहाई का भी आंकड़ा नहीं पार कर पाए। इसके बाद उन्हें लालू जैसे कद्दावर विरोधी को मात देने के लिए सांप्रदायिकता का ही कंधा नजर आया था। इतना ही नहीं, तब समाजवादी जनता पार्टी चला रहे चंद्रशेखर भी समता पार्टी में अपनी पार्टी के विलय को तैयार थे। इसी बीच 1996 का लोकसभा चुनाव आ गया और शिवसेना के बाद भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी बनने वाला दूसरा दल समता पार्टी ही बना। जिसका उसे फायदा भी मिला। उसके बाद से नीतीश कुमार और उनकी पार्टी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्हें 2000 में मुख्यमंत्री बनाने का अभियान उनकी पार्टी से कहीं ज्यादा भारतीय जनता पार्टी ने ही चलाया। 2005 के विधानसभा चुनावों में उन्हें बतौर मुख्यमंत्री भारतीय जनता पार्टी के तब के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने ही प्रोजेक्ट किया था। जबकि इस अपनी पार्टी के इस फैसले से बीजेपी नेता शत्रुघ्न सिन्हा नाराज थे। कहना न होगा कि उनकी नाराजगी अब भी बनी हुई है।
जाहिर है कि 1995 का इतिहास और चुनावी सफलता नीतीश के खिलाफ रही है। इतिहास गवाह है कि अगर बीजेपी का उन्हें साथ नहीं मिला होता तो वे आज जहां हैं, वहां नहीं होते। वैसे भी राजनीति का आज पहला उसूल हो गया है सिद्धांतों की तिलांजलि देना। यही वजह है कि आज गठबंधन बनने और बिखरने का दौर बढ़ गया है। लेकिन बिहार के जो हालात हैं और जनता दल यू की भी जो अंदरूनी हालत है, उसमें नीतीश के अतिवादी कदम उन्हें भारी ही पड़ सकते हैं। उनकी पार्टी के एक कद्दावर नेता ने नाम न छापने की शर्त पर इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि अफसरशाही पर पार्टी की कोई लगाम ही नहीं है। इससे अधिकांश नेता नाराज हैं। नाराज तो विधायक भी हैं। इसलिए अगर एक बार उनके खिलाफ विरोधी माहौल शुरू हुआ तो उनकी अपनी ही पार्टी के लोग उनके खिलाफ खड़े होने में देर नहीं लगाएंगे। प्रभुनाथ सिंह, शंभूनाथ श्रीवास्तव, राजीव रंजन सिंह लल्लन और रह-रह कर शिवानंद तिवारी के गुस्से के इजहार को इन्हीं अर्थों में जोड़कर देखा जाना चाहिए। इससे साफ है कि सत्ता की ताकत के चलते जनता दल यू के विधायक और सांसद भले ही चुप हों, लेकिन विरोधी माहौल बनने के बाद वे अपनी खुन्नस निकालने से बाज नहीं आएंगे। ऐसे में नीतीश कुमार के लिए अकेले खड़ा हो पाना आसान नहीं होगा। फिर जिस कांग्रेस के सहारे बिहार में नीतीश कुमार की अगली सरकार की कल्पना की जा रही है, उसका लिटमस टेस्ट अभी होना बाकी है। उसे लगता है कि उसके साथ जनता आ रही है। लेकिन जिस तरह बीजेपी आहत हुई है, अगर वह अपने कार्यकर्ताओं और वोटरों को यह संदेश देने में कामयाब हुई तो बिहार में भी कर्नाटक दोहराया जा सकता है। वहां जनता दल सेक्युलर के साथ बीजेपी का गठबंधन था और वक्त आने पर जब जेडी एस ने सत्ता देने से इनकार कर दिया तो दक्षिण में कमल खिल उठा था। जनता के बीच बीजेपी के पक्ष में सहानुभूति लहर चल पड़ी थी।
राजनीति संभावनाओं और आशंकाओं का खेल है। अगर बीजेपी की यह संभावना और जनता दल यू की ऐसी आशंका सच साबित हो गई तो बाजी पलटते देर नहीं लगेगी।

Tuesday, June 22, 2010

प्रशासनिक उदासीनता और खतरे से खेलने की मजबूरी


उमेश चतुर्वेदी
पूर्वी उत्तर प्रदेश में जेठ की तपती दोपहरी में सूरज देवता के अलावा बलिया के नाव हादसे ने भी लोगों को बेचैन किए रखा। राजनीतिक चर्चाओं के लिए मशहूर पूर्वी उत्तर प्रदेश के चट्टी-चौराहों में इस बार नाव दुर्घटना ही कहीं ज्यादा प्रमुख स्थान बनाए हुए है। बिजली की मार झेल रहे लोगों के पास भले ही दिल्ली-मुंबई की तरह खबरिया चैनलों की दिन-रात की खबरिया बमबारी झेलने की सुविधा भले ही मौजूद नहीं है, लेकिन प्रमुख अखबारों की बाढ़ ने इस इलाके के लोगों को स्थानीय सूचनाओं से लैस जरूर कर दिया है। जिसकी वजह से नौका दुर्घटना को लेकर लोगों का गुस्सा शांत होने का नाम नहीं ले रहा है। ऐसे हादसों के बाद आमतौर पर प्रशासनिक खामियां ही सामने आती हैं। 14 जून को बलिया में गंगा समाधि लेने के लिए मजबूर हुए 62 लोगों की खबर के बाद भी ये खामियां सामने आईं हैं। हादसे के बाद जिलाधिकारी का फौरन घटना स्थल पर पहुंचना और उनके मातहत अधिकारियों का बाद में आना मामूली घटना नहीं है, बल्कि इससे जाहिर होता है कि यूपीएससी और राज्य सिविल सेवाओं के जरिए जो कथित प्रतिभाएं प्रशासन चलाने के लिए आ रही हैं, उनके मानवीय सरोकार क्या हैं।
यह सच है कि पारंपरिकता के खांचे में सदियों से पलते -बढ़ते समाज में लोगों का गंगा से सरोकारी नाता आज भी बना हुआ है। यही वजह है कि तिथि-सुदिन पर पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार के गंगा किनारे के लोग अपने बच्चों का मुंडन संस्कार गंगा के ही किनारे करते रहे हैं। इसी दौरान गंगा को माला पहनाने की भी परंपरा है। जिसके तहत लोग लंबी रस्सियों में बनी आम के पल्लव की माला लेकर गंगा की पेटी को नापते हैं। इसीलिए नावें किराए पर ली जाती हैं। कहना न होगा कि समय के साथ इस संस्कार में बढ़ती पैसे की भूमिका को लेकर नाविकों भी मुंडन की तिथियों का बेसब्री से इंतजार करते हैं। इन्हीं दिनों उनकी भारी कमाई होती है। कमाई के चक्कर में वे क्षमता से अधिक अपनी नावों में लोगों को भर लेते हैं। आमतौर पर जुगाड़ बाजी का ये खेल और कमाई का यह सिलसिला सफल रहता है। लेकिन कभी-कभी बाजी पलट जाती है तो 14 जून जैसे हादसे सामने आ जाते हैं। तब प्रशासनिक अमला खामियां दुरूस्त करने में जुट जाता है। लेकिन जैसे-जैसे इन खबरों की स्मृति पर परतें चढ़ती जाती हैं, प्रशासन भी अपने काम में जुट जाता है और नाविक अपनी कमाई में। अगर ऐसा नहीं होता तो साढ़े चार साल पहले हुए हादसे से प्रशासन और मल्लाह कोई सबक सीखते। बलिया के ही इसी नाव हादसे में 46 लोगों की जान गई थी। जिसमें से चार लोगों की लाशें अब तक नहीं मिल पाई है। दो हजार छह में कोसी में पूरी की पूरी नाव ही पलट गई थी, जिसमें तीस लोगों की जलसमाधि बन गई थी। 2006 में हरियाणा के बल्लभगढ़ में काम पर से लौट रहे लोगों की नाव यमुना में पलट गई थी। जिसमें तीस से ज्यादा लोग मारे गए थे। अभी पिछले ही महीने होशंगाबाद के पास नर्मदा में नाव दुर्घटना में भी कई लोग अकाल ही मौत के मुंह में समा गए।
इन सभी हादसों में एक ही चीज सामने आई, वह यह कि नाव की क्षमता से ज्यादा लोगों को नाविकों ने कमाई के लालच में चढ़ा लिया था। यह सच है कि इन हादसों के लिए नावों को चलाने वाले लोग जिम्मेदार हैं। लेकिन इससे प्रशासनिक अमले की जवाबदेही कम नहीं हो जाती। यह देखना प्रशासन का ही काम है कि नाव ठीक हालत में है कि नहीं, वह नदी की धारा को झेल भी सकती है कि नहीं, मल्लाह नाव की क्षमता से अधिक लोगों को तो नहीं बैठा रहा है। लेकिन हैरत की बात यह है कि इन विंदुओं पर प्रशासनिक अमला ध्यान नहीं देता। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में तो मुंडन के दिन गंगा के घाटों पर भारी भीड़ होती है, लेकिन प्रशासनिक कुशलता का आलम यह होता है कि पुलिस का एक सिपाही तक घाटों पर नजर नहीं आता। इन इलाकों के लोगों की जिंदगी भगवान और परंपराओं के भरोसे ही रहती है। क्षमता से अधिक सवारी नाव में भरती है तो उसे रोकने के लिए कोई जिम्मेदार मुलाजिम नहीं होता। लाइफ गार्ड की तो बात ही छोड़िए। इन राज्यों और यहां के प्रशासन को गोवा जैसे राज्यों से सबक सीखना चाहिए। गोवा ने अलग से पर्यटन पुलिस बना रखा है, जो समुद्री बीच पर लोगों पर निगाह रखते हैं। वहां लाइफ गार्ड के पूरे इंतजाम हैं। अगर कोई हादसा हो जाय तो पुलिस के जवान सीधे समुद्र में दिखते हैं। लेकिन यूपी और बिहार के नदियों के किनारे जल पुलिस का कोई इंतजाम नहीं हैं। बलिया के हादसे में भी गोताखोर वाराणसी से तीन घंटे बाद ही पहुंच सके। क्योंकि 140 किलोमीटर की गंगा और घाघरा की जल सीमा वाले इस जिले में जल पुलिस का एक सिपाही तक मौजूद नहीं है। लाइफ गार्ड और गोताखोर की तो बात ही अलग है। हालांकि विगत के हर हादसे के बाद नेताओं और प्रशासन ने गोताखोरों और लाइफगार्ड के लिए न जाने कितने वादे किए। लेकिन वे राजनीति वादे ही क्या जो पूरे हो जाएं।
फिर ऐसे में क्या हो...अब गांवों के ही प्रबुद्ध लोगों को आगे आना होगा। उन्हें खुद जांचना-देखना होगा कि जिस नाव में उनके साथ के लोग सवारी कर रहे हैं, उसकी क्षमता ठीक है कि नहीं...सौ-दो सौ रूपए बचाने के लिए अपनी और अपने लोगों की जिंदगी दांव पर नहीं लगाना होगा। इसके साथ ही सरकारों को चाहिए कि नदियों में उतरने वाली नौकाओं के लिए भी कोई नियामक तरीका अख्तियार करें। बिना प्रशासनिक जांच के नांवों के इस्तेमाल पर रोक लगानी होगी। तभी ऐसे हादसों पर लगाम लगाई जा सकेगी।
( यह लेख अमर उजाला में छप चुका है। )

Tuesday, June 15, 2010

एंडरसन के बहाने अर्जुन पर निशाना


उमेश चतुर्वेदी
2009 के आम चुनावों के ठीक पहले कांग्रेस के कद्दावर नेता अर्जुन सिंह की आत्मकथा आई थी – मोंहि कहां विश्राम। इस किताब को लिखते वक्त तक कांग्रेस में अपनी हैसियत के चलते यह भान नहीं था कि वे कभी राजनीति की दुनिया से आराम भी कर सकते हैं। लेकिन आम चुनावों में पार्टी से टिकट नहीं मिलने के बाद जब उनकी बेटी ने सतना से मैदान में कदम रखा तो उसी दिन तय हो गया था कि उन्हें विश्राम लेना ही पड़ेगा। जिसका सही मायने में उन्हें अनुभव चुनाव बाद यूपीए दो की सरकार के गठन के दौरान ही हुआ। जब उनके प्यारे मानव संसाधन विकास मंत्रालय को नामचीन वकील कपिल सिब्बल को सौंप दिया गया। बात यहीं तक होती तो गनीमत थी। उन्हें मंत्रिमंडल में जगह तक नहीं मिली। वे भले ही कहते रहे हों कि उन्हें विश्राम के मौके नहीं मिलेंगे, लेकिन पार्टी ने उनके आराम का पूरा इंतजाम कर दिया। लेकिन उनका खुद के बारे में जो आकलन था, वह एक बार फिर सही साबित होता नजर आ रहा है। हालांकि इस बार वजह कुछ और है।
भोपाल गैस त्रासदी के पच्चीस साल बाद आए अदालती फैसले से जहां एक्टिविस्ट और पीड़ित गुस्से में हैं, वहीं राजनीतिक गलियारों में भी तूफान आ गया है। इस तूफान को हवा दो पूर्व अधिकारियों के बयानों ने दी है। एक अधिकारी हैं भोपाल के तत्कालीन डीएम मोतीलाल सिंह। मोतीलाल सिंह का आरोप है कि यूनियन कार्बाइड कंपनी के अध्यक्ष वारेन एंडरसन को उन्होंने गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन राज्य शासन के आदेश पर उन्हें एंडरसन को भोपाल से दिल्ली जाने वाले विमान में बैठाना पड़ा था। यह आरोप जहां राज्य सरकार पर है, वहीं दूसरे पूर्व अधिकारी सीबीआई के तब के संयुक्त निदेशक भूरेलाल का आरोप है कि वारेन एंडरसन के प्रत्यर्पण के मामले को ढीला छोड़ने के लिए विदेश मंत्रालय ने सीबीआई पर दबाव डाला था। हालांकि भूरेलाल के इस आरोप को तब के सीबीआई के निदेशक के विजय रामाराव ने गलत करार दिया है। लेकिन इन अधिकारियों के बयानों पर भरोसा नहीं करने का कारण नजर नहीं आ रहा। क्योंकि लाशों के ढेर में भोपाल को तब्दील करने वाली कंपनी का प्रमुख भारत से बाहर निकल गया, बाद में अदालत ने उसे भगोड़ा तक करार दिया। वह अमेरिका में अपने घर में आलीशान जिंदगी जी रहा है और इधर उसकी कंपनी की बनाई मिथाइल आइसोसायनायड गैस के शिकार लोग आज भी परेशान हों तो शक बढ़ेगा ही।
जाहिर है कि इस शक के घेरे में मध्यप्रदेश के तब के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह भी हैं और 415 के अपार बहुमत से सरकार चला रहे राजीव गांधी भी हैं। लेकिन जैसी कि राजनीति की रवायत है और पार्टियों का जो ढांचा है, उसमें सर्वोच्च नेता पर सवाल न उठाने की जैसी परंपरा सी बन गई है। उसमें जाहिर है कि इस गैर जिम्मेदाराना रवैये के लिए कांग्रेस पार्टी अपने सबसे बड़े नेता पर सवाल नहीं उठा सकती। लेकिन उन जनभावनाओं का क्या करें, जो इस फैसले के बहाने एक बार फिर उबाल पर है। वैसे भी दो अधिकारियों के आरोपों ने राज्य में शासन चला रही भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस पर सवाल उठाने का आसान मौका दे दिया है। राज्य में अपनी खोई जमीन को वापस पाने में जुटी कांग्रेस पार्टी की मुश्किलें इस फैसले और इस फैसले के बहाने आए अधिकारियों के बयानों ने बढ़ा दी हैं। जाहिर है कि इससे बाहर निकलने का राजनीतिक रास्ता भी तलाशा जा रहा है और गुरूवार को कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी के आए बयान ने इस कोशिश को ही सुर दे दिया है। उन्हें कहना पड़ा है कि कांग्रेस पार्टी को वारेन एंडरसन के बारे में जनता को समुचित जवाब देना चाहिए। जनार्दन द्विवेदी पार्टी के बड़बोले नेता नहीं है। उन्हें एक ऐसे गंभीर राजनेता की तरह देखा जाता है, जो बिना वजह बयानबाजी में भरोसा नहीं करता। ऐसे में उनका बयान मायने रखता है। जाहिर है कि पार्टी इस त्रासदी के बाद की घटनाओं के लिए तब के मुख्यमंत्री और अपने ही कद्दावर नेता पर ही सवाल उठाने जा रही है। जाहिर है कि अर्जुन सिंह के लिए आने वाले दिन भारी होने जा रहे हैं।
दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस की ओर से यह बयान तब आया है, जब मध्य प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के नेता और राज्य के संसदीय कार्यमंत्री नरोत्तम मिश्र ने अर्जुन सिंह से मांग की है कि वे इस मामले में चुप्पी तोड़ें और हकीकत से जनता को रूबरू कराएं। राजनीतिक बियाबान में जिंदगी गुजार रहे अर्जुन सिंह के लिए चुप्पी तोड़ पाना आसान भी नहीं होगा। अर्जुन सिंह तब राजीव गांधी के बेहद करीब थे। उनकी करीबी का ही असर था कि उन्हें आतंकग्रस्त राज्य पंजाब में शांति लाने की अहम जिम्मेदारी राजीव गांधी ने दी थी और उन्हें राज्यपाल बनाकर वहां भेजा था। ये अर्जुन सिंह की कोशिशें ही थीं कि राजीव- लोंगोवाल समझौता हो पाया। पंजाब की राजनीति में शांति का शुरूआत विंदु इस समझौते से ही माना जाता है। राजीव गांधी की निकटता ही थी कि उन्हें बाद में कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया। इतना ही नहीं, वे राजीव मंत्रिमंडल में संचार जैसे महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री भी रहे। सोनिया गांधी को कांग्रेस में सक्रिय करने के लिए अभियान चलाने वाले प्रमुख नेताओं में भी वे रहे हैं। इसके लिए उन्होंने पी वी नरसिंहराव से विद्रोह करके नारायण दत्त तिवारी के साथ अलग तिवारी कांग्रेस ही बना डाली थी। साफ है कि गांधी-नेहरू परिवार के विश्वस्त रहे अर्जुन सिंह के लिए तब की स्थितियों को लेकर जुबान खोलना आसान नहीं होगा।
लेकिन राजनीति की रवायत है कि जनता के सामने खुद को सही साबित करने के लिए सिर खोजे जाते हैं और उस सिर को अपनी कीमत भी चुकानी पड़ती है। कई बार यह सिर किसी खैरख्वाह का भी होता है।
विपक्षी नजरों में तो दोषी कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी भी हैं। क्योंकि वे यूनियन कार्बाइड कंपनी की सहयोगी केमिकल कंपनी डाउ केमिकल के भारत में प्रवेश के मामले के प्रमुख पैरवीकार हैं। इसे लेकर बीजेपी ने सवाल भी उठाए हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस इस झंझावात से कैसे निकलती है और किसके माथे इन गैरजिम्मेदारियों का ठीकरा फोड़ती है।

Friday, June 4, 2010

पर्यावरण दिवस पर विशेष--- कब चेतेंगे हम पर्यावरण को लेकर


उमेश चतुर्वेदी
पर्यावरण को लेकर विकसित देशों की चिंताएं कितनी गंभीर है, इसे समझने के लिए उनके रवैये पर भी ध्यान देना होगा। पिछले साल दिसंबर में डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन में हुए सम्मेलन में भी उनका टालू रवैया साफ नजर आया। अमेरिका समेत तकरीबन सभी विकसित देश ये तो चाहते थे कि वातावरण में कार्बनिक गैसों का उत्सर्जन कम हो, लेकिन वे अपने देशों में इसे कम करने को तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि विकासशील और अविकसित देश ही कार्बनिक गैसों के उत्सर्जन पर लगाम लगाएं। हकीकत तो यह है कि विकास की दौड़ में अविकसित और विकासशील देश काफी पीछे हैं। लिहाजा उनके यहां औद्योगिक उत्पादन बढ़ाए जाने की ज्यादा जरूरत है। इसके बावजूद उनकी ऊर्जा जरूरतें विकसित देशों में ऊर्जा की खपत से काफी कम हैं। विकसित देश अपने नागरिकों और अपने आर्थिक स्तर को कोई नुकसान पहुंचने देना नहीं चाहते और दुनिया में लगातार बढ़ रही गरमी के लिए विकासशील देशों को ही जिम्मेदार ठहराने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। यही वजह है कि वातावरण को रहने लायक बनाने की दिशा में कोपेनहेगेन सम्मेलन का नतीजा सिफर ही रहा।
यह सच है कि 2008 में शुरू हुई आर्थिक मंदी ने विकसित देशों को सबसे ज्यादा परेशान किया। अमेरिकी अर्थव्यवस्था तो लगता था कि ढह ही जाएगी। इसकी वजह से औद्योगिक उत्पादन में गिरावट भी देखी गई। लेकिन अपने विशाल ग्रामीण बाजार और पारंपरिक समाज के चलते भारत में आर्थिक मंदी का उतना प्रकोप नहीं झेलना पड़ा। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि भारत जैसे देश अपना औद्योगिक उत्पादन न बढ़ाएं। विकसित देशों को तेजी से बढ़ रही चीन की अर्थव्यवस्था से भी परेशानी है। वे चीन पर भी लगाम लगाना चाहते हैं। विकास की दौड़ में लगातार विकसित देशों को चुनौती दे रहा चीन भी अपना औद्योगिक उत्पादन कम क्यों करे।
अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान नासा और भारतीय मौसम विभाग के अपने अध्ययनों में बताया है कि 1901 से लेकर 2008 के बीच बारह साल ऐसे रहे, जिसमें भयानक सूखा पड़ा। इनमें से 1999 के बीच आठ बार भयानक सूखा पड़ा। जबकि 2000 से 2008 के बीच चार बार सूखा पड़ा है। जाहिर है कि औद्योगिकरण के बाद कार्बनिक गैसों का उत्सर्जन बढ़ा है। कहना न होगा कि औद्योगिकरण भी इस सूखे के लिए जिम्मेदार है। दोनों ही संस्थानों के अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 1901 के बाद दुनिया का औसत तापमान करीब आधा डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। जाहिर है इसमें औद्योगीकरण और आधुनिक जीवन शैली का बड़ा योगदान है। कहना न होगा कि यह जीवन शैली भी विकसित देशों की ही देन है। ऐसे में रास्ता एक ही बचता है कि धरती को रहने योग्य बनाए रखने के लिए हमें पारंपरिक सोच और रहन-सहन की ओर लौटना होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि भौतिकतावादी दुनिया में क्या हम इसके लिए तैयार हैं।

Monday, May 24, 2010

इस बेतुके नाटक की जड़ में भी तो जाइए


उमेश चतुर्वेदी
अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में चौधरी देवीलाल जब अपने राजनीतिक कैरियर के उफान पर थे, तब उन्होंने एक नारा दिया था। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के अलावा तीसरे मोर्चे के तकरीबन सभी दलों का यह बरसों तक सबसे प्यारा और प्रभावशाली नारा था – लोकराज लोकलाज से चलता है। झारखंड में जारी प्रहसन को देखकर आजकल यह नारा एक बार फिर शिद्दत से याद आ रहा है। इसलिए नहीं कि झारखंड में लोकलाज का खयाल सिर्फ शिबू सोरेन ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि पार्टी विद डिफरेंस का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी भी इस प्रहसन में बराबर की भागीदार होकर अपनी भद्द पिटवाने में जुट गई है। यही वजह है कि अब भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी तक को कहना पड़ रहा है कि झारखंड में बेतुका नाटक चल रहा है।
झारखंड में सत्ता का यह खेल पहली बार नहीं दिखा है। खुद शिबू सोरेन पिछली बार भी कुछ ऐसा ही कारनामा दिखा चुके हैं। जब उन्हें जामताड़ा की अदालत ने दोषी करार दिया था। यह लोकलाज का ही तकाजा था कि उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए था। लेकिन उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। तब भारतीय जनता पार्टी भी उनके इस कदम के विरोध में खड़ी हो गई थी। अब उसी भारतीय जनता पार्टी को शिबू सोरेन बार-बार ठेंगा दिखा रहे हैं, लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही है। इस प्रहसन को देखकर कहा जा सकता है कि राजनीति सत्ता की संभावनाओं का खेल बन कर रह गई है और संभावना के इस खेल में मूल्यों को बार-बार तिलांजलि दी जा रही है। पश्चिमी लोकतांत्रिक अवधारणा में जिस तरह की राजनीति विकसित हुई है, उसमें आमतौर पर राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षा सत्ता प्राप्ति तक सीमित हो गया है। यहां पर जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय का एक भाषण याद आता है। अपने इस भाषण में उन्होंने जनसंघ के बारे में कहा था – “ भारतीय जनसंघ अलग तरह का दल है। किसी भी प्रकार सत्ता में आने की लालसा वाले लोगों का झुंड नहीं है। ” लेकिन शिबू सोरेन के साथ खड़ी जनसंघ की उत्तराधिकारी भारतीय जनता पार्टी अपने पितृ पुरूष की ही अपेक्षाओं पर खरी उतरती नजर नहीं आ रही है। सत्ता की संभावनाओं की राजनीति में लगातार इस तथ्य की उपेक्षा हो रही है। इसका फायदा न तो पार्टी को मिलता नजर आ रहा है और झारखंड की जनता तो परेशान होने के लिए मजबूर है ही।
झारखंड की राजनीति में पिछली बार भी हुए खेल के बावजूद अगर पार्टियों ने शिबू सोरेन पर भरोसा किया, तो यह उनकी गलती ही मानी जाएगी। पिछली बार की घटनाओं से पार्टियों ने कोई सबक नहीं लिया। इसका ही असर है कि आज झारखंड की राजनीति चौराहे पर खड़ी नजर आ रही है और कोई स्पष्ट –मुकम्मल रास्ता नजर नहीं आ रहा है। जाहिर है कि इस पूरे खेल को कांग्रेस समेत विपक्षी राजनीतिक पार्टियां दिलचस्पी से देख रही हैं। लेकिन वे सत्ता में सीधी भागीदारी से हिचक रही हैं। क्योंकि उन्हें इस बात का डर सता रहा है कि शिबू सोरेन पर भरोसा करने का कारण नजर नहीं आ रहा है। झारखंड की राजनीति में कांग्रेस की ओर से महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके एक केंद्रीय कांग्रेस नेता ने इन पंक्तियों के लेखक से साफ कहा है कि जो शिबू अपने साथियों के लिए भरोसेमंद नहीं हो पा रहे हैं, क्या गारंटी है कि वे उनकी पार्टी के लिए भी भरोसेमंद रहेंगे।
इस पूरे घटनाक्रम में एक तथ्य पर राजनीतिक पंडितों का ध्यान नहीं जा रहा है। भारतीय संविधान इस मसले पर चुप है कि कोई लोकसभा सदस्य राज्य की सरकार में शामिल हो सकता है या नहीं। भारतीय राजनीति में लोकसभा की सदस्यता वाले मुख्यमंत्री का सवाल 1999 में भी उछल चुका है। जब उड़ीसा के मुख्यमंत्री गिरिधर गोमांग ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था। तब गोमांग लोकसभा के सदस्य थे और उड़ीसा के मुख्यमंत्री भी थे। इस मतदान में वाजपेयी सरकार की एक मत से हार हो गई थी। इस हार के बाद गोमांग के मतदान पर तब के भारतीय जनता पार्टी ने सवाल उठाया था। इसके बाद तो यह सवाल राजनीतिक और संवैधानिक गलियारे में चर्चा का विषय ही बन गया था। सवाल यह था कि जब कोई व्यक्ति राज्य का मुख्यमंत्री बन जाता है तो उसकी पहली जवाबदेही राज्य विधानसभा के प्रति हो जाती है। लिहाजा उसे संसद में मतदान करने का नैतिक आधार नहीं रह जाता। 27 अप्रैल 2009 को दूसरा मौका था, जब किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने संसद की वोटिंग में हिस्सा लिया। लेकिन इस पर सवाल नहीं उठ रहा है। जबकि हकीकत तो यही है कि झारखंड की समस्या की जड़ में यह मतदान ही है। यह सच है कि भारतीय संविधान सदस्यता और सरकार बनाने को लेकर चुप है। इसकी वजह यह है कि पहले वही लोग राज्यों में सरकार बनाते रहे हैं, जो विधानसभा का चुनाव लड़ते रहे है। पहले केंद्र से मुख्यमंत्री राज्यों में नहीं भेजे जाते थे। 1970 के दशक में पहली बार हुआ कि प्रकाश चंद्र सेठी को केंद्र से मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर भेजा गया। इसके बाद तो कम से कम कांग्रेस में यह परिपाटी ही बन गई। सही मायने में देखा जाय तो यह भी लोकलाज का उल्लंघन ही था। लेकिन सेठी ने एक काम जरूर किया था कि संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। 1999 में उड़ीसा में नवीन पटनायक जब मुख्यमंत्री बने, तब वह लोकसभा के सदस्य थे। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था। पहले लोग दो-दो, तीन-तीन जगहों से चुनाव लड़ते थे। विधायक रहते लोकसभा या सांसद रहते विधानसभा का चुनाव लड़ते थे और दोनों जगह से जीतने के बाद छह महीने तक दोनों सदस्यता पर काबिज रहते थे। लेकिन चुनाव आयोग की पहल के बाद अब 14 दिनों के भीतर कहीं एक जगह की सदस्यता छोड़नी पड़ती है। अन्यथा पिछली सदस्यता खुद-ब-खुद रद्द हो जाती है।
यह सच है कि राजनीति में संविधान और कानून से इतर मर्यादाओं और राजनीतिक नैतिकता का भी अपना महत्व होता है। लेकिन जब नेताओं का ही ध्यान मर्यादा की ओर नहीं है तो कानूनी और संवैधानिक बाध्यताएं जरूरी हो जाती है। अभी इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। लेकिन कल को कोई विधायक प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ले और विधानसभा की सदस्यता न छोड़े और वक्त पड़ने पर अपनी विधानसभा में वोट डालने पहुंच जाए तो लोकतंत्र के लिए कितना बड़ा प्रहसन होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। झारखंड की राजनीति के बेतुके नाटक ने एक बार फिर इस सवाल पर विचार करने का मौका दिया है। अगर वक्त रहते इस मसले पर ध्यान नहीं दिया गया तो झारखंड जैसे प्रहसन बार-बार होते रहेंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राजनीतिक बिरादरी इस तरफ ध्यान देने की कोशिश करती भी है या नहीं।

Sunday, May 23, 2010

पोर्न रहा मंदी के लिए जिम्मेदार


उमेश चतुर्वेदी .
थाईलैंड और फिलीपींस को छोड़ दें तो सेक्स को लेकर एशियाई समाज आज भी पूरी तरह से पारंपरिक बना हुआ है। भारत जैसे देशों में महानगरीय खुलापन को छोड़ दें तो अब भी सार्वजनिक तौर पर सेक्स को वैसी खुली छूट नहीं मिली हुई है, जैसी अमेरिका और यूरोप के देशों में है। इस्लामिक देशों के साथ ही अपने देश के शुद्धतावादी अब भी सेक्स को बेहद गोपनीय और नितांत निजी मानते रहे हैं। सेक्स को लेकर अमेरिकी खुलेपन और एशिया की निजीपन की अवधारणा के अपने फायदे भी हैं तो नुकसान भी कम नहीं है। भारत और इस्लामिक देश खुलेपन की इस अवधारणा के चलते नितांत निजी इस प्रक्रिया को नैतिक तौर पर गलत मानते रहे हैं, जाहिर है इस आधार पर वे इसे सामाजिक तौर पर नुकसानदेह भी मानते हैं। लेकिन अब अमेरिका में भी खुलेपन वाली सेक्स संस्कृति को भी नुकसानदेह माना जाने लगा है। लेकिन फर्क इतना है कि वहां इस नुकसान का आकलन आर्थिक तौर पर माना जा रहा है।
एशियाई समाज के लिए टैबू रहे सेक्स को लेकर खुलेपन वाली संस्कृति के देश में इसे आर्थिक तौर पर हानिकारक माना जाने लगे तो हैरत होगी ही। सितंबर 2008 में लेहमैन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई भयानक मंदी और उससे परेशान दुनिया ने मंदी के कारणों की तलाश शुरू की। इसी तलाश में जुटे अमेरिका के प्रमुख आर्थिक जांच आयोग सिक्यूरिटी एंड एक्सचेंज कमीशन अपनी जांच नतीजे में पाया है कि देश की तमाम एजेंसियों के अधिकारी और कर्मचारी अपना ज्यादातर वक्त पोर्न वेबसाइटें देखने में बिताते हैं। सबसे बड़ी बात ये कि अमेरिका की आर्थिक गतिविधियों की निगरानी करने वाले खुद सिक्युरिटी और एक्सचेंज कमीशन के बड़े अधिकारी तक भी अपने दफ्तर का ज्यादातर वक्त पोर्न साइटें देखने में गुजारते हैं। कमीशन का कहना है कि इस वजह से ज्यादातर अधिकारियों की आर्थिक गतिविधियों पर निगाह नहीं रही और गैरकानूनी ढंग से काम होते रहे और अमेरिकी अर्थव्यवस्था को ढहते देर नहीं लगी। जिसका खामियाजा पूरी दुनिया को अब तक भुगतना पड़ रहा है।
अपने देश से अक्सर खबरें आती हैं कि किसी दफ्तर विशेष में कोई खास वेबसाइट या ब्लॉग को ब्लॉक कर दिया गया। हाल के दिनों में मीडिया से जुड़ी कई ब्लॉग और वेबसाइटों पर कई मीडिया हाउसों ने पाबंदी लगा दी। अर्थव्यवस्था के उफान के दिनों मे अपने देश की तमाम बड़ी कंपनियों ने नौकरी देने-दिलाने वाली वेबसाइटें पर भी पाबंदी लगा दी थीं। ताकि इनका इस्तेमाल करते हुए लोग किसी दूसरी कंपनी में न चलें जायं। चूंकि भारत में अब भी सेक्स एक टैबू है, इसलिए आज भी तकरीबन सभी दफ्तरों में पोर्न साइटें पूरी तरह प्रतिबंधित हैं। फिर सामाजिक तौर पर भी इसे स्वीकृति नहीं मिली है। लिहाजा अगर कहीं खुदा न खास्ता कोई पोर्न वेब साइट खुलती भी है तो लोग खुलेतौर पर अपने दफ्तरों में खोलने से भी हिचकते हैं। लेकिन खुलेपन की सांस्कृतिक आंधी का उदाहरण रहा अमेरिका अब खुद इस खुलेपन के जरिए आए नुकसान को पहली पर मानने और उससे निबटने के लिए तैयार हुआ है। यही वजह है कि ओबामा प्रशासन जल्द ही पूरे अमेरिका के दफ्तरों में हर तरह की पोर्न साइटों पर प्रतिबंधित लगाने का आदेश सुनाने जा रहा है।
दुनिया के दूसरे इलाकों में सेक्स और पोर्न का व्यवसाय भले ही दबे-ढंके चल रहा हो, लेकिन यूरोपीय और अमेरिकी देशों में पोर्न बड़ा व्यवसाय बन गया है। इसे समझने के लिए कंप्यूटर उद्योग के ग्राहकों की लिस्ट ही देखनी समीचीन होगी। कम्प्यूटर तकनीक खरीदने वाले पांच खरीददारों में एक खरीदार सेक्स उद्योग भी है। सेक्स उद्योग ने व्यापार में पहले खर्चीली ‘टी 3 ‘ फोन लाइन खरीदी, ताकि हाई रिजोल्युशन वाली इमेजों के प्रसारण में कोई रुकावट नहीं आए। अमेरिका में सेक्स उद्योग कितना फैला हुआ है, इसे जानने के लिए वहां के सेक्स और पोर्न उद्योग के सालाना टर्न ओवर पर निगाह डालनी होगी। खुद अमेरिकी सरकार, मशहूर पोर्न मैगजीन हसलर के मालिक लैरी फ्लिंट और टीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर पोर्न कार्यक्रम गर्ल्स गॉन वाइल्ड के प्रोड्यूसर जो फ्रांसिस के मुताबिक अमेरिका में पोर्न उद्योग का सालाना कारोबार 13 अरब डॉलर का है। जबकि बिजनेस और आर्थिक मामलों की दुनियाभर में मशहूर पत्रिका फॉर्च्युन के मुताबिक अकेले अमेरिका में ही पोर्न का कारोबार 14 अरब डॉलर का है। इसमें इंटरनेट का योगदान कितना है, इसे समझने के लिए 1998 के एक आंकड़ें पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। इसके मुताबिक 1998 में अमेरिका में सिर्फ ऑनलाइन एक बिलियन डॉलर की पोर्न सामग्री की खरीद-बिक्री हुई। उस साल के मुताबिक इंटरनेट के जरिए होने वाली कुल बिक्री का यह 69 फीसदी हिस्सा था। इन बारह सालों में इंटरनेट ने तकनीकी तौर पर काफी प्रगति कर ली है। समाज में खुलापन भी बढ़ा है। जाहिर है, पोर्न सामग्री की बिक्री के आंकड़े और बढ़ ही गए होंगे। इतना ही नहीं, अमेरिकी समाज के जरिए मोटे मुनाफा कमाने वाले इस धंधे में छोटे-मोटे खिलाड़ी नहीं हैं, बल्कि पोर्न का यह धंधा बाकायदा कारपोरेट अंदाज में चलाया जा रहा है। जिसमें सबसे ज्यादा हिस्सेदारी बड़े कारपोरेट घरानों की है। जेनेट एम लारोइ ने अपने लेख ”दि पोर्न रिंग एराउण्ड दि कारपोरेट ह्नाइट कॉलर्स: गेटिंग फिल्थी रिच” में साफ बताया है कि एटी एंड टी, एमसीआई,टाइम वारनर, कॉमकास्ट, इको स्टार कम्युनिकेशन, जनरल मोटर का डायरेक्ट टीवी, हिल्टन, मारीओत्त, शेरेटॉन, रेडीसन, वीसा, मास्टर कार्ड, अमेरिकन एक्सप्रेस जैसी कई कंपनियां पोर्न उद्योग से भारी कमाई कर रही हैं। पोर्न की बिक्री में आई इस बढ़त और बड़े खिलाड़ियों की मौजूदगी से अंदाज लगाना आसान है कि पोर्न साइटों ने अमेरिकी समाज और अर्थव्यवस्था को किस कदर जकड़ लिया है। इसमें समाज का एक बड़ा हिस्सा जुड़ा हुआ है। जाहिर है कि उनकी रोजी-रोटी भी जुड़ी हुई है।
अमेरिका और यूरोप के लिए पोर्न भले ही कुछ वैसा ही व्यापार है, जैसा कि बाकी कारोबार हैं, लेकिन दुनियाभर के मनोवैज्ञानिक कम से कम इस बात से सहमत है कि पोर्न एक बुरी लत है। जिसका इस्तेमाल करने वालों की सामान्य मानवीय संवेदनाएं मर जाती हैं। जाहिर है कि इस लत की से अक्सर भारतीय शुद्धतावादी चेताते रहे हैं। उनका कहना रहा है कि इससे समाज का काफी नुकसान होगा। लेकिन अमेरिकी तर्ज पर अपने यहां के कथित विकासवादी धारा शुद्धतावाद की इस चेतावनी को नजरंदाज करती रही है। उन्हें विकास की राह में शुद्धतावाद की ये धारा रूकावट नजर आती रही है। यह मानने वाले आर्थिक विकास को ही सबकुछ मानते रहे हैं। उनका दर्शन खाओ-पियो पर केंद्रित रहा है। लेकिन जब इस के जरिए दुनिया में सर्वशक्तिमान और प्रेरणादायी मानी जाने वाली अमेरिकी अर्थव्यवस्था धाराशायी हो गई तो अब खाओ-पियो वाला दर्शन भी पोर्न को समाज के लिए हानिकारक मानने लगा है। यही वजह है कि अब अमेरिका तक को अपने यहां पोर्न साइटों पर लगाम लगाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। यानी अमेरिका ने भी मान लिया है कि दफ्तर सिर्फ काम यानी कर्तव्य वाली जगह है, काम यानी सेक्स वाली नहीं। इससे शुद्धतावादी भारतीय विचारधारा को ही बल मिला है।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि 56 बिलियन डॉलर वाला दुनिया का पोर्न कारोबार अमेरिकी फैसले को बिना कुछ किए आंख मूंदकर स्वीकार कर लेगा। अगर ऐसा हो गया तो अमेरिका के 14 अरब डॉलर वाले पोर्न उद्योग का क्या होगा, जिसके साथ हजारों लोगों की रोजी जुड़ी हुई है। जाहिर है अमेरिकी प्रशासन को इस उद्योग से जुड़े लोगों की चिंताओं का भी खयाल रखना होगा। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए देखना ये है कि वह लत में डूब चुके अपने नागरिकों पर लगाम लगा पाती है या नहीं।

Wednesday, May 19, 2010

संजीदा और हाजिरजवाब राजनेता थे शेखावत


उमेश चतुर्वेदी
वह 2002 के जाड़ों की एक दोपहर थी...दिल्ली में शीतलहर अपने पूरे उफान पर थी। तब उपराष्ट्रपति भवन से इन पंक्तियों के लेखक को भी बुलावा आया था। दरअसल हमारे एक मित्र के पिता की किताब का विमोचन तब के उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत के हाथों होना था। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता अब के कांग्रेस सचिव मोहन प्रकाश को करनी थी। मोहन प्रकाश तब जनता दल यू के महासचिव पद से इस्तीफा देकर आराम कर रहे थे। इन पंक्तियों के लेखक के लिए ये दूसरा मौका था, जब बतौर उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत से मिलना संभावित था। इसके पहले उपराष्ट्रपति बनते ही उनसे हैदराबाद हाउस में बतौर पत्रकार मुलाकात हो चुकी थी। लिहाजा थोड़ी असहजता भी थी। लेकिन प्रोटोकॉल की मर्यादा में बंधे शेखावत ने जब हॉल में प्रवेश किया, तब जाकर पता चला कि जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी में होते हुए भी दूसरे राजनीतिक दलों में उनकी दोस्ताना पैठ क्यों थी। हॉल में आते ही उन्होंने सारा प्रोटोकॉल दरकिनार कर दिया और मोहन प्रकाश की ओर दौड़े- भाई मोहनदास कहां हो। वहां मौजूद लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ कि देश का दूसरे नंबर का नागरिक इतनी उत्फुल्लता से लोगों से मिल सकता है। मोहन प्रकाश से उनकी मुलाकात बरसों बाद हो रही थी। मोहन प्रकाश भी अपने ऐसे स्वागत से भौंचक्क नजर आ रहे थे। महामहिम उपराष्ट्रपति ने उन्हें बाहों में जकड़ रखा था। संभलने के बाद मोहन प्रकाश ने उन्हें प्यारी सी चेतावनी दी- अगर आप नहीं मानेंगे तो मैं आपको भैरो बाबा फिर कहना शुरू कर दूंगा। लेकिन महामहिम पर कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने कहा कि इसी में अपनापा दिखता है।
संघ परिवार के नेता और कार्यकर्ताओं से ये उम्मीद की जाती है कि वे मर्यादा में बंधकर संभ्रांत व्यवहार करें। लेकिन भैरो सिंह शेखावत आम लोगों के नेता थे। संभ्रांतता उनके व्यक्तित्व पर हावी न हो जाय, इसका वे खास खयाल करते थे। उसी कार्यक्रम में उन्होंने बतौर मेजबान उन लोगों को मिठाई खुद ले जाकर खिलाने में हिचक नहीं दिखाई, जो उनकी मौजूदगी के संकोच में दबे जा रहे थे। प्रोटोकॉल को दरकिनार करके मेजबानी निभाने में भी उन्होंने कोई कसर नहीं रखी। उनका कहना था कि आम आदमी से प्रोटोकॉल के जरिए नहीं जुड़ा जा सकता। सार्वजनिक जिंदगी को लेकर उनका यह नजरिया ही था कि वे राजस्थान में पूर्ण बहुमत नहीं होने के बावजूद दो-दो बार सरकार सफलता पूर्वक चला सके। सार्वजनिक जीवन में रिश्तों को निभाने के उनके जज्बे को उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी नजर आया, तब उन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सदस्यों की तुलना में काफी ज्यादा वोट मिले।
राज्यसभा के सभापति के रूप में उन्होंने प्रश्नकाल को बाधित नहीं होने दिया। उनका मानना था कि जनता से जुड़े सवालों को प्रश्नकाल में उठाकर ही उनका समाधान हासिल किया जा सकता है और सरकार की जवाबदेही तय की जा सकती है। कई बार तो मंत्रियों को अपनी खास कार्यशैली से जवाब देने के लिए मजबूर भी कर देते थे। उपराष्ट्रपति बनने के बाद वे पूरी तरह से पूरे देश के हो गए थे, लेकिन राजस्थान की मरूभूमि से अपना लगाव उन्होंने कभी छुपाया भी नहीं। 2002 के मानसून सत्र में राजस्थान में भूख से मौतों का मसला संसद में छाया हुआ था। तब उन्होंने उस दौर के मंत्री को सदन में झाड़ पिलाने में भी देर नहीं लगाई थी। जिसकी अनुगूंज संसद के गलियारे में काफी दिनों तक सुनाई देती रही थी। भले ही ये संयोग हो, लेकिन शीर्ष भारतीय राजनीति के इस दौर में शीर्ष पर बैठे दोनों लोग- राष्ट्रपति अब्दुल कलाम और उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत ने आम लोगों को लेकर अपने सरोकार को हर मुमकिन मौके पर जाहिर करने से नहीं झिझके।
राज्यसभा का कुशल संचालन और जनता से जुड़े सवालों के लिए सरकार को जवाबदेह बनाने का उनका जज्बा उन्हें देश के सर्वोच्च पद पर नहीं पहुंचा सका। दलीय राजनीति की सीमाओं में उनकी दोस्ती कोई सेंध नहीं लगा सकी। जिस समय राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा आया, उसके बाद शेखावत कायदे से दो महीने तक उपराष्ट्रपति रह सकते थे। क्योंकि उनका कार्यकाल खत्म होने में इतना वक्त बाकी था। लेकिन नैतिकता के तकाजे ने जोर मारा और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। बाद के दिनों में राजस्थान की स्थानीय राजनीति में उनकी सक्रियता पर सवाल भी उठे। लेकिन उनका कहना था कि राजस्थान की जनता के लिए वे जवाबदेह हैं, इसलिए वे सवाल उठाते रहेंगे। इस पर सवाल उनकी पुरानी भारतीय जनता पार्टी ने ही उठाए। लेकिन इसकी उन्होंने परवाह नहीं की। राज्यसभा में एक मौका ऐसा भी आया, जब वे सांसदों के सामने असहाय दिखे और उनकी बात मानने के लिए मजबूर भी हो गए और उसे निभाया भी। शेखावत जी को पान मसाला खाने की आदत थी। एक बार संसद में पान मसाले पर बहस हो रही थी। तब की स्वास्थ्य मंत्री और अब नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने उनकी इस आदत के खिलाफ प्रस्ताव रखा कि सभापति जी को अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए पान मसाला खाना छोड़ना होगा। बेहद अनौपचारिक तौर पर हुई इस चर्चा में सभी दलों के सांसद शामिल हो गए थे।
अपनी हाजिर जवाबी के लिए भी वे मशहूर रहे। इसका दर्शन राज्यसभा की कार्यवाही के संचालन में दिखता था। वैसे दलीय राजनीति की सीमाएं और बाध्यताओं के चलते जनता से जुड़े मुद्दों और सवालों को लेकर आज चलताऊ रवैया अख्तियार किया जाने लगा है। लेकिन आम आदमी के उपराष्ट्रपति के तौर पर भैरोसिंह शेखावत ने हमेशा ऐसे मुद्दों को लेकर संजीदगी दिखाई। भविष्य में जब-जब दलीय राजनीति के साथ जनता से जुड़े मुद्दों को लेकर चिंताएं जताई जाएंगी, संजीदा और हाजिरजवाब शेखावत याद आते रहेंगे।

Friday, April 23, 2010

फिर कैसे हो गांवों में इलाज


उमेश चतुर्वेदी
मई की तपती लू और उसके थपेड़े पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में बीमारियों का सैलाब लेकर आते हैं। इस साल गरमी के रिकॉर्ड का भी पारा मौसमी आसमान पर तेजी से कुलांचे भर रहा है। ऐसे में इस इलाके में बुखार-दस्त और उल्टी की शिकायतें आनी शुरू हो गई है। लेकिन इस बार गांवों में ऐसे लोगों का इलाज होना मुश्किल है। कई जिलों के जिलाधिकारियों ने रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिसनरों की प्रैक्टिस पर रोक लगा दी है। बलिया के जिला अधिकारी सैंथिल पांडियन ने तो उस बीएएमएस और एमबीबीएस डॉक्टरों को ग्लूकोज चढ़ाने तक पर रोक लगा दी है, जिन्होंने नर्सिंग होम के तहत अपने दवाखाने का रजिस्ट्रेशन नहीं करा रखा है। इसके चलते गांवों के मरीज बेहाल है। इलाके में इतने सरकारी अस्पताल नहीं हैं कि लोगों को आसानी से उनके ही गांवों के आसपास इलाज मुहैया कराया जा सके।
उत्तर प्रदेश में आरएमपी यानी रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिसनरों के रजिस्ट्रेशन पर 1975 से ही रोक लगी हुई है। हालांकि बिहार और मध्य प्रदेश में अभी भी फार्मासिस्टों को बतौर मेडिकल प्रैक्टिसनर काम करने की छूट है और उनका बाकायदा रजिस्ट्रेशन भी हो रहा है। उत्तर प्रदेश में रोक की वजह है रजिस्ट्रेशन में धांधलियां, जिसके चलते मामूली झोलाछाप लोग भी आरएमपी बनकर डॉक्टर बन बैठे और उल्टे-सीधे इलाज और ऑपरेशनों के जरिए मरीजों की जान से खिलवाड़ करने लगे। हालांकि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि आरएमपी की सहूलियत आजादी के बाद लोगों को अपनी रिहायश के पास ही प्रशिक्षित ऐसे चिकित्सकों की सुविधा मुहैया कराना था, जो छोटे-मोटे रोगों का इलाज कर सकें। आजादी के बाद गांवों की कौन कहे, शहरों तक में योग्य और प्रशिक्षित डॉक्टरों का टोटा था। वैसे आजादी के तिरसठ साल बीतने के बाद भी पूरे देश के गांव अब भी जरूरत के मुताबिक डॉक्टरों की पहुंच से दूर हैं। जाहिर है कि ऐसे में गांव वालों के इलाज के लिए सबसे भरोसेमंद और नजदीकी स्रोत झोलाछाप के नाम से मशहूर ये आरएमपी ही हैं। लेकिन अब उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों में इन पर रोक लगती जा रही है। लिहाजा गांव वालों का पुरसा हाल जानने वालों की कमी होती जा रही है।
वैसे प्रशासन ने झोलाछाप कहे जाने वाले इन डॉक्टरों की प्रैक्टिस को काबू करने का फैसला इलाज में जिन डॉक्टरों और नर्सिंग होम की कोताही और लापरवाही के चलते लिया है, उन्हें ज्यादातर इन इलाकों में सफेदपोश और पढ़े-लिखे डॉक्टर ही चलाते रहे है। विश्व स्वास्थ्य संगठन खुद मानता है कि बीमारू यानी उत्तर भारत के हिंदी पट्टी वाले इलाके में इन दिनों नर्सिंग होम की बाढ़ आ गई है, जिनका एक मात्र काम है सीजेरियन डिलिवरी। डब्ल्यू एच ओ के मुताबिक इसके चलते उत्तर भारत में बिला वजह ऑपरेशन के जरिए बच्चों की जन्मदर बढ़ गई है। दरअसल कोई अंदरूनी खतरा बताकर ज्यादातर ऑपरेशन के जरिए बच्चे पैदा करा रहे हैं। ऑपरेशन से बच्चा पैदा करने के चलते रोगी को तीन-चार दिनों तक अस्पताल में रखने का मौका मिल जाता है। जबकि सामान्य प्रसव में जच्चा-बच्चा अगली सुबह ही घर जाने लायक हो जाता है। इन ऑपरेशनों के दौरान मौतों का सिलसिला भी बढ़ा है। कहां तक इन पर रोक लगती, इसकी कीमत आरएमपी डॉक्टरों को अपनी रोजी-रोटी के तौर पर चुकानी पड़ रही है। इसके साथ ही सस्ते में सुलभ इलाज पर भी लाले पड़ गए हैं। इसे लेकर इलाके केमिस्ट और ड्रगिस्ट एसोसिएशन भी परेशान हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार से मांग की है कि जिन लोगों का दवा के कारोबार या किसी डॉक्टर के पास कंपाउंडर के तौर पर दस साल का अनुभव है, उन्हें कम से कम गांवों में इलाज करने की सुविधा दी जाए। हालांकि प्रशासन और सरकार ने इस पर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया है।
जब तक गांवों तक डॉक्टरों की पहुंच सहज-सुलभ नहीं हो जाती, वहां के लोगों के सस्ते-सुलभ इलाज के इन साधनों यानी आरएमपी डॉक्टरों के महत्व को नकारना गलत होगा। साथ ही एक ऐसा मैकेनिज्म बनाया जाना चाहिए, जिससे कोई अनाड़ी हाथ डॉक्टर के भेष में मरीजों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ नहीं कर सके। इसके साथ ही इन इलाकों में तेजी से कुकुरमुत्तों की तरह उग आए नर्सिंग होम पर तीखी नजर रखी जानी चाहिए। यहां यह भी ध्यान रखने की बात ये है कि ये नर्सिंग होम उन भ्रष्ट डॉक्टरों के हैं, जो बरसों तक राजनीतिक व्यवस्था के भ्रष्टाचार के चलते एक ही जगह तैनात रहे और अपनी निजी प्रैक्टिस चमकाते रहे।

Monday, March 29, 2010

ये आग कब रूकेगी


उमेश चतुर्वेदी

गरमी के मौसम ने जैसे ही दस्तक देनी शुरू की है, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नजदीकी बिहार के गांवों से आग के तांडव की खबरें आने लगीं हैं। इन इलाकों में प्रकाशित होने वाले अखबारों के जिलों के पृष्ठ रोजाना इस तांडव के चलते बेघर हुए लोगों और मासूमों की मौत की खबरों से भरे पड़े हैं। कोलकाता के स्टीफन कोर्ट में लगी आग और उसमें मारे गए 27 लोगों की खबर ने देशभर के मीडिया की सुर्खियां बटोरी हैं। पश्चिम बंगाल सरकार से लेकर कोलकाता नगर निगम की लानत-मलामत का दौर अब भी देशभर के मीडिया में प्रमुख जगह बनाए हुए है, लेकिन इन इलाकों में रहने वाले लाखों लोगों की जिंदगी की दुश्वारियां सिर्फ जिले के पन्नों में सिमट गई हैं। अकेले बलिया से ही पिछले एक हफ्ते में आग के हादसे की पांच खबरें आईं हैं, जिनमें से कई मासूमों को भी अपनी जिंदगी की कीमत चुकानी पड़ी है।
आगलगी के इन हादसों की असल वजह समझने के लिए हमें इस इलाके के लोगों के जीवन स्तर और उनकी जिंदगी की दुश्वारियों को समझना जरूरी है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ -गाजीपुर-बलिया से पूरब, बिहार के मोतीहारी, आरा और छपरा की और जैसे – जैसे हम आगे बढ़ते हैं, छपरा नाम राशि वाले गांवों की पूरी की पूरी सीरीज ही शुरू हो जाती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने - मेरी जन्मभूमि - शीर्षक निबंध में छपरा नाम राशि वाले इन गांवों के नामकरण की चर्चा की है। उनके मुताबिक इन गांवों में ज्यादातर घर फूस और सरकंडे के छप्पर से बने होते हैं। छप्पर ही इनकी पहचान रहा है, इसीलिए इन गांवों के नाम के साथ छपरा यानी दलनछपरा, दूबे छपरा आदि पड़ गया है। नाम चाहे जितना भी सुंदर हो, गर्मियां आते ही इन गांवों की मुश्किलें बढ़ जाती हैं। बरसात आने तक छप्पर वाले इन गांवों की सुबह और शाम अंदेशे में ही गुजरती है। लेकिन बरसात ही इन्हें कहां मुक्त रहने देती है। बारिश आते ही गंगा और घाघरा का पानी अपने तटबंधों को पार कर उफान मारने लगता है और जैसे ही बस्तियों की ओर रूख करता है, उसका पहला शिकार कमजोर नींव वाले ये घर ही होते हैं।
लेकिन गर्मियां इन इलाकों के छप्पर वाले लोगों के लिए कहर बन कर आती हैं। बासंती नवरात्र के खत्म होते ही गेहूं और चने की फसल पकने लगती है। इसके साथ ही पछुआ हवा के तेज झोंके दिनभर चलने शुरू हो जाते हैं। चूंकि फसलें पकी होती हैं, लिहाजा इन्हीं दिनों कटाई का मौसम जोर पकड़ चुका होता है, लिहाजा छप्पर वाले घरों में सिर्फ बच्चे और बूढ़े ही रह जाते हैं। पुरूष और महिलाएं दिन भर खेतों में काम करने के लिए निकल जाते हैं। इसी दौरान कभी चूल्हे में शांत पड़ी चिन्गारी कभी छिटक कर छप्पर पर चली जाती है तो कई बार बच्चों की असावधानी और बचपने के चलते चिन्गारी छप्पर वाले घरों की छत या दीवार छू लेती है। ऐसी घटनाएं गंगा और घाघरा के किनारे छप्परों के समूहों वाले गांवों में रोजाना होती है। इन्हीं में से कई बार ये चिन्गारियां शोलों का रूप धारण कर लेती हैं। इसे तेजी से फैलाने में दिन में चलने वाली पछुआ हवा के तेज झोंके मदद करते हैं। और देखते ही देखते पूरी बस्ती की गृहस्थियां स्वाहा हो जाती हैं। अच्छे – खासे हंसते-खेलते परिवार सड़क पर आ जाते हैं।
कहना ना होगा कि सालों से चली आ रहा बदकिस्मती का कहर इस साल भी जारी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मेरी जन्मभूमि निबंध जब लिखा था, तब भारत को आजाद हुए सिर्फ बीस-बाइस साल ही हुए थे। तब तक इन छप्परों में सांस्कृतिक रसगंध महसूस होती थी। तब आगलगी की घटनाओं को बदकिस्मती मान कर किस्मत पर आंसू बहाया जा सकता था। लेकिन आज जमाना बाजार का है। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक का दावा है कि पूरे देश में विकास हुआ है। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गंगा, घाघरा, राप्ती और गंडक के किनारे वाले गांवों में विकास की ज्योति जिस तेजी से पहुंचनी चाहिए थी, अब तक नहीं पहुंच पाई है। पचास के दशक में संसद में गाजीपुर के सांसद विश्वनाथ गहमरी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की गरीबी का जो चित्र पेश किया था, उससे कहा जाता है कि नेहरू की आंखों में भी पानी भर आया था। लेकिन आजादी के बासठ साल बाद भी इस इलाके में विकास की वह धारा नहीं पहुंच पाई है, जिसका वह हकदार रहा है। लिहाजा आज भी यहां लोग छप्परों के घर में रहने को मजबूर हैं। बाढ़ में डूबने और गरमी में आग में जलने के लिए अभिशप्त हैं। साल-दर-साल यह विभीषिका दोहराई जाती है। लेकिन सरकारों के कानों पर जूं नहीं रेंग रही। चाहे उत्तर प्रदेश की सरकार हो या फिर बिहार की, फायरब्रिगेड की गाड़ियों का माकूल इंतजाम आज तक नहीं कर पाई है। इसके चलते लोग वे जानें भी सस्ते में चली जाती हैं, जिन्हें महज फायर ब्रिगेड की एक गाड़ी की सहायता से बचाया जा सकता था। बलिया में पिछले हफ्ते दो मासूमों को सिर्फ इसलिए नहीं बचाया जा सका, क्योंकि जिला मुख्यालय में महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर होने वाले गांव में भी फायर ब्रिगेड का दस्ता घंटों बाद पहुंच पाया।
अव्वल तो होना यह चाहिए कि लोगों को फूस और सरकंडे के छप्पर वाले मकानों से इन इलाकों के लोगों को मुक्ति दिलाई जाती। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो कम से कम गरमियों फायर ब्रिगेड का ऐसा इंतजाम तो किया जाता, ताकि लोगों की गाढ़ी मेहनत के साथ मासूम जिंदगियों के बेवक्त ही मौत के मुंह में जाने से रोका जा सके। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि गांधी, लोहिया और जयप्रकाश के साथ ही कांशीराम के नाम पर आम लोगों की भलाई का दावा करने वाले लोगों के कानों तक इन मासूमों की आह पहुंच पाती है या नहीं।

Wednesday, March 24, 2010

इसी दम पर आगे बढ़ेगा उत्तर प्रदेश



उमेश चतुर्वेदी

उत्तर प्रदेश में एक बार फिर बोर्ड परीक्षाओं का पुराना इतिहास दोहराया जा रहा है। राज्य के खासकर पूर्वी जिलों में प्रशासन के तमाम दावों के बावजूद नकलची छात्रों पर पूरी तरह नकेल नहीं लगाई जा सकी है। नकल माफिया के लिए मशहूर रहे बलिया, गाजीपुर और आजमगढ़ जिलों के अधिकारियों ने नकल रोकने के लिए कोर-कसर नहीं रखी है। इसके बावजूद नकल माफिया की पौ बारह है। राज्य के पश्चिमी जिलों के विद्यार्थियों का इस बार भी बड़ा रेला इन जिलों में महज एक अदद सर्टिफिकेट के लिए इम्तहान की औपचारिकताओं में जुट गया है। जाहिर है इससे नकल माफियाओं के चेहरी मुस्कान चौड़ी हुई है तो वहीं अपने सुनहरे भविष्य का ख्वाब बुनने में जुटे छात्रों की आंखों में सपने पूरी शिद्दत से तैर रहे हैं। ये दोहराना ना होगा कि इसकी वजह नकल ही बना है। सपनों और मुस्कान के कोलायडीस्कोप में स्थानीय लोगों की भी खुशियां शामिल हैं। लेकिन जो शिक्षा की अहमियत जानते हैं, उनके लिए शिक्षा का ये नाटक दर्द का सबब बन गया है।

चाहे लाख दावे किए जाएं, लेकिन ये सच है कि जब से परीक्षाओं की शुरूआत हुई है, कमोबेश नकल का चलन तब से ही है। लेकिन उत्तर प्रदेश की बोर्ड परीक्षाओं में नकल का जोर सत्तर के दशक बढ़ा और देखते ही देखते पूर्वी उत्तर प्रदेश में सामाजिक रसूख की वजह तक बन गया। जो जितने लोगों को नकल करा सके या कमजोर छात्रों की कापियां अपने दम पर नकल के सहारे लिखवा सके, उसका सामाजिक रूतबा उतना ही बढ़ने लगा। देखते ही देखते ये रोग राज्य के विश्वविद्यालयों तक में फैल गया। कभी पूरब का ऑक्सफोर्ड कहा जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय भी इस रोग की गिरफ्त में आ गया। हालात इतने बिगड़े कि यहां पीएसी के संगीनों के साये के बीच परीक्षाएं होने लगीं। राज्य में कभी पॉलिटेक्निक शिक्षा के लिए मशहूर रहे इलाहाबाद के ही हंडिया पॉलिटेक्निक और चंदौली पॉलिटेक्निक में संगीनों के साये के बिना परीक्षाएं कराने का साहस प्रिंसिपल नहीं कर पाते थे। राज्यों के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के छात्रसंघों में वही छात्रनेता जीत हासिल करने के काबिल माने जाने लगे। किसी – किसी साल तो नकल के लिए पूर्वी जिलों में अराजकता का माहौल तक बन जाता था। और फिर तो यह परंपरा ही बन गई। इस परंपरा पर ब्रेक पहली बार 1991 में तब लगा, जब कल्याण सिंह की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी। उस सरकार में बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे। तब राजनाथ सिंह जब भी किसी कार्यक्रम में जाते और वहां अपने स्वागत में जुटे छात्रों को हिदायत देने से नहीं चूकते थे कि पढ़ाई करो, हम लोग नकल नहीं करने देंगे। पहली बार कायदे से राज्य की सत्ता में आई बीजेपी के सामने शायद तब आदर्श स्थिति लागू करने का मिशन था, लिहाजा उत्तर प्रदेश में बरसों बाद नकल विहीन परीक्षा हुई। इस दौरान पुलिस को भी परीक्षार्थियों पर कार्रवाई करने के अधिकार दे दिए गए थे। नकलची छात्रों को जेल भेजा गया। यहीं सरकार से चूक हो गई। और एक अच्छा प्रयास प्रशासनिक चूकों की बलि चढ़ गया। बाद में 1993 के विधानसभा चुनावों में मुलायम सिंह ने अपने घोषणा पत्र में ही छात्रों को परीक्षाओं के दौरान छूट देने का ऐलान किया। जिसका फायदा उन्हें मिला और सत्ता में आते ही उन्होंने राज्य बोर्ड की परीक्षाओं में खुली छूट दे दी। इससे युवा वर्ग खुश तो हुआ, नकल के आधार पर परीक्षाएं कराने को एक तरह से सामाजिक वैधानिकता भी मिली। इससे एक बार फिर अभिभावकों और छात्रों के चेहरे पर मुस्कान लौट आई। लेकिन इस मुस्कान के साथ ही उत्तर प्रदेश में एक बार फिर ज्ञान आधारित सामाजिक ढांचा बनाने के विचार को तिलांजलि दे दी गई। उसी का असर है कि अब नकल विहीन परीक्षाएं आयोजित कराने के लिए हर साल दावे तो किए जाते हैं, लेकिन वे महज कागजी बन कर रह जाते हैं। इसी का असर हुआ है कि पूर्वी जिलों में नकल माफिया ने पैर फैला लिए हैं। इसके चलते नकल माफियाओं की बन आयी है। ये माफिया पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य उत्तर प्रदेश के छात्रों को सर्टिफिकेट दिलाने का सौदा करते हैं। उनके गलत पतों के आधार पर फॉर्म भरे जाते हैं। इसके सहारे पूर्वी जिलों में परीक्षाओं के दिनों में बाकायदा अर्थव्यवस्था तक चलने लगती है। इसी बार इन पंक्तियों के लेखक को सीतापुर के ऐसे छात्र मिले, जिन्होंने बलिया से फॉर्म भरा था। उन्हें प्रवेश पत्र हासिल करने के एवज में नकल माफियाओं को पचास हजार रूपए तक देने पड़े हैं।

कहा जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी ज्ञान और सूचना की सदी है। यानी आज के दौर में जिसके पास ज्ञान और सूचनाएं हैं, वही ताकतवर है। मानव विकास सूचकांक में उत्तर प्रदेश से उड़ीसा नीचे है। सूचना के दम पर वहां के युवाओं ने सिलिकॉन वैली से लेकर साइबराबाद और बेंगलुरू में परचम फहरा रखा है। लेकिन उत्तर प्रदेश ऐसी उपस्थिति दर्ज कराने में अब तक नाकाम रहा है। इसके अहम कारणों में एक वजह राज्य में नकल का संस्थागत होना भी है। दरअसल इन इलाकों में नकल सिर्फ प्रशासनिक समस्या नहीं है, बल्कि सामाजिक समस्या भी है। यहां के समाज में नकल करना और कराना नाक नीची होने की वजह नहीं है। अब तक नकल रोकने के जितनी भी कोशिशें हुईं हैं, वह सिर्फ प्रशासनिक ही रही हैं। सामाजिक स्तर पर इस बुराई को मिटाने की कभी कोशिश नहीं की गई। यही वजह है कि प्रशासनिक धमकी और डर के आगे कुछ वक्त तक नकल भले ही रूक जाती है, लेकिन यह चलन नहीं बन पाती। इसके ही चलते नकल माफियाओं की भी बन आती है।

एक बार मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के हिंदी भाषी समाज पर व्यंग्य करते हुए लिखा था कि इन इलाकों से सबसे ज्यादा लोगों को कोलकाता, मुंबई और दिल्ली में चौकीदार, चपरासी और रसोइए का ही काम मिल पाता है, क्योंकि शिक्षा से उनका कोई गहरा रिश्ता नहीं होता। दरअसल खुशवंत सिंह इस लेख के जरिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के समाज में शिक्षा को लेकर जो दृष्टि है, उस पर व्यंग्य कर रहे थे। कमोबेश यही स्थिति इन इलाकों से पढ़कर निकले ज्यादातर छात्रों की आज भी है। नकल के सहारे परीक्षाएं पास करके जब वे नौकरियों के बाजार में दूसरे इलाकों के छात्रों से प्रतियोगिता करने निकलते हैं तो पिछड़ना उनकी मजबूरी होती है। ऐसा नहीं कि उनमें प्रतिभाएं नहीं हैं। जब भी मौका मिलता है, वे अपनी प्रतिभा को साबित भी कर देते हैं। लेकिन शिक्षा का कमजोर आधार उन्हें पीछे कर देता है।

ऐसे में जरूरी ये है कि इन इलाकों में नकल का निदान सामाजिक बुराई के तौर पर किया जाय। नकल के खिलाफ इस इलाके के समाज को ही जगाना होगा। इसके जरिए सामाजिक नजरिए को भी बदला जाना होगा। अगर ऐसा हुआ तो यकीन मानिए, पूर्वी उत्तर प्रदेश के छात्र और नौजवान भी अपनी प्रतिभा के दम पर जिंदगी के तमाम क्षेत्रों में अपना परचम लहरा सकेंगे। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि सामाजिक बुराई के खिलाफ खड़ा होने की शुरूआत करने के लिए कोई तैयार है भी या नहीं.....।

Sunday, March 21, 2010

शैक्षिक गुणवत्ता सुधार पाएंगे विदेशी विश्वविद्यालय !


उमेश चतुर्वेदी
राजनीति जैसे-जैसे ऊंची मुकाम हासिल करती जाती है, वह संकेतों में बात करने लगती है। सीधी-सपाट बयानबाजी राजनीति में उपयोगी और सहज नहीं मानी जाती। वही राजनेता ज्यादा कामयाब माना जाता है, जो संकेतों में ही अपनी बात कहने में महारत हासिल कर चुका होता है। इन अर्थों में देखा जाय तो केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल भी सफल राजनेता हैं। इसी साल 19 जनवरी को जब वह देश के 44 डीम्ड विश्वविद्यालयों के दर्जे को खत्म किए जाने के फैसले का ऐलान कर रहे थे, तब उनका मकसद साफ था। यह बात और है कि शिक्षा व्यवस्था में निजीकरण के बाद आ रही गिरावट से चिंतित एक तबके को यह फैसला हालात को सकारात्मक बनाता नजर आ रहा था। यही वजह है कि उस वक्त कपिल सिब्बल के फैसले पर सवालों के घेरे में आए डीम्ड विश्वविद्यालयों के कर्ता-धर्ताओं के अलावा किसी ने हो हल्ला नहीं मचाया।
लेकिन उन्होंने उसी दिन एक संकेत जरूर दे दिया था। 15 मार्च को विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजे खोलने के कैबिनेट के फैसले के बाद साबित हो गया कि दरअसल डीम्ड यूनिवर्सिटी पर सवाल क्यों उठाए गए। उदारीकरण के दौर में आह अमेरिका और वाह अमेरिका करने वाली पीढ़ी के लिए कैबिनेट का यह फैसला एक तरह से घर बैठे स्वर्ग में पहुंचने जैसा लग रहा है। इसी वजह से इस फैसले का भी स्वागत हो रहा है।
भारतीय राजनीति को संकेतों में बात करने के साथ-साथ एक और काम में भी महारत हासिल है। पहले वह समस्याएं खड़ी करती है और फिर उसका समाधान करने लगती है। इस प्रक्रिया में एक दौर ऐसा भी आता है कि उसे तार्किक समाधान नहीं सूझता तो उसके लिए विदेशों की ओर देखने लगती है। यह सब कुछ जनता के नाम पर होता है। विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए राह खोलने का भी मसला कुछ ऐसा ही है। पहले आनन-फानन में डीम्ड विश्वविद्यालयों को मंजूरी दी गई। उसके बाद उनकी मान्यता रद्द करने की कोशिश तेज कर दी गई। सवाल ये है कि जब तक अपने विश्वविद्यालयों पर सवाल नहीं उठाया जाएगा तो क्वालिटी के नाम पर विदेशी विश्वविद्यालयों को लाने की वजह कैसे तैयार की जाती। कहना ना होगा कि जिस तरह पहले डीम्ड विश्वविद्यालयों पर सवाल उठाया गया और फिर विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में कैंपस खोलने की अनुमति देने वाले विधेयक को मंजूरी दी गई, उस पर संदेह होना स्वाभाविक है। दोनों फैसलों से साफ है कि सरकार को भी भारतीय युवाओं को क्वालिटी वाली उच्च शिक्षा विदेशी विश्वविद्यालयों में ही नजर आ रही है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि वे सभी डीम्ड विश्वविद्यालय दूध के धुले ही हैं, जिन पर सवाल उठाया गया है। टंडन समिति ने कहा है कि ये पारिवारिक बिजनेस के तौर पर चलाए जा रहे हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि कुछ विश्वविद्यालय दुकानों की तरह व्यवहार कर रहे हैं। अपनी चमकीली बिल्डिंग और आकर्षक ब्रोशर और चिकनी-चुपड़ी मार्केटिंग के जरिए छात्रों को आकर्षित करते हैं। एक बार जब छात्र उनके यहां प्रवेश ले लेता है तो पता चलता है कि पढ़ाई के नाम पर हकीकत में उससे ठगी हुई है। इसके बाद वह छटपटाने और इस छटपटाहट के लिए भारी फीस चुकाने के लिए मजबूर हो जाता है। यही वजह है कि जब डीम्ड यूनिवर्सिटी पर कपिल सिब्बल ने सवाल उठाए थे तो उसका स्वागत हुआ था। तब ये उम्मीद भी जताई जा रही थी कि उनके यहां पढ़ रहे छात्रों की समस्याओं का ध्यान रखा जाएगा।
विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में लाने का स्वागत हो रहा है तो उसके पीछे भी कुछ यही तर्क है। अपने देश में तकरीबन 12 फीसदी युवा ही उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं। देश के पास इतने विश्वविद्यालय नहीं हैं कि बाकी छात्रों को पढ़ा सकें। विदेशी विश्वविद्यालयों की राह खोलने के पीछे सरकार का तर्क है कि इससे भारतीय छात्रों को आसानी से उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा देश की ही धरती पर मिल सकेगी। लेकिन सवाल यह है कि भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों को रेगुलेट करने वाले उसी यूजीसी के ही वही अधिकारी ही होंगे, जिन्होंने गुणवत्तारहित संस्थानों को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने में देर नहीं लगाई। ऐसे में क्या गारंटी होगी कि विदेशी विद्यालयों के भारतीय कैंपस के साथ ऐसा नहीं होगा।
आह अमेरिका और वाह अमेरिका की रट लगाने वाली आज की पीढ़ी के बड़े हिस्से का सबसे महत्वपूर्ण सपना विदेश में पढ़ाई और नौकरी हो गई है। इसलिए उसे विदेशी विश्वविद्यालय भी खूब लुभाते हैं। हम अपने बेहतर संस्थानों को तो भूल जाते हैं, लेकिन विदेशी धरती का अदना सा संस्थान भी हमें बेहतर नजर आता है। लेकिन हकीकत यही नहीं है। विदेशी विश्वविद्यालय का मतलब येल यूनिवर्सिटी, कैंब्रिज. ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड ही नहीं होता। वहां भी बी और सी ग्रेड के विश्वविद्यालय हैं। वे अपनी धरती पर ही भारतीय छात्रों को भारतीय डीम्ड विश्वविद्यालयों की तरह ठग रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया में हाल के दिनों में हुए भारतीय छात्रों की हत्या और उन पर हमलों के बाद सामने आया कि वहां भी बी और सी ग्रे़ड के ढेरों विश्वविद्यालय हैं और वे छात्रों को ठग रहे हैं। जाहिर है कि विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक पास होने के बाद ज्यादातर बी और सीग्रेड के ही विश्वविद्यालय भारत में अपना कैंपस खोलेंगे। इस खबर के आने के तुरंत बाद येल यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट सेक्रेटरी फॉर इंटरनेशनल अफेयर्स जॉर्ज जोसेफ ने साफ कर दिया कि उनका विश्वविद्यालय भारत में फिलहाल कोई कैम्पस तैयार करने की किसी योजना पर काम नहीं कर रहा है। उन्होंने साफ कर दिया कि उनका विश्वविद्यालय दूसरे संस्थानों के साथ साझेदारी और गठबंधन पर ध्यान देगा। पिछले साल भारत दौरे पर आए इसी यूनिवसिर्टी के प्रेसिडेंट रिचर्ड सी लेविन ने संकेत दिया था कि उनका विश्वविद्यालय निकट भविष्य में भारत में कैम्पस बनाने पर गौर नहीं कर रहा है। हार्वर्ड और कॉर्नेल यूनिवर्सिटी की ओर से भी इसी तरह की राय देखने में आई थी।


इसी तरह के विचार कुछ और विश्वविद्यालयों ने भी जाहिर किए हैं। कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड और इंपीरियल कॉलेज लंदन ने साफ कहा है कि उनके यहां अभी तक भारत में अपने संस्थान खोलने का विचार भी नहीं किया है। हालांकि कनाडा के कुछ विश्वविद्यालयों ने भारत में अपने कैंपस खोलने की योजना में दिलचस्पी जरूर दिखाई है। विदेशी विश्वविद्यालयों की इस घोषणा के बाद जाहिर है कि दुनिया में अपनी गुणवत्ता वाली शिक्षा का डंका बजा चुके विश्वविद्यालयों का भारत आने का फिलहाल इरादा नहीं है। साफ है कि इस विधेयक के पारित होने के बाद भले ही भारतीय छात्रों को उच्च शिक्षा के सामने विदेशी विश्वविद्यालयों का विकल्प भले ही खुल जाए, वैश्विक शैक्षिक स्तर हासिल कर पाना आसान नहीं होगा। लेकिन एक चीज जरूर होगी। अभी मौजूद डीम्ड विश्वविद्यालय और दूसरे तरह के संस्थान विदेशी संस्थानों से गठबंधन जरूर करेंगे। येल यूनिवर्सिटी के
जोसफ का बयान ही इसी परिपाटी के स्थापित होने का संकेत देता है। उनके मुताबिक कई निजी विश्वविद्यालयों को भारतीय बाजार आमदनी का बड़ा स्त्रोत नजर आ रहा है। वे छात्र-छात्राओं को आकर्षित करना चाहते हैं, लिहाजा वे यहां यूनिट स्थापित करने में दिलचस्पी जरूर दिखाएंगे। विदेशी टैग लगना भारत में कमाई और गुणवत्ता की महत्वपूर्ण निशानी माना जाता है। जाहिर है कि ऐसा होने के बाद भारतीय विश्वविद्यालयों के पास पैसा बहुत हो जाएगा। उनकी फीस और महंगी हो जाएगी। और यह सब गुणवत्ता की किसी ठोस गारंटी के बिना होगा। जाहिर है, इसके बाद औसत आमदनी वाले छात्रों की पहुंच से शिक्षा दूर हो जाएगी। इनसे साथ ही पैसा आधारित शिक्षा की एक नई संस्कृति जन्म लेगी। शैक्षिक स्तर पर आज भी कम असमानता नहीं है। विदेशी विश्वविद्यालयों के आने के बाद यह और बढ़ेगा।
यही वजह है कि 2007 में वामपंथी दलों ने इस विधेयक का जोरदार विरोध किया था। तब के मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने भी इस विधेयक का मसौदा तैयार कराया था। लेकिन वामपंथी समर्थन की सीढ़ी के सहार खड़ी यूपीए सरकार अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाई। इन्हीं कारणों से खुद सरकार को भी आशंका है कि अगर संसद में ये विधेयक पेश किया गया तो बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, जनता दल-यू भी विरोध करेंगे। उदारीकरण की समर्थक भारतीय जनता पार्टी ने अभी तक विधेयक के समर्थन का वादा नहीं किया है। साफ है कि सरकार के लिए इस विधेयक को पारित कराना आसान नहीं होगा।
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को लगता है कि अगर ये विधेयक पारित हो गया तो टेलीकॉम सेक्टर में हो रहे बदलावों से भी बड़ी क्रांति हमारा इंतजार कर रही है। उनकी बात सही हो सकती है। क्रांति तो होगी ही, महंगाई की मार रो रहे निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों की पहुंच से उच्च शिक्षा दूर होती जाएगी। तब युवा पीढ़ी के बीच सोच और शिक्षा के स्तर पर भारी असमानता होगी। जो निश्चित तौर पर देश के मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होगा। बेहतर हो कि कपिल सिब्बल और उनका मंत्रालय इस दिशा में भी सोच कर कुछ एहतिहाती कदम उठाने की तैयारी करे। तभी समानता की धरती पर सचमुच कोई शैक्षिक क्रांति हो सकेगी।

Friday, March 5, 2010

पूर्वांचल वाले अमर भईया


उमेश चतुर्वेदी
पूर्वी उत्तर प्रदेश को अलग करके पूर्वांचल राज्य बनाने की मांग यूं तो काफी पुरानी है। जब पिछले दिनों तेलंगाना राज्य बनाने को लेकर चल रहा आंदोलन तेज हुआ तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी पूर्वांचल को अलग बनाने की मांग करने वालों में शामिल हो गईं। दिलचस्प बात ये है कि सिर्फ दो महीने पहले तक उत्तर प्रदेश के बंटवारे का विरोध करने वाले अमर सिंह को भी पूर्वांचल राज्य में ही पूर्वी उत्तर प्रदेश का भविष्य नजर आने लगा है। इस मांग को जोरदार तरीके से उठाने के नाम पर उन्होंने अपने गृह जिले आजमगढ़ में 26 फरवरी को बाकायदा स्वाभिमान रैली का आयोजन भी कर डाला।
हालांकि राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अमर सिंह को पूर्वी उत्तर प्रदेश की बदहाली ने उतना प्रभावित नहीं किया है, जितना वे अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने के लिए परेशान हैं। स्वाभिमान रैली का असल मकसद यही था। अमर सिंह को लगता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल राज्य के नाम पर जनसमर्थन जुटाया जा सकता है। इसीलिए वे जोरशोर से पूर्वी उत्तर प्रदेश की हर सभाओं में इस मांग को उठा रहे हैं।
लेकिन जिन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की मिट्टी की पहचान है, उन्हें पता है कि पूर्वांचल राज्य को लेकर नया आंदोलन यहां खड़ा करना आसान नहीं है। अलग तेलंगाना आंदोलन जब तेज हो रहा था, तब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमान ने पूर्वी उत्तर प्रदेश को बिहार से जोड़कर नया राज्य बनाने का सुझाव ही दे डाला था। ये सुझाव भले ही लोगों को नया और लीक से अलग नजर आ रहा हो, लेकिन हकीकत ये है कि ऐसी मांग पिछली सदी के आखिरी दिनों में उनके ही पूर्ववर्ती लालू प्रसाद यादव कर चुके हैं। एनटी रामाराव के भारत देशम की तर्ज पर उन्होंने भोजपुरी देशम की मांग रखी थी। लालू यादव ने जिस समय ये मांग रखी थी, उस समय वे अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे। राजनीतिक पंडित जनता के रूख को मोड़ने की किसी नेता की ताकत का अंदाजा उसकी लोकप्रियता के जरिए ही आंकते रहे हैं। इस आधार पर भोजपुरी देशम राज्य की मांग अब तक पूरे शवाब पर होती। लेकिन पूर्वांचल का भोजपुरी भाषी समाज भले ही किसी और मसले पर अपने नेता के पीछे चलने लगता हो, लेकिन राज्य और राष्ट्र के मसले पर वह दूसरे इलाके के लोगों की तरह भेड़चाल में शामिल नहीं हो सकता। शायद यही वजह है कि अब तक ना तो अलग पूर्वांचल राज्य की मांग सिरे से परवान चढ़ पाई है, ना ही भोजपुरी देशम का सपना कायदे से खड़ा होता दिख रहा है।
पूर्वांचल के लोगों की इस मानसिकता को वहां के राजनेता भी अच्छी तरह समझते रहे हैं। इसी मिट्टी से निकले चंद्रशेखर खुलेआम मानते रहे कि विकास के दम पर राजनीति नहीं की जा सकती। जिस बलिया की जनता की नुमाइंदगी करते हुए चंद्रशेखर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, वहां आज भी सड़कों के बीच गड्ढा या गड्ढे के बीच सड़क खोजी जा सकती है। लेकिन वहां की जनता को इस बात का मलाल नहीं रहा कि उसका विकास देश के दूसरे वीआईपी नेताओं के चुनाव क्षेत्रों का क्यों नहीं हुआ। बलिया के लोग इसी तथ्य से गर्व भरे संतोष का अनुभव करते रहे हैं कि वे जिस नेता को संसद की दहलीज तक पहुंचाते रहे हैं, उसकी आवाज अंतरराष्ट्रीय मंचों तक सुनी जाती रही है। बदहाली और विकास की किरणों से उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाकों से मीलों पीछे स्थित इस इलाके के लोगों की मानसिकता अब तक बदल नहीं पाई है। शायद मायावती भी इस तथ्य को समझ रही हैं, यही वजह है कि उन्होंने पूर्वांचल को अलग करके नया राज्य बनाने के लिए केंद्र सरकार को चिट्ठी लिखने में देर नहीं लगाई।
पूरी दुनिया में अलग राष्ट्र या अलग राज्य बनाने की मांग के पीछे स्थानीय अस्मिताओं की राजनीतिक और जातीय पहचान बचाए रखना सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है। विकास और स्थानीय हाथों में राजनीतिक सत्ता को बनाए रखना दूसरा बड़ा कारण है। इन अर्थों में देखा जाय तो पूर्वी उत्तर प्रदेश को काटकर अलग राज्य बनाए जाने की मांग को जनता का व्यापक समर्थन मिलना चाहिए था। एक दौर में पूर्वी उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता और राज्य के पूर्व वित्त मंत्री मधुकर दिघे ने भी इस इलाके को अलग राज्य बनाने की मांग रखी थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के रसूखदार नेता रहे शतरूद्र प्रकाश और भदोही से भारतीय जनता पार्टी के सांसद रहे वीरेंद्र सिंह मस्त भी अलग पूर्वांचल राज्य बनाने की मांग संसद से लेकर सड़क तक उठा चुके हैं। लेकिन जनता का उन्हें साथ नहीं मिल पाया। यहां की जनता विकास की बजाय इसी बात से गर्वान्वित होती रही कि उसने पंडित जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर जैसे प्रधानमंत्रियों को जन्म दिया।
छोटे राज्यों की मांग के पीछे स्थानीय समुदाय और सियासत के हाथ सत्ता की ताकत हासिल करना भी रहा है। ताकि स्थानीय स्तर पर विकास की नदी की धार बहाई जा सके। इस आधार पर देखें तो छह प्रधानमंत्रियों वाले इस इलाके का नक्शा देश के दूसरे इलाकों से ज्यादा चमकदार होना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।
सच तो ये है कि विकास की दौड़ में यह राज्य आज भी दूसरे विकसित राज्यों की कौन कहे, पश्चिमी और मध्य प्रदेश की तुलना में ही कोसों पीछे है। राष्ट्रीय नमूना सवेँ के 61वें दौर के सर्वेक्षण के मुताबिक पूर्वांचल के ग्रामीण इलाकों में 56.5 प्रतिशत और शहर में 54.8 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रही है। 1999-2000 में अकेले पूर्वी उत्तर प्रदेश की 35.6 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी, जबकि पूरे उत्तर प्रदेश में गरीबी का औसत 31 प्रतिशत था। नियोजन विभाग की अध्ययन रिपोर्ट में पाया गया कि प्रदेश के सबसे कम विकसित 14 जिलों में 11 पूर्वी उप्र के हैं और दो बुंदेलखंड के। खुद योजना आयोग की उत्तर प्रदेश विकास रिपोर्ट ही मानती है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तुलना में पूर्वी उत्तर प्रदेश में निवेश भी कम हो रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां 66.8 प्रतिशत निवेश हुआ है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में महज साढ़े सत्रह फीसदी ही निवेश हुआ। आज बिजली विकास का पैमाना बन गई है। लेकिन खुद राज्य के ही नियोजन विभाग के मुताबिक ग्रामीण विद्युतीकरण के मसले में भी पूर्वी उत्तर प्रदेश सिर्फ बुंदेलखंड इलाके से ही आगे है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जहां 88.81 प्रतिशत गांवों में बिजली पहुंच गई है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के 76.78 प्रतिशत गांवों को ही बिजली नसीब हो पाई है। नियोजन विभाग ने अपने प्रमुख पैमाने पर राज्य की प्रति व्यक्ति आय का जो आंकड़ा दिया है, उसमें भी उत्तर प्रदेश काफी पीछे है। इसके मुताबिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय जहां 17083 रुपए है, वहीं पूर्वांचल के लोगों की प्रति व्यक्ति आय 9499 रुपए है। कुल सिंचित भूमि के हिसाब से भी पूर्वी उत्तर प्रदेश बाकी इलाकों से पीछे है। पश्चिमी इलाके में जहां 62 फीसदी भूमि सिंचित है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश में ये आंकड़ा महज चालीस फीसद ही है। राज्य नियोजन विभाग की वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक विकास में भी पश्चिमी उप्र का पलड़ा अन्य क्षेत्रों से काफी भारी है। राज्य नियोजन विभाग की वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2004-05 में जहां पश्चिमी उप्र में पंजीकृत कारखानों की अनुमानित संख्या 7265 थी, वहीं मध्य उप्र में यह 2245, पूर्वी उप्र में 1379 और बुंदेलखंड में महज 159 थी। और तो और साक्षरता के मसले पर भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश राज्य के दूसरे इलाकों से पीछे ही है। पूर्वांचल के जहां 55.22 प्रतिशत लोग साक्षर हैं, वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 58.44 प्रतिशत लोग साक्षर है। इस मामले में बुंदेलखंड दूसरे इलाकों से आगे है, जहां के करीब 60.32 प्रतिशत लोग साक्षर हैं। शिक्षा भले ही आज विकास का सबसे बड़ा पैमाना माना जा रहा हो। लेकिन प्रति लाख जनसंख्या पर प्राथमिक विद्यालयों की संख्या के लिहाज से भी पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य के दूसरे क्षेत्रों से पीछे है। सबसे ज्यादा प्राथमिक स्कूल 104 प्रतिलाख बुंदेलखंड में हैं। ऐसा इसलिए संभव हो पाया है, क्योंकि इस इलाके का जनसंख्या घनत्व राज्य के दूसरे इलाकों की तुलना में बेहद कम है। वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रति लाख जनसंख्या पर 79 स्कूल हैं तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में ये आंकड़ा महज 68 है। यही हालत अस्पतालों और उनमें मौजूद बिस्तरों की भी है।
आंकड़ों का आधार गवाह है कि उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड से पूर्वी उत्तर प्रदेश की थोड़ी बेहतर स्थिति है। लोगों को पता है कि उनके यहां बिजली नहीं आने वाली, सड़कों में गड्ढे ढूंढ़ने की उनकी अनवरत यात्रा जारी रहेगी। इन दुश्वारियों को झेलने के बावजूद अगर यहां अलग राज्य की मांग सिरे से परवान चढ़ती नजर नहीं आ रही तो इसकी एक बड़ी वजह ये है कि यहां के लोग राष्ट्रीयताबोध से बेहद ओतप्रोत हैं।
1962 में गाजीपुर के तत्कालीन सांसद विश्वनाथ गहमरी ने जब इस इलाके की गरीबी की दास्तान सुनाते हुए लोकसभा को बताया था कि यहां के गरीब लोग गोबर से अनाज का दाना निकाल कर खाने को मजबूर हैं, तो नेहरू की ऑंखें भी छलछला उठी थीं। इस घटना को बीते भी पांचवा दशक होने को है। अब लोग बेशक गोबर से दाना निकाल कर नहीं खा रहे, लेकिन यहां की ज्यादातर आबादी की हालत में खास बदलाव नहीं आया है। ऐसे हालात में भी मायावती के सुझाव के बावजूद अलग राज्य की मांग को लेकर कोई खास सुगबुगाहट नजर नहीं आ रही है।
(यह लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित हो चुका है।)

Saturday, February 13, 2010

अब नहीं जलती लालटेन

उमेश चतुर्वेदी
हम जैसे – जैसे एक उम्र की सीमा को पार करने लगते हैं, अपने पुराने दिन, घर-परिवार की बातें और स्कूल की शरारतें याद आने लगती हैं। भले ही किसी की उम्र ज्यादा क्यों न हो गई हो, उसकी मौत उसके साथ बिताए दिनों की बेसाख्ता याद दिलाने लगती है। अपने मिडिल स्कूल के एक गुरूजी की मौत के बाद मुझे जितनी उनकी याद आई, उसके साथ ही उनकी छड़ी की सोहबत में गुजारे स्कूली दिन भी स्मृतियों में ताजा हो गए। यही वजह रही कि इस बार गांव जाने के बाद मैं अपने मिडिल स्कूल जा पहुंचा। स्कूल की बिल्डिंग वैसी ही खड़ी है, जैसी शायद पिछली सदी के चालीस के दशक में खड़ी थी। लेकिन चालीस के दशक से ही चलती रही एक परंपरा ने यहां भी अपना दम तोड़ दिया है।
दरअसल तब आठवीं का इम्तहान भी बोर्ड के तहत देना होता था। हमारे स्कूल की चूंकि पढ़ाई की दुनिया में बरसों पुरानी साख थी, लिहाजा इस साख को बचाए रखने के लिए हमारे गुरूजी लोग जाड़े का दिन आते ही स्कूल में ही छात्रों के बिस्तर लगवा देते। इसके लिए धान की पुआल दो कमरों में डालकर उस पर दरी बिछा दी जाती। ये इंतजाम स्कूल की तरफ से ही होता था। फिर उस पर अपने घरों से ओढ़ना-बिछौना लाकर आठवीं के छात्र डाल देते। सिरहाने उनकी पूरी किताबें और नोटबुक होती। तब स्कूल में बिजली नहीं थी, लिहाजा सबको अपने लिए लालटेन भी लानी होती थी। दीपावली बाद से लेकर मार्च – अप्रैल में इम्तहान होने तक सभी छात्र को सिर्फ दिन में एक बार घर जाने की अनुमति होती थी। यह मौका शाम की छुट्टियों के बाद ही आता। घर जाकर सभी लोग खाना खाते, कपड़े बदलते और रात के खाने के साथ ही देसी फास्टफूड की पोटली लेकर आते थे। दिन में कक्षाओं में पढ़ाई होती और रात में गुरूजी लोग के निर्देशन में लालटेन की रोशनी में पढ़ाई होती। छात्रों का रिजल्ट खराब न हो, इसके लिए गुरूजी लोग खास ध्यान देते। छात्रों को गुरूकुल की भांति हर दिन चार बजे भोर में जगाया जाता। गुरूजी लोग भी जागते और पढ़ाई कराते। इतनी मेहनत के बाद भी गुरू लोग अपने ही खर्च से स्कूल में खाना बनाते। इसके लिए अलग से कोई फीस नहीं ली जाती थी। हां, परीक्षा पास होने के बाद हर छात्र गुरू दक्षिणा के तौर पर पांच या दस रूपए देता था। अगर मानें तो तीन-चार महीने की पढ़ाई का यही गुरूओं का मेहनताना होता।
स्कूल में पहुंचते ही मुझे अपने जमाने के वे दिन याद आने लगे। मैंने पूछताछ शुरू की तो पता चला कि यह परंपरा टूटे कई साल हो गए। वैसे तो अब खाते-पीते परिवारों के बच्चे यहां पढ़ने ही नहीं आते। उनके लिए अब कस्बे में ही अंग्रेजी नाम वाले कई स्कूल खुल गए हैं। जहां वे मोटी फीस देकर पढ़ते हैं। ये बात और है कि इन स्कूलों के चलाने वाले लोग हमारे स्कूल की लालटेन की रोशनी से ही निकले हुए हैं। कहते हैं, व्यक्ति अपने शुरूआती जीवन में सीखता है, उसे बाद के दिनों में भी अख्तियार किए रखता है। लेकिन तकरीबन इस नि:स्वार्थ परंपरा को हम अपनी जिंदगी में उतार नहीं पाए हैं। बाजार के दबाव ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को भी पूरी तरह निगल लिया है। जहां अब गुरू न तो छात्रों को अपने परिवार का अंग समझता है ना ही छात्रों के मन में उसके लिए श्रद्धा ही बची है। ऐसे में शिक्षा भी व्यवसाय बन गई है। जहां लोग अपनी हैसियत के मुताबिक कीमत देकर उसे हासिल कर रहे हैं। जो बड़ी कीमत देकर ऊंची तालीम हासिल नहीं कर पाता है, उसे बाजार में खुद के पिछड़ने का मलाल रह जाता है। लेकिन आज से करीब दो दशक पहले तक स्थिति ऐसी नहीं थी। कस्बे के जमींदार, थानेदार से लेकर चौकीदार तक का बेटा एक साथ पढ़ते थे। सबकी लालटेनें एक साथ जलती थीं और इनकी सम्मिलित रोशनी समाज में मौजूद अंधियारे को मिटाने की कोशिश करती थीं। ऐसा नहीं कि तब सारे गुरू दूध के धुले ही थे। समाज में कभी-भी सबकुछ दूध का धुला ही नहीं होता। लेकिन उसकी फिजाओं में इसकी तासीर कम या ज्यादा जरूर होती है। कहना ना होगा कि तब के दिनों में शिक्षा कम से कम दुकानदारी के तासीर से मुक्त थी, जहां अध्यापक हर छात्र को पढ़ाना और उसे काबिल आदमी बनाना अपना कर्तव्य समझता था। शायद यही वजह है कि लालटेन से जो रोशनी निकलती थी, वह शिक्षा के साथ एक रिश्ते का भी प्रसार करती थी। आज स्कूल भी वही है। अध्यापकों को पहले से कई गुना ज्यादा पगार मिलती है। वहां बिजली भी आ गई है। उसकी रोशनी की चमक भी कहीं ज्यादा है। लेकिन अफसोस रिश्तों की वह डोर बाकी नहीं बची है, जो लालटेन वाले दिनों की खास पहचान हुआ करती थी।
जनसत्ता के कॉलम दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित

Thursday, January 21, 2010

एक दुनिया ऐसी भी

उमेश चतुर्वेदी
किसी सभा संगत में बोलने का मौका मिले तो अच्छे-भले लोगों की बांछें खिल उठती हैं, ऐसे में किसी नए-नवेले को अवसर मिले तो उसकी खुशियों का पारावार नहीं होगा। दिल्ली की एक संगत से बुलावा मिला तो मेरी भी हालत कुछ वैसी ही थी। लेकिन वहां पहुंचकर जो अनुभव हुआ, उसने मेरी आंखें ही खोल दीं। देश की हालत पर चर्चा करते हुए मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की उस रिपोर्ट का जिक्र कर बैठा – जिसके मुताबिक देश के आज भी करीब चौरासी करोड़ लोग रोजाना सिर्फ बीस रूपए या उससे नीचे पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। योजना आयोग की बनाई इस कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र मैंने इसलिए किया, ताकि वहां बैठे नौजवान श्रोताओं को पता चला कि मॉल और महंगी गाड़ियों से अटी दिल्ली-मुंबई के बाहर की देसी दुनिया और उसके लोग कैसे हैं। इस उदाहरण के बाद पता नहीं कितने नौजवानों की आंखें खुलीं, लेकिन एक नौजवान ने जैसे सवाल मेरी ओर उछाले, उससे चौंकने की बारी मेरी थी।
दरअसल वह नौजवान मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत की इतनी बदतर हालत है। जिस कॉलेज से वह आया था, वह दिल्ली के संभ्रांत कॉलेजों में गिना जाता है। माना जाता है कि वहां संभ्रांत तबके के लोगों के ही बच्चे पढ़ते हैं। जाहिर है वह बच्चा भी वैसे ही समाज से था। महंगे और आधुनिक फ्लैट से निकल कर महंगी गाड़ियों के बाद चमकते मॉल और रेस्तरां और बेहतरीन स्कूलों के बीच उसकी जिंदगी गुजरी थी या गुजर रही है। वह मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत में सचमुच इतनी गरीबी और बदहाली है। उसे लगता था कि मैं उसे बेवकूफ बना रहा हूं। अव्वल तो वह यह मानने को तैयार ही नहीं था कि योजना आयोग ने ऐसी कमेटी भी बनाई थी, जिसने कोई ऐसी रिपोर्ट भी दी थी। भारत में ऐसी गरीबी और बदहाली को तो खैर वह मान ही नहीं रहा था। वह तो शुक्र है कि जिस संगत में गया था, वहां इंटरनेट की सुविधा थी। लिहाजा मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की वह रिपोर्ट डाउनलोड की और उसे पढ़ने के लिए दे दिया।
कई लोगों को लग सकता है कि दिल्ली में संभ्रांत घरों के ऐसे भी बच्चे हैं, जिन्हें अखबारी और टीवी की दुनिया से इतना भी वास्ता नहीं है कि वे ऐसी जानकारियों से लैस रह सकें। लेकिन यही सच है। खाए-अघाए वर्ग के बच्चों का एक बड़ा तबका ना सिर्फ ऐसी जानकारियों से दूर है, बल्कि उसे सामान्य ज्ञान की भी जानकारी नहीं है। रही बात भारत की गरीबी की, तो इस बारे में भी उनकी जानकारी अधूरी या अधकचरी है।
इस अनुभव के बाद मुझे लगा कि मैकाले की स्वर्ग में बैठी आत्मा बेहद खुश होगी। मैकाले ने 1835 में जिस शिक्षा व्यस्था की नींव रखी थी, उसका मकसद था भारत नहीं इंडिया का निर्माण। मैकाले सफल कितना सफल हो पाया, यह तो अलग शोध का विषय है, लेकिन उदारीकरण के दौरान या उसके बाद पैदा हुई महानगरीय पीढ़ी ने उसकी मंशा जरूर पूरी कर दी है। मैकाले तो सफल नहीं हुआ, लेकिन उदारीकरण ने वह सीमा रेखा जरूर खींच दी है, जिससे भारत और इंडिया साफ बंटे नजर आ रहे हैं।
इस घटना के बाद मुझे प्रिंस क्रोपाटकिन की किताब – नवयुवकों से दो बातें – काफी शिद्दत से याद आने लगी। जिसे मैंने किशोरावस्था की ओर कदम रखते वक्त पढ़ा था। इस किताब में वह डॉक्टर, अध्यापक और वकील जैसे प्रोफेशनल से पूछते हैं कि अगर उनके सामने गरीब और बेसहारा आम आदमी और उसके बच्चे अपनी समस्या लेकर आते हैं तो उनका क्या जवाब होगा या फिर वे कैसे उससे निबटेंगे। जाहिर है, जवाब पारंपरिक ही होंगे कि मसलन डॉक्टर रोगी के लिए फल और दूध के साथ दवाइयां ही सुझाएगा। तब क्रोपाटकिन दूसरा सवाल उछालते हैं कि जब उनके पास इसकी सामर्थ्य ही नहीं होगी, तब ... और क्रोपाटकिन का यह सवाल ही आंख खोल देता है। काश कि ऐसी किताबें आज की महानगरीय पीढ़ी को पढ़ने को दी जातीं और वह इससे कुछ संदेश लेती। तब शायद उन्हें पता चलता कि देश की असल हालत क्या है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या आज की यह महानगरीय पीढ़ी इसके लिए तैयार भी है या नहीं...

सुबह सवेरे में