Monday, October 13, 2008

आप नैनो के पक्ष में हैं या खिलाफ …...

उमेश चतुर्वेदी
आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई और आम आदमी की कार कही जाने वाली नैनो में कोई समानता हो सकती है भला ! अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और टाटा संस के चेयरमैन रतन टाटा में भी कोई तुलना कैसे की जा सकती है ? लेकिन नैनो पर राजनीति ने जिस तरह करवट बदली है – ऐसा ही हो रहा है। बुश ने तालिबान के खिलाफ लड़ाई छेड़ते वक्त कहा था कि आतंकवाद के खिलाफ उनका साथ दें। जो साथ देगा, वह आतंकवाद का विरोधी है, जो साथ नहीं देगा- उसे आतंकवाद का मददगार माना जाएगा। नैनो की राजनीति में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।
सिंगूर से उठकर रतन टाटा साणंद पहुंच गए हैं। एक एम (ममता बनर्जी ) ने उन्हें परेशान किया तो दूसरे एम ( नरेंद्र मोदी ) ने उन्हें उबार लिया और एक एस ( सिंगूर ) से उठाकर दूसरे एस ( साणंद) को पहुंचा दिया। ममता से पीछा छुड़ाकर टाटा अब दूसरे मोदी की संगत में गदगद नजर आ रहे हैं। लेकिन संबंधों के बनाव-बिगाड़ के इस दौर में औद्योगीकरण के पक्ष और विपक्ष में चर्चाएं शुरू हो गई हैं। ठीक उसी तरह – जैसे आतंकवाद को लेकर जार्ज बुश ने कहा था। यानी अगर आप नैनो के पक्ष में हैं तो आप औद्योगीकरण और उद्योगों, गरीबी उन्मूलन और रोजगार सृजन के सहयोगी है। अगर ऐसा नहीं है तो इसका मतलब साफ है कि आप उद्योगों और रोजगार की संभावनाओं के खिलाफ हैं। दिलचस्प बात ये है कि इस मसले पर उद्योग संगठनों से लेकर बीजेपी और वामपंथी- सभी एक समान राय रखते हैं। भारतीय लोकतंत्र में उलटबांसियों का खेल समझने के लिए ये उदाहरण भी मौजूं होगा। परमाणु करार के खिलाफ वाम और दक्षिण साथ हैं। अब नैनो को लेकर भी वाम और दक्षिण एक ही मंच पर नजर आ रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने नैनो को साणंद पहुंचाकर बाजी मार ली है। जाहिर है वे विजयी भाव से सियासी मैदान पर नजर फिरा रहे हैं। जबकि सिंगूर से नैनो के बाहर होने के बाद पश्चिम बंगाल के वामपंथी दल निराशा के गर्त में गोते लगाते नजर आ रहे हैं। इस पूरे प्रकरण में रतन टाटा समेत उद्योगपतियों की भूमिका किनारे बैठ लहरों का आनंद लेने वाले शख्स की तरह है। टाटा समेत कुछ उद्योग संगठनों को लगता है कि अब पश्चिम बंगाल का भला होने से रहा। कहना ना होगा – उनके बैठाए इस डर ने पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को परेशान कर रखा है। मजदूरों के हितैषी दर्शन पर खड़ी मार्क्सवादी पार्टी की अब प्रमुख चिंता ये है कि उसकी छवि कहीं उद्योग विरोधी की न बन जाए। रतन टाटा को मार्क्सवादियों की ये दुविधा और डर पता है – लिहाजा वे इसे भरपूर तरीके से भुना रहे हैं। रतन टाटा देश के एक प्रमुख उद्योगपति हैं। जाहिर है, उद्योग संगठन उनका साथ देंगे ही और वे दे रहे हैं।
नैनो के समर्थन और नैनो विरोध की कसौटी पर किसी को कैसे कसा जा सकता है कि वह उद्योग का विरोधी या है या नहीं। मौजूदा माहौल में ममता बनर्जी कठगरे में खड़ी नजर आ रही हैं। उद्योग जगत उनकी ओर उंगली उठाए खड़ा है। अपनी उग्र राजनीति के लिए ममता वैसे ही राष्ट्रीय स्तर पर सवालों के केंद्र में रही हैं। लेकिन वे इतनी भी नौसिखुआ नहीं हैं कि उन्हें इस आंदोलन के इस हश्र का अंदाजा नहीं होगा। नैनो की सियासत के इस नतीजे का उन्हें अंदाजा हो गया था – तभी वे सोनिया गांधी और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी से मिलकर इस मसले के हल में मध्यस्थता करने की अपील की। गांधी ने भूमिका निभाई भी। दुर्गापुर हाइवे जाम करके कोलकाता की सब्जी-दूध सप्लाई लाइन को सफलतापूर्वक बाधित करने वाली ममता बनर्जी का खुद को बचाव वाले इस कदम पर टाटा की नजर थी। जो टाटा हर हाल में सिंगूर न छोड़ने का दावा करते रहे थे , उन्होंने पश्चिम बंगाल को टा-टा करने का मन बना लिया। फिर उद्योग समर्थकों के पलक-पांवड़े बिछाने की होड़ लग गई। उत्तरांचल, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात की इस होड़ में गुजरात ने बाजी मारी। अब ममता बनर्जी कठगरे में हैं और चुप हैं।
यहीं भारत के किसान आंदोलन की बिडंबना खुलकर सामने आ जाती है। इस देश में किसानों के हकों की बात करना इतना बड़ा गुनाह हो गया है कि आप उद्योग और रोजगार के विरोधी ठहरा दिए जाते हैं। सिंगूर के किसान भी उद्योगों के खिलाफ नहीं हैं। ममता बनर्जी ने किसानों की इसी आवाज को ताकत देने की कामयाब कोशिश की थी। किसानों की लड़ाई में साथ उतरीं महाश्वेता देवी और मेधा पाटकर भी उद्योगों की विरोधी नहीं रहीं। उनका सिर्फ इतना ही कहना था कि जिस जमीन के मालिक सदियों से किसान हैं – उनकी मर्जी के खिलाफ उनकी ही जमीन से बेदखल किया जाना गलत है। महाश्वेता देवी और मेधा पाटकर भी उसी दर्शन में भरोसा करती हैं – जिसमें पश्चिम बंगाल में सरकार चला रही सीपीएम का विश्वास है। इस आंदोलन में वामपंथी कार्यकर्ताओं के कोप का निशाना बन चुकीं मेधा पाटकर और महाश्वेता देवी ने सुझाव भी दिया था कि अगर उद्योगों के लिए जमीन चाहिए ही तो पश्चिम बंगाल में भी काफी बंजर भूमि है, उन्हें ही क्यों न लिया जाए। उस जमीन को लेने से किसानों के रोजी-रोजगार पर भी असर नहीं पड़ेगा और बंजर भूमि को उद्योगों के लिए उद्योगपति और सरकार मिलकर विकसित कर सकते हैं। लेकिन उद्योग और उदारीकरण के पक्ष में उठी लहर ने ये सोचने की ताकत उस वामपंथ से भी छीन ली है – जिसे कम से कम ऐसे मसलों पर सोचने वाला माना जाता रहा है।
महाराष्ट्र और दादरा नगर हवेली में अपनी संस्था वनराई के जरिए क्रांति लाने वाले पूर्व युवा तुर्क मोहन धारिया ने इन पंक्तियों के लेखक से एक बार देश में बेतहाशा तरीके से खुल रहे स्पेशल इकोनॉमिक जोन को लेकर चिंता जताई थी। उनका कहना था कि हमसे करीब ढाई गुना ज्यादा बड़े देश चीन में कुल पचहत्तर सेज हैं, जबकि अपने देश में चार सौ उन्नीस प्रस्ताव या तो मंजूर हो चुके हैं या वहां काम शुरू हो चुका है। इनमें से ज्यादातर सेज हरी-भरी उपजाऊ जमीनों पर ही बने हैं या बन रहे हैं। जिस तरह पिछले कुछ महीनों से खाद्यान्नों की महंगाई का सामना पूरी दुनिया कर रही है, उसमें उपजाऊ जगहों पर सेज विकसित किए जाने की प्रक्रिया पर ही सवाल उठ रहे हैं। इस सिलसिले में एक जबर्दस्त चुटकी पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश प्रभु ने ली। उनका कहना था कि एक तरफ सरकार बंजर भूमि के विकास के लिए करोड़ों रूपए खर्च कर रही है और दूसरी तरफ उपजाऊ जमीन पर सेज बनाने के प्रस्तावों को मंजूरी दे रही है। अफसोस की बात ये है कि सिंगूर के बहाने किसानों ने जो सवाल उठाए थे, उसके जरिए किसानों के आंदोलन को एक नई दिशा दी जा सकती थी, उनके अधिकारों के बहाने देश में खाद्यान्न संकट को हल करने की दिशा में नई बहस हो सकती थी। जिसके मंथन से निकला वैचारिक मक्खन देश को नई दिशा देता। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि देश का औद्योगीकरण किस कीमत पर हो, खाद्यान्न की कीमत पर..किसानों के हक की कीमत पर या फिर उद्योगपतियों की इच्छाओं की कीमत पर ...सिंगूर ने यही सवाल उठाने की कोशिश की थी। सिंगूर के किसानों की भी इच्छा रही होगी कि वे नैनो कार में सवारी करें। उनका भी सपना फ्लैट स्क्रीन टीवी और फोर जी तकनीक वाले फोन के उपयोग का रहा है। लेकिन क्या रोटी या भात की कीमत पर ये सपने ..ये इच्छाएं पूरी की जा सकती हैं। क्या पेट में रोटी के बिना इन फोन और कार की कोई वकत है..। सिंगूर ने विस्थापन पर भी सवाल उठाए हैं। विस्थापन के एवज में किसानों को कुछ मिले – इसका समर्थन कम से कम वह नहीं कर सकता , जिसने विस्थापन की पीड़ा झेली होगी। वैसे भी बंजर और रेतीली माटी वाले इलाके से विस्थापन का उतना दर्द नहीं होता – जितना रोटी और रोजी देने वाली जमीन को छोड़ते वक्त होता है। सिंगूर ने इन समस्याओं पर भी ध्यान खींचने की कोशिश की थी। लेकिन दुर्भाग्य ये कि देश नैनो के पक्ष और विपक्ष की राजनीति में ही अपना भविष्य देख रहा है।

Friday, October 3, 2008

नहीं बदली विदर्भ की तसवीर


यवतमाल से लौटकर उमेश चतुर्वेदी
विदर्भ में किसानों की हत्याओं के आंकड़ों ने 2004 के लोकसभा चुनावों की तसवीर बदलने में जबर्दस्त भूमिका निभाई थी। गैरसरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल कुल जमा 441 किसानों की मौत हुई थी। इसके ठीक पहले यानी साल 2003 में किशोर तिवारी और प्रकाश पोहरे जैसे सक्रिय कार्यकर्ताओं के मुताबिक 144 लोगों ने अपनी जान खेती के नाम कुरबान की थी। जिन्हें पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान सोनिया गांधी की सभाएं याद हैं – खासतौर पर विदर्भ और आंध्रप्रदेश के तेलंगाना की – वे एनडीए सरकार की किसान विरोधी नीतियों को कोसती रहीं। उनकी पूरी कोशिश वाजपेयी सरकार के फील गुड और इंडिया शाइनिंग के नारे की धज्जियां उड़ाने पर रहती थीं। विदर्भ और तेलंगाना के किसानों की आत्महत्याओं का मसला जोरदार तरीके से उठाकर अपनी कोशिश में वे कामयाब भी रहीं। वाजपेयी सरकार वापस नहीं लौट पाई और सोनिया गांधी की कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के हाथों में केद्रीय सत्ता आ गई। सोनिया के इस सफल अभियान से ही उन्हें संसद के ऐतिहासिक सेंट्रल हॉल में त्यागमयी राजमाता की भूमिका निभाने का मौका मिला।
इस ऐतिहासिक दौर के बीते पांच साल होने को आ रहे हैं। वर्धा नदी में इन पांच साल में काफी पानी बह चुका है। लेकिन विदर्भ की हालत वैसी की वैसी ही है। बल्कि इन पांच सालों में आत्महत्याओं का आंकड़ा आशंका से भी कहीं ज्यादा बढ़ गया है। जब यूपीए सरकार ने सत्ता संभाली – विदर्भ में आत्महत्याओं में थोड़ी कमी जरूर आई। उस साल 431 लोगों ने अपनी जान देकर अपनी आर्थिक मुसीबतों से छुटकारा पाने का भयावह रास्ता अख्तियार किया। ये आंकड़ा विदर्भ जनअधिकार समिति के किशोर तिवारी का है। 2006 में ये आंकड़ा तीन गुना से भी ज्यादा 1500 हो गया। इस बीच प्रधानमंत्री के दौरे हुए। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने राहत के मद में 1730 करोड़ की सहायता योजना का ऐलान किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी विदर्भ की वादियों में घूमे और 630 करोड़ दे गए। इससे आत्महत्याओं की दर में कुछ कमी तो आई – लेकिन वह कमी भी भयावह हालात को दिखाने के लिए काफी रही। 2007 में 1243 लोगों ने आत्महत्याएं कीं। मौजूदा साल के बजट में वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने 72 हजार करोड़ के किसान कर्जे की माफी का ऐलान किया। लेकिन हालत ये है कि अब तक करबी 4100 लोग अपनी जान गवां चुके हैं।
विदर्भ का मामला परमाणु करार पर विश्वासमत पाने की कोशिश में जुटी केंद्र सरकार की बहस के दौरान फिर उछला। जब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने यवतमाल जिले की दो महिलाओं कलावती और शशिकला की बदहाली की चर्चा की। जाखना गांव की कलावती के बहाने उन्होंने विदर्भ के किसानों की बदहाली का जिक्र किया तो पूरे देश का ध्यान उसकी ओर चला गया। सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक विंदेश्वर पाठक 2 अगस्त को उसे पच्चीस लाख रूपए की सहायता दे आए। दो सितंबर को यवतमाल जिले के सोनखास गांव की शशिकला भी उनसे फायदा पाने में कामयाब रही। इस सहायता ने विदर्भ में खानाबदोश जातियों के कमजोर और बदहाल लोगों की उम्मीदें बढ़ा दीं। 400 की जनसंख्या वाले सोनखास गांव के पचास झोपड़ों में से एक को फायदा मिला तो बाकी लोगों के आंखों में एक ही सवाल तैरने लगे। उन्हें सहायता क्यों नहीं ! बदहाली में वे भी जिंदगी गुजार रहे हैं। लेकिन इसका फायदा उन्हें क्यों नहीं मिलना चाहिए। आधे-अधूरे कपड़ों में बूढ़े-बूढ़ियों के साथ ही जवान – बच्चों का हुजूम वहां जुट गया। सबका विंदेश्वर पाठक से एक ही सवाल था- सहायता हमें भी चाहिए। दिल्ली से गए संवाददाताओं के पास लोगों की अर्जियां जुटने लगीं। किसी के बच्चे का एक्सीडेंट में हाथ काटना पड़ा तो किसी को आंख से दिखाई नहीं देता और सबको सहायता चाहिए। विंदेश्वर पाठक को ऐसी परिस्थितियों में हाथ तो खड़ा करना ही था। उन्होंने खड़ा कर दिया कि वे कितने लोगों को सहायता दे सकते हैं। लगे हाथों उन्होंने सुझाव भी दे डाला कि नागपुर बढ़ते हुए करोड़पतियों का शहर है। मुंबई में 110 खरबपति रहते हैं। सभी एक-एक दो परिवारों को गोद ले लें- समस्या का समाधान हो जाएगा। पता नहीं यवतमाल से उठी ये आवाज मुंबई और 115 किलोमीटर दूर नागपुर में कितने कानों तक पहुंची।
कलावती और शशिकला को फायदा तो मिल गया, क्योंकि उनकी झोपड़ी में रोड शो करते हुए राहुल गांधी पहुंच गए थे। लेकिन विदर्भ में हजारों लोग परेशान हैं। कर्जे में डूबे हुए हैं। ये संभव नहीं है कि सभी बदहाल झोपड़ियों में राहुल गांधी पहुंचे और उनकी बदहाली दूर करने के लिए कोई सुलभ इंटरनेशनल पहुंच जाए। अगर राहुल गांधी सभी झोपड़ियों में पहुंचने भी लगें तो बाजार अर्थव्यवस्था का कोई नुमाइंदा उन झोपड़ियों में दो या तीन लाख का चेक देने के लिए आने से रहा। (विंदेश्वर पाठक ने इतनी ही रकम शशिकला और कलावती को दी है।)
झोपड़ियों में जाकर चुनावी तैयारियों के लिए जनसमर्थन तो जुटाया जा सकता है। लेकिन हजारों-लाखों लोगों की समस्या का समाधान मुकम्मल रणनीति के तहत नीतियों में बदलाव लाकर - फिर उसे सही तरीके तक गांवों के स्तर तक पहुंचा कर ही किया जा सकता है। लेकिन विदर्भ में जो हालात हैं – उसे देखकर ऐसा नहीं लगता कि हालात बदले हैं। बहुत कम लोगों को पता होगा कि 1923 में अंग्रेजों ने जिस रेलवे लाइन का दोहरीकरण किया था – वह मुंबई – नागपुर रेलवे लाइन ही थी। इसकी वजह ये थी कि विदर्भ में उन दिनों दुनिया का बेहतरीन कपास पैदा होता था और उसे मुंबई बंदरगाह तक पहुंचने में देर न हो, इसलिए दो ट्रैक बनाए गए। मुंबई से ये कपास मानचेस्टर की सूती मिलों तक पहुंचाया जाता था। डंकेल प्रस्तावों के लागू होने के बाद तक यहां का कपास किसान उगाते थे और खुद बेचते थे। तब खेती की लागत कम होती थी। किसान अपना बीज खुद संरक्षित करते थे, उन बीजों से पैदा फसल में ज्यादा रासायनिक खाद और कीटनाशक का उपयोग नहीं होता था। लेकिन जब से बीटी कॉटन का दौर शुरू हुआ है – हर साल किसान को हजारों रूपए बीज में खर्च करने पड़ रहे हैं। इस बीज से उगी फसल को बचाने के लिए कीटनाशकों और रासायनिक खादों का भरपूर इस्तेमाल करना पड़ता है। किसानों के लिए संघर्षरत वरिष्ठ कार्यकर्ता विजय जावंधिया और किशोर तिवारी के मुताबिक इससे प्रति हेक्टेयर किसान की लागत करीब सात हजार रूपए पड़ रही है। इस फसल से सूंडी कीड़े भारी संख्या में पैदा होते हैं और उन्हें बचाने के लिए कीटनाशकों पर काफी खर्च करना पड़ रहा है। इसके लिए वे साल दर साल बैंकों से कहीं ज्यादा सूदखोरों से कर्ज लेने को मजबूर हैं। किशोर तिवारी के मुताबिक अकेले विदर्भ में बीजों का कारोबार 12 हजार करोड़ को पार कर गया है। यानी ये सारा पैसा मोनसेंटो जैसी अमेरिकी कंपनियों के खाते में जा रहा है। यहां ये ध्यान देने की जरूरत है कि विदर्भ की पूरी खेती वर्षा के पानी पर निर्भर है। अगर बारिश ना हुई तो सारी लागत गई सूखे में।
सूदखोर के यहां पैसा लगातार बढ़ते ही जाना है। ये हालत उन किसानों की है – जो रसूखदार और अच्छी-खासी जमीन के मालिक हैं। जिस कलावती का दलित महिला के तौर पर राहुल गांधी ने संसद में जिक्र करके कांग्रेस जनों की वाहवाही पाई- वह कोई दलित नहीं, बल्कि स्थानीय नंदुबार जैसी दबंग और रसूखदार जाति की महिला है।
कोसी की बाढ़ ने इन दिनों देश का ध्यान बंटा रखा है। नागपुर में किसानों की समस्याओं पर 3 सितंबर को हुए एक सम्मेलन में ये सवाल उठा कि इस बदहाली के बाद भी कोसी इलाके से शायद ही कोई आत्महत्या की खबर सामने आए। आखिर क्या वजह है कि कोसी या पूर्वी उत्तर प्रदेश की बदहाली के बीच से भी आत्महत्या की शायद ही कोई खबर आती है- जबकि विदर्भ ऐसी अशुभ खबरों से भरा हुआ है। इसकी वजह है – विदर्भ में नगदी फसल की खेती। वहां अनाज उत्पादन की बजाय लोग कपास जैसी कमाई वाली फसल पर ज्यादा निर्भर हैं। अब लोग कपास से मुड़े भी हैं तो उनका ध्यान सूरजमुखी की खेती पर आ टिका है। विदर्भ में सिंचाई की मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। लिहाजा पूरी की पूरी खेती आसमानी कृपा पर है। आसमान की कृपा हुई तो समझो वारा-न्यारा। नहीं हुई तो भुखमरी की हालत। ऐसी हालत में मजदूरी पर जिंदगी गुजारने वाले लोगों को काम नहीं मिल पाता। अन्न उत्पादन वाले इलाके में मजदूरों को नगदी और ज्यादा मजदूरी नहीं मिलती – लेकिन मजदूरी के तौर पर खाने के लिए अनाज जरूर मिल जाता है। जिससे समाज के कमजोर तबके को भी भुखमरी का सामना नहीं करना पड़ता है।
आज राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना यानी नरेगा की बड़ी चर्चा है। कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार और जुलाई के पहले तक उसे समर्थन दे रहे वामपंथी दल इसे अपनी उपलब्धि के तौर पर गिनाते रहे हैं। साल के कम से कम एक सौ दिनों तक मजदूर परिवारों को 100 रूपए रोजाना की दर से काम देने का वायदा इसी योजना में शामिल है। केंद्र सरकार के अपनाए जाने के पहले महाराष्ट्र ही पहला राज्य था, जिसने इस नीति की शुरूआत की थी। लेकिन हकीकत ये है कि नरेगा के तहत महाराष्ट्र में भी काम नहीं मिल रहा है। लगातार तीन साल से विदर्भ सूखे का सामना कर रहा है। लेकिन वहां नरेगा के तहत काम कम हो रहा है। शशिकला के गांव यवतमाल जिले के सोनखास में लोगों ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया कि एक तो काम हो नहीं रहा है। अगर हो रहा है तो उन्हें मजदूरी के तौर पर सिर्फ तीस रूपए दिए जा रहे हैं। ऐसे में उनका काम कैसे चलेगा। अगर लोगों के इस आरोप में दम है तो विलासराव देशमुख सरकार को इसका जवाब भारी पड़ेगा।

Thursday, October 2, 2008

आजमगढ़ : और भी पहचान है मेरी .....

उमेश चतुर्वेदी
1974 के मार्च महीने की एक तारीख...पटना जाने वाली तमाम रेलगाड़ियां निरस्त कर दी गई हैं। 18 मार्च 1974 को नौजवानों ने पटना विधानसभा के घेराव का ऐलान कर रखा है। इसकी अगुआई जेपी को करनी है। घेराव को नाकामयाब बनाने के लिए बिहार के साथ ही केंद्र सरकार भी जुट गई है। इस घेराव में तब का एक क्रांतिकारी समाजवादी नेता भी शामिल होने को तैयार है। किसी तरह वाराणसी पहुंच गया है। रेलगाड़ियां बंद कर दी गई हैं। इसी बीच पता चलता है कि कोई रेलगाड़ी मुगलसराय होते हुए पटना जा रही है। क्रांतिकारी नेता पर पुलिस की निगाह है। उसके गिरफ्तार होने का खतरा है। लिहाजा काशीहिंदू विश्वविद्यालय के कुछ छात्र नेता रणनीति बनाते हैं। तय होता है कि ये नेता बुनकर के तौर पर जाएगा। लुंगी कुर्ता और गोलटोपी पहने कुछ लोगों का एक ग्रुप वाराणसी के काशी स्टेशन पर पहुंचता है। पुलिस होने के बावजूद ये नेता अपने हाथों बुनी साड़ियों का बंडल लिए ट्रेन में सवार हो जाता है।
18 मार्च 1974 को पटना में जो हुआ – अब इतिहास है। इसी घेराव में इनकम टैक्स चौराहे पर जेपी पर पुलिस ने जमकर लाठियां बरसाईं। इन लाठियों की धमक इतनी दूर तक सुनाई दी कि इंदिरा गांधी की सर्वशक्तिमान सरकार हिल गई। यहां अब बता देना जरूरी है कि बुनकर के भेष में पटना गए वे नेता थे जार्ज फर्नांडिस और उन्हें स्टेशन पर चढ़ाने आए थे आज के कांग्रेस के प्रवक्ता मोहन प्रकाश। जो तब बीएचयू छात्रसंघ के प्रभावी नेता थे। जिन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश की खाक छानी है – उन्हें पता है कि आजमगढ़ से लेकर मऊ तक पहले हथकरघे का जाल बिछा हुआ था। गांव-गांव में दरी, चादर और गमछे के साथ ही बनारसी साड़ियां बुनीं जाती थीं। इन्हें लेकर एक खास ड्रेस में लोग गांव-गांव बेचने के लिए निकलते थे। तब उन पर कोई सवाल नहीं उठाता था। लेकिन इसी आजमगढ़ के सरायमीर के अबू सलेम की अपराध की दुनिया में चर्चा क्या बढ़ी – पूरा आजमगढ़ अपराधियों और आतंकवाद का गढ़ नजर आने लगा है।
लेकिन आजमगढ़ की यही पहचान नहीं है। आज राष्ट्रीय क्षितिज पर जब भी हिंदू-मुस्लिम समभाव की बात की जाती है – इस्लाम के विद्वान के तौर पर मौलाना वहीदुद्दीन खान के बिना पूरी नहीं होती। वे वहीदुद्दीन साहब भी इसी आजमगढ़ में पले – बढ़े हैं। कैफी आजमी ने उर्दू शायरी की दुनिया में जो नए प्रतिमान खड़े किए, सिनेमा के गीतों को नया अंदाज दिया – वे इसी आजमगढ़ के मेजवां से निकले थे। चंद सिरफिरों के चलते आज आजमगढ़ की एक पूरी पीढ़ी को देशद्रोही और आतंकवादी का तमगा दिया जा रहा है – ऐसे लोगों को जानकर हैरत होगी कि कैफी आजमी ने अपनी जिंदगी के आखिरी साल अपनी माटी – अपनी हवा के बीच मेजवां में ही गुजारे। जबकि देश के सपनीले शहर मुंबई में उनके पास जिंदगी के वे सारे साजोसामान मौजूद थे – जिसकी खोज में आज हर कोई हलकान हुए जा रहा है। और एक बार हासिल होते ही वह अपनी माटी की महक को भूल जाना चाहता है। कैफी उन लोगों में से नहीं थे।
आज हैरी पोटर की लेखिका जेके रॉलिंग की दुनिया में खासी चर्चा है। बच्चों की लेखिका के तौर पर विख्यात रॉलिंग को जानने वालों की कमी नहीं है। लेकिन कितने लोगों को सनीमासीन खान का नाम पता है। बच्चों के लेखक के तौर पर दुनिया भर में विख्यात इस लेखक की कृतियां मलय, पश्तो, अरबी से लेकर तमाम पश्चिमी भाषाओं में हो चुका है। मुस्लिम बहुल जनसंख्या वाला शायद ही कोई देश हो – जहां खान की किताबों की प्रदर्शनी ना लगी हो।
आजमगढ़ की स्थापना 1665 में एक दबंग जमींदार आजमखान ने की थी। दिलचस्प बात ये है कि यह एक हिंदू जमींदार की मुस्लिम पत्नी का बेटा था। इतिहासकारों के मुताबिक विक्रमजीत गौतम राजपूत था। मेहनगर की मुस्लिम पत्नी से उसके दो बच्चे थे। दूसरे बच्चे अजमत ने किला बनाया। जो आज भी आजमगढ़ में अजमत के किले के तौर पर विख्यात है। हिंदू पिता और मुस्लिम पत्नी की संतान आजमगढ़ में दंगों का कोई गहरा इतिहास नहीं रहा है। दोनों परिवारों का ही संस्कार था कि यहां गंगजमुनी संस्कृति की धारा लगातार बहती रही। आजमगढ़ में राष्ट्रवाद किस कदर हिलोरें ले रहा था – इसकी मिसाल 1857 का संग्राम भी है। आजमगढ़ की धरती पर ही वीर कुंवर सिंह ने अंग्रेजों के दांत खट्टे किए थे। इसी दौर में यहां एक बड़े इस्लामिक विद्वान शिबली नोमानी ने यहां की धरती के जरिए इस्लामिक दुनिया में अमिट छाप छोड़ी। सर सैय्यद अहमद खां के कभी सहयोगी रहे शिबली नोमानी इतिहास, इस्लाम, दर्शन और सूफीवाद के मशहूर मर्मज्ञ थे। उन्होंने मक्का तक हज की यात्रा की और मोहम्मद साहब से जुड़ी चीजों का संग्रह किया। इसे वे भले ही नहीं लिख पाए – लेकिन बाद में उनके उत्तराधिकारी सैय्यद सुलेमान नदवी ने लिखा। जिसे इस्लाम की दुनिया में आज भी खासे आदर के साथ लिया जाता है। शिबली के योगदान को आजमगढ़ ने आज भी शिबली कॉलेज के रूप में शिद्दत से याद रखा है। आजमगढ़ में उच्च शिक्षा के इस अहम केंद्र में ना सिर्फ मुस्लिम – बल्कि हिंदू छात्र भी अपना भविष्य संवारने का काम कर रहे हैं। शिबली की ही देन है कि आजमगढ़ कभी शिया शिक्षा का अहम केंद्र हुआ करता था। यहां दुनिया भर से लोग इस्लाम की शिया तहजीब का अध्ययन करने आते थे। इस धरती ने अमीन अहसान इस्लाही और जफरूल इस्लाम जैसे इस्लाम के जाने-माने विद्वान भी पैदा किए हैं तो इतिहासकारों की पंक्ति में आदर के साथ लिया जाने वाला नाम इश्तियाक अहमद जिल्दी भी यहीं के हैं और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे हैं। इसी धरती के सपूत सम्सुर्रहमान फारूकी को भी भूलना कठिन है।
13 सितंबर के दिल्ली बम धमाकों के बाद आजमगढ़ एक बार फिर पूरी दुनिया की नजर में आ गया है। पिछले कुछ साल से आजमगढ़ की पहचान के प्रतीक बने हैं माफिया सरगना अबू सलेम। जयपुर और अहमदाबाद धमाके के मास्टरमाइंड के तौर पर जब से अबू बशर की गिरफ्तारी हुई है – पहचान की ये धारा और पुख्ता हुई। रही- सही कसर 13 सितंबर के धमाके में मारे गए आतिफ और साजिद के साथ ही सैफ की गिरफ्तारी ने पूरी कर दी है। इसके बाद आजमगढ़ को सिर्फ और सिर्फ आतंकवादियों के गढ़ के तौर पर पहचान दी गई है। यहां के ब्लैक पॉट्री नाम से दुनियाभर में मशहूर उर्दू पुस्तकालय के उल्लेख के बिना तो ये चर्चा अधूरी रहेगी। माना जाता है कि उर्दू अदीब की दुनिया में इस पुस्तकालय को काफी आदर के साथ देखा जाता है।
हिंदी के पहले महाकाव्य रचयिता अयोध्या सिंह उपाध्याय ’हरिऔध’ का नाम तो सभी जानते हैं। लेकिन इसी धरती के श्यामनारायण पांडे थे – जिन्होंने महाराणा प्रताप और अकबर के युद्ध को विषय बनाकर हल्दीघाटी नामक खंडकाव्य लिखा। राणा प्रताप के घोड़े चेतक का जो वर्णन उन्होंने किया है – उसे पढ़कर आज भी रोमांच हो जाता है। आजमगढ़ के मेंहनगर के विसहम में दाऊद इब्राहिम की रिश्तेदारी की जमकर चर्चा हो रही है। हाजी मस्तान की रिश्तेदारी को लेकर भी आजमगढ़ चर्चा में है। लेकिन लोग ये भूल गए हैं कि इसी जिले में हरिहरपुर नाम का एक ब्राह्मणबहुल गांव है – जहां तबला सम्राट गुदई महाराज की ससुराल थी। दूसरे तबला उस्ताद किशन महाराज और ठुमरी की विख्यात गायिका गिरिजा देवी की भी रिश्तेदारी इस गांव में है। आजमगढ़ में कला और संस्कृति की ये धारा ही रही है कि लोग फिल्म और टेलीविजन की दुनिया में भी जमकर नाम और दाम कमा रहे हैं। जीटीवी के मशहूर रियलिटी शो सारेगामापा के प्रोड्यूसर गजेंद्र सिंह और फिल्म निर्देशक राजेश सिंह भी इसी धरती के वासी हैं। राहुल सांकृत्यायन इसी जिले के पंदह के निवासी थे। जिनके दर्शन-दिग्दर्शन का लोहा पूरी दुनिया ने माना।
टाटा की नैनो कार को लेकर उत्सुकता अभी थमी नहीं है। पश्चिम बंगाल के सिंगूर से लेकर उत्तरांचल के पंतनगर तक इस कार की चर्चा है। लेकिन कितने लोगों को पता है कि आजमगढ़ के सत्रह साल के एक बच्चे चंदन ने दो सीटों वाली कार पहले ही बना ली है। जो एक लीटर पेट्रोल में चालीस किलोमीटर तक चल सकती है।
आजमगढ़ की इस गड्डमड्ड होती पहचान पर सबसे बेहतरीन टिप्पणी आतंकवाद से लोहा लेते रहे बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक प्रकाश सिंह की है। प्रकाश सिंह इसी धरती के बेटे हैं। उनका कहना है कि सरायमीर, निजामाबाद, खैराबाद, मुबारकपुर, बिलरियागंज, मोहम्मद खान और अतरौलिया से हजारों बच्चे दिल्ली, मुंबई, अलीगढ़, हैदराबाद और लखनऊ में पढ़ाई के साथ ही रोजी-रोजगार के लिए गए हैं। देश विरोधी ताकतें उन्हें बहका सकती हैं। लेकिन इसका माकूल जवाब इस पूरे इलाके को बदनाम करने की बजाय ऐसे मुकम्मल इंतजाम होने चाहिए – ताकि यहां के बच्चे बहकावे में आकर देशविरोधी ताकतों के हाथों का खिलौना ना बनें।
ये काम आजमगढ़ की मूल पहचान को बिगाड़कर तो नहीं ही किया जाना चाहिए। अन्यथा इससे जो नुकसान होगा – उसकी तासीर दूर और देर तक महसूस की जाती रहेगी।

Wednesday, September 24, 2008

दर्डा जी ये आपको क्या हुआ ......



यह लेख देखिए और विचार कीजिए
नरसिंह राव की सरकार ने जब सांसद विकास निधि की शुरूआत की थी, तभी जानकारों ने इसकी सफलता पर सवाल उठाए थे। समाजशास्त्रियों और राजनीति के जानकारों के साथ ही पत्रकारों के एक तबके का मानना था कि इससे लूट-खसोट की राजनीति बढ़ेगी। राजनीतिक जीवन में अपनी सांसद निधि का सही तरीके से इस्तेमाल करने का मामला बहुत कम ही मिला है। इन पंक्तियों के लेखक को एक पूर्व सांसद के बारे में जानकारी है कि उन्होंने अपनी सांसद विकास निधि का सही तरीके से इस्तेमाल किया। ये पूर्व सांसद हैं नागेंद्र ओझा। ओझा जी सीपीआई के कार्यकर्ता हैं और बिहार से सांसद थे। विकास निधि को लेकर उनकी बेहतर व्यवस्था ही है कि नजमा हेपतुल्ला और जीएमसी बालयोगी तक को उनकी प्रशंसा करनी पड़ी थी।
ये सब जानते हैं कि सांसद विकास निधि सांसद के हाथ में एक मजबूत हथियार है। इस निधि के जरिए सांसद जहां अपने लोगों को उपकृत करते हैं – वहीं अपने मनमाफिक ठेकेदारों से ही काम कराने के लिए जिला प्रशासन पर दबाव डालते हैं। जिला प्रशासन भी बदले में अपना कमीशन लेकर खुश रहता है। इस पर कभी उंगली नहीं उठती और बात आई-गई हो जाती है। लेकिन अब ऐसे सांसदों के लिए खतरे की घंटी बज उठी है।
महाराष्ट्र से मराठी का एक बड़ा अखबार निकलता है। लोकमत नाम का ये अखबार मराठी का नंबर वन अखबार है। इसके तकरीबन 12 संस्करण हैं। इसके साथ ही उनका लोकमत समाचार नाम से हिंदी में तीन संस्करणों वाला अखबार भी निकलता है। अंग्रेजी में लोकमत टाइम्स अलग से है। लोकमत ग्रुप का मुख्यालय नागपुर में है और इसके मुखिया विजय दर्डा हैं। विजय दर्डा के पिता जवाहर लाल दर्डा कांग्रेस के नेता थे। जाहिर है विजय दर्डा और उनके भाई राजेंद्र दर्डा को राजनीति विरासत में मिली है। राजेंद्र दर्डा जहां महाराष्ट्र सरकार में मंत्री हैं – वहीं विजय दर्डा पिछले कई साल से राज्यसभा में कांग्रेस की नुमाइंदगी कर रहे हैं। अरबों रूपए के टर्नओवर वाली कंपनी के मालिक विजय दर्डा ने वह काम कर दिखाया है - जिसके लिए जग हंसाई हो रही है। दर्डा परिवार कर्ज से पार ना पा सके किसानों की आत्महत्याओं वाले जिले यवतमाल का निवासी है। यवतमाल में उनके कई कॉलेज, स्कूल और तमाम दूसरी तरह की संस्थाएं हैं। दर्डा परिवार यवतमाल- वर्धा रोड पर अंग्रेजी माध्यम का एक स्कूल वीना देवी दर्डा इंग्लिश मीडियम स्कूल चलाता है। सांसद निधि से भले ही आम जनता को सहयोग देने का प्रावधान हो- लेकिन अरबपति विजय दर्डा ने अपने ही इस स्कूल को 34 लाख 53 हजार रूपए अवैधानिक तरीके से दे डाले। इतना ही नहीं स्कूल के लिए 76172 स्क्वायर यार्ड जमीन ली गई, वह भी अवैध है। मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर बेंच के आदेश के बाद यवतमाल के एसपी ने जो रिपोर्ट दी है – उसमें साफ लिखा है कि एसडीओ यवतमाल ने इस जमीन को अवैधानिक तरीके से गैर कृषि कार्यों में इस्तेमाल की अनुमति दी थी। नागपुर हाईकोर्ट ने इस पैसे की वसूली का आदेश दिया है। जिस पर अमल की कार्यवाही केंद्रीय कार्यक्रम कार्यान्वयन एवं सांख्यिकी मंत्रालय ने शुरू कर दी है।
ये मामला सामने नहीं आ पाता, अगर यवतमाल के सामाजिक कार्यकर्ता दिगंबर हरिभान पजगड़े ने नागपुर हाईकोर्ट में याचिका दायर की। इस याचिका पर सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने इस पर यवतमाल के एसपी और डीएम से रिपोर्ट मांगी। एसपी ने हाईकोर्ट को सौंपी अपनी इस रिपोर्ट में साफ किया कि ना सिर्फ जमीन लेने, बल्कि सांसद विकास निधि के दुरूपयोग की भी बात स्वीकार की। जिस तरह भ्रष्टाचार संस्थागत हो चुका है, उसमें आम सांसद के इस भ्रष्टाचार पर ज्यादा बावेला नहीं मचता। लेकिन विजय दर्डा अरबपति सांसद हैं। उनके पास पैसे की कमी नहीं है। फिर भी वे लूटखसोट और बंदरबांट से नहीं बच पाए और उन्होंने अपने ही घर के स्कूल को अपनी सांसद निधि से पैसे दे दिए। लेकिन अब यह उन्हें महंगा पड़ा है। सांसद विकास निधि के इतिहास में ये पहला मौका है – जब विजय दर्डा से इस रकम की वसूली की जा रही है। कार्यक्रम क्रियान्वयन और सांख्यिकी मंत्रालय के निदेशक अनिल कुमार चौधरी ने महाराष्ट्र के मुख्य सचिव जॉनी जोसेफ को 25 अगस्त 2008 को चिट्ठी लिखकर इस रकम की वसूली के लिए कहा है।
इस पूरे प्रकरण में मीडिया की भूमिका बेहद संदिग्ध रही। एक बड़े मीडिया घराने के मालिक होने के चलते विजय दर्डा से जुड़ी ये खबर कहीं साया नहीं हुई। एक – दो छोटे मराठी अखबारों ने ही इसे प्रकाशित किया। मुंबई से प्रकाशित होने वाले एक बड़े घराने के अखबार की वेबसाइट पर ये खबर करीब आधे घंटे में ही उतर गई। ऑपरेशन दुर्योधन और तहलका को उजागर करने वाले मीडिया का अपने ही वर्ग के खिलाफ कैसा रवैया है, इसका जीता – जागता उदाहरण है विजय दर्डा का ये मामला।

Monday, September 22, 2008

वक्त राजनीति का नहीं !



उमेश चतुर्वेदी
बिहार में कोसी के कहर ने प्रभावित इलाकों के बाशिंदों को गुस्से से भर दिया है। उनका गुस्सा जायज भी है। आखिर जिस सरकार से उन्हें उम्मीद थी, उसके प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। 18 अगस्त को कोसी ने सरकारी घेरे को तोड़कर खुले मैदान में उन्मुक्त राह चुनी, एक- दिन को छोड़ दें तो तब से लगातार लोग भूख और प्यास से जूझ रहे हैं। ऐसे में सरकार पर सवाल तो उठेंगे ही।
लेकिन क्या सचमुच इसके लिए नीतीश कुमार सरकार ही दोषी है। चूंकि बाढ़ उनके ही शासन काल में आई है, कोसी को उनके ही दौर में उन्मुक्त धार चुनने में मदद मिली, इसलिए उन पर सवाल तो उठेंगे ही। जिस जगन्नाथ मिश्र के दौर में कोसी परियोजना शुरू हुई – उन्हें भी अब नीतीश कुमार दोषी दिख रहे हैं। कोसी परियोजना करीब ढाई दशक से चल रही है। इस दौर में सिंचाई विभाग के इंजीनियरों, ठेकेदारों और आईएएस अफसरों के लिए ये परियोजना दुधारू गाय की तरह साबित हुई। पटना से लेकर दिल्ली तक में उनके बंगले बने,उनके बच्चे विदेशों पढ़ते रहे। लेकिन जिनके लिए ये परियोजना शुरू हुई, वे आज सबकुछ गवां चुके हैं। उनके सामने भूख का अंतहीन सिलसिला है।

क्या इस बाढ़ के लिए नीतीश कुमार से पहले राबड़ी देवी और लालू प्रसाद यादव की सरकार जिम्मेदार नहीं है। क्या कोसी परियोजना शुरू करने वाले जगन्नाथ मिश्र और उनके पूर्ववर्ती केदार पांडे की सरकारें इस महाप्रलय के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। ये सवाल कुछ लोगों को अटपटा लग सकता है। लेकिन ये सवाल तब गलत नहीं लगेगा, जब अमेरिकन सोसायटी ऑफ सिविल इंजीनियरिंग की रिपोर्ट पढ़ने को मिलेगी। मार्च 1966 में प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक कोसी नदी के किनारों पर 1938 से 1957 के बीच में प्रति वर्ष लगभग 10 करोड़ क्यूबिक मीटर तलछट जमा हो रहा था। केन्द्रीय जल एवं विद्युत शोध प्रतिष्ठान के वी सी गलगली और रूड़की विश्वविद्यालय के गोहेन और प्रकाश ने कोसी पर बांध बनाए जाने के बाद पेश अपने अध्ययन में भी कहा था कि बैराज बनने के बाद भी गाद और तलछट जमा होने के कारण कोसी का किनारा उपर उठ रहा है। ये रिपोर्टें जब आईं थीं, तब की सरकारें क्या कर रही थीं। जरूरत इस बात की है कि ये सवाल भी गंभीरता से पूछे जायं। वैसे ये भी सच है कि कोसी के तलछट को साफ करने के लिए इस बीच भी कोई कदम नहीं उठाया गया। आखिर ये तलछट बढ़ कैसे रहा है। इसके लिए कोसी परियोजना के जिम्मेदार अफसर रहे हैं। पूरी दुनिया में बांध जब बनाए जाते हैं तो वहां बांध पर पेड़ और घास लगाई जाती है। चीन में तो ऐसा ही हुआ है। ताकि मिट्टी ना कटे और तलछट ना जमे। लेकिन जिन्होंने गरमी के मौसम में कोसी के बांध को देखा है, उन्हें पता है कि वहां कितनी धूल और मिट्टी जमी रहती है। ये सवाल स्थानीय लोगों ने 2005 में हुए एक स्थानीय सम्मेलन में पानी वाले राजेंद्र सिंह और मेधा पाटकर के सामने भी उठाया था। उन्होंने भी माना था कि सरकारी तंत्र ये गलती कर रहा है। लेकिन इस ओर आज तक किसी का ध्यान नहीं गया है। वैसे बीजिंग से ल्हासा तक जाने वाली रेल परियोजना के चलते चीन की भी कुछ नदियों में रेत का बहाव बढ़ा है। केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक इसमें अरूण नदी प्रमुख है। कहना ना होगा कि कोसी में उसकी भी धार मिलती है और वहां से हर साल करोड़ों टन बालू कोसी में आ रहा है।
वैसे कोसी में तो हर साल बाढ़ आती है। लेकिन बांध बनाए जाने के बाद 1968 में पहली बड़ी बाढ़ आई थी। उस साल 25 हजार (क्यूमेक्स क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड) जल प्रवाह हुआ था। यह नया रिकार्ड था। वैसे हर साल जल प्रवाह नौ से सोलह हजार क्यूमेक्स तो रहता ही है। जिससे बाढ़ आती ही है और कोसी अंचल के लोग इसके आदी भी रहे हैं। लेकिन ना तो सरकार ने – ना ही स्थानीय लोगों ने सोचा था कि चीन की यांग टिसी क्यांग यानी पीली नदी की तरह कोसी भी अपना रास्ता बदल लेगी। पीली नदी ने 1932 में पीली नदी ने अपनी राह बदल ली थी और इस महाप्रलय में पांच लाख लोग मारे गए। कोसी नदी के जानेमाने विशेषज्ञ शिलिंग फेल्ड काफी समय से कोसी के पूरब की तरह खिसकने की चेतावनी दे रहे थे। लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया।
कुरसेला में गंगा में मिलने से पहले कोसी करीब 3600 वर्ग मील इलाके को प्रभावित करती है। इसके पहले करीब 11900 वर्ग मील नेपाल और चीन में 11400 वर्गमील इलाके पर असर डालती है। कोसी के बाढ़ का कहर नेपाल में भी है। लेकिन वह उपरी इलाका है लिहाजा सबसे ज्यादा बुरी हालत भारतीय यानी बिहार के इलाके की ही है।
माना तो ये जाता है कि कोसी की बाढ़ भारत का आंतरिक मामला है। लेकिन ऐसा नहीं है। यह अंतरराष्ट्रीय मामला भी है। कोसी बैराज नेपाल में है और इसके रख-रखाव और मरम्मत भारतीय इंजीनियर करते हैं। इस साल दो बार भारतीय इंजीनियर वहां गए – लेकिन स्थानीय लोगों ने उन्हें धमकाकर भगा दिया। इसमें माओवादियों का ज्यादा हाथ माना जा रहा है। लालू यादव अब खिचड़ी और चोखा रेलवे स्टेशनों पर खिलाकर अपने समर्थन में नारा लगवा रहे हैं। लेकिन इन पंक्तियों के लेखक को जानकारी है कि इसकी जानकारी बिहार सरकार ने प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय को भी दी थी। लेकिन परमाणु करार के जरिए देश को विकसित बनाने का सपना देख रहे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने इस पर ध्यान नहीं दिया और जब 18 अगस्त को कोसी ने बांध से खुद को स्वतंत्र कर लिया तो उसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करना पड़ा। हालांकि ये सवाल भी उठ रहा है कि केंद्र सरकार ने भी ये कदम उठाने में इतनी देर क्यों लगाई। तब लालू यादव ने केंद्र सरकार पर मरम्मत के लिए दबाव क्यों नहीं बनाया।
सबसे हैरतनाक बयान नेपाल की माओवादी सरकार के विदेश मंत्री उपेंद्र यादव का आया। लेकिन भारत अपनी सहिष्णु छवि बनाए रखने के लिए प्रतिक्रियास्वरूप बयान देने से बचता रहा। कहां तक बाढ़ राहत के कार्यों में नेपाल साथ आता, आर्थिक या तकनीकी रूप से सहायता देने की उसकी क्षमता भी नहीं है। लेकिन मानसिक और भावनात्मक सहयोग की उससे उम्मीद की जा सकती है। लेकिन निर्लज्जता पूर्वक उपेंद्र यादव भारत से कोसी बैराज के लिए मुआवजा मांगते नजर आए। ये उस सरकार के मंत्री हैं, जिसे बनवाने में भारतीय वामपंथियों ने भी खास भूमिका निभाई।
माना जा रहा है कि कोसी का पाट चालीस किलोमीटर लंबा हो गया है। खुद सरकार ही मानती है कि मधेपुरा, अररिया, सहरसा, सुपौल, पूर्णिया की करीब चालीस लाख आबादी इससे परेशान हुई है। लेकिन राहत में लगी सेना के जवानों की गिनती देखिए। राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के प्रमुख सचिव आर के सिंह के मुताबिक राहत और बचाव कार्य में आर्मी के 1700 जवान 150 मोटरबोट के साथ जुटे हुए हैं, जबकि नौसेना के सिर्फ 135 जवान 45 नावों के साथ लोगों को बाहर निकालने की कार्रवाई में लगे हुए हैं। इसी तरह नेशनल डिजास्टर रेस्पांस फोर्स के जवान 137 नावों के साथ राज्य पुलिस तंत्र की मदद कर रहे हैं। वैसे सरकार ने पहली सितंबर को ऐलान किया कि आर्मी के 1120 और जवानों को सौ नावों के साथ बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में भेजा जा रहा है। जहां तक राज्य मशीनरी का सवाल है तो उनका भगवान ही मालिक है और उन पर भरोसा करना नाकाफी होगा। ये बात ना सिर्फ केंद्र सरकार – बल्कि राज्य सरकार भी जानती है।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये है कि चीन और नेपाल के साथ मिलकर इस समस्या का समाधान निकाला जाय। चीन के असर में नेपाल के आने के डर से हम कब तक डरते रहेंगे। हमें चीन से भी ये सवाल उठाना पड़ेगा कि तिब्बत रेल परियोजना के चलते अरूण नदी के जरिए में कोसी में लगातार हो रहे बालू के प्रवाह पर तकनीकी और प्रभावकारी नियंत्रण लगाए। ये वक्त राजनीति का नहीं है। जरूरत जनता को बचाने का है। उन्हें फिर से नीड़ का निर्माण बनाने में मदद देने का है। क्योंकि इसी जनता पर ही टिकी है हमारी राजनीति। जनता ही नहीं रहेगी तो राजनीति किस काम की।

Thursday, September 11, 2008

पूर्वांचल दुर्दशा देखि ना जाई !

उमेश चतुर्वेदी
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने करीब सवा सौ साल पहले अंग्रेजी सरकार के जमाने में देश की दुर्दशा देखकर लिखा था – भारत दुर्दशा देखि न जाई। तब वे काशी में रहते थे। काशी यानी वाराणसी में बैठे भारतेंदु को देश की दुर्दशा देखी नहीं गई। तब उन्होंने कलम उठा ली थी। आज उन्हीं की काशी समेत पूरा पूर्वी उत्तर प्रदेश भारी बारिश की परेशानियों से जूझ रहा है। करीब दो महीने से लगातार जारी बारिश ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में भारी तबाही मचा रखी है। बीस अगस्त को हुई भारी बारिश ने तो वाराणसी शहर में घुटने-घुटने तक पानी में डूब गया। लोगों का कहना है कि ऐसी बारिश पिछले पचास साल में नहीं हुई।
जब दुनियाभर में हिंदुओं के पवित्र तीर्थ के रूप में विख्यात वाराणसी की ये हालत है तो दूसरे दूसरे जिलों की क्या हालत होगी-इसका अंदाजा लगाना आसान है। हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि काशी में जिसकी मौत होती है – उसे स्वर्ग मिलता है। लेकिन भारी बरसात ने शहर को नरक में तब्दील कर दिया है। लेकिन शहर पर किसी का ध्यान नहीं है। न तो सूबे की सरकार का – ना ही केंद्र सरकार। जब जगमोहन केंद्रीय संस्कृति मंत्री थे तो उन्होंने वाराणसी की गलियों को चमकाने और कुछ वैसा ही साफ-सुथरा तीर्थस्थान बनाने की तैयारी की थी – जैसा उन्होंने जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल रहते वैष्णो देवी को बनाया था। दुर्भाग्यवश मायावती के विरोध के चलते उन्हें मंत्रिमंडल से हटा दिया गया और काशी को तीन लोकन ते न्यारी बनाने की उनकी तैयारियां धरी की धरी रह गईं।

सवाल सिर्फ वाराणसी की ही बदहाली का नहीं है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में 22 जिले आते हैं। मिर्जापुर, इलाहाबाद,वाराणसी, आजमगढ़ और गोरखपुर कमिश्नरी में बंटे इन जिलों में इस साल इतनी बारिश हुई है कि गांव के गांव तालाब के तौर पर नजर आ रहे हैं। मक्का, ज्वार और उड़द जैसी खरीफ की फसलें पूरी तरह नष्ट हो चुकी हैं। धान से लहलहाने वाले इस पूरे इलाके में कहीं – कहीं ही धान की फसल नजर आ रही है। यही हालत लाखों हेक्टेयर में हो रही गन्ने की खेती का भी है। सब्जियों की तो बात ही मत पूछिए। दिल्ली और मुंबई में सब्जियों की कीमत जब चढ़ने लगती है तो राष्ट्रीय मीडिया की बड़ी-बड़ी सुर्खियां बन जाती है। लेकिन सब्जी के उत्पादन के लिए इस मशहूर इलाके में सब्जियों की फसल पूरी तरह नष्ट हो चुकी है। लिहाजा पूरे इलाके में इनकी कीमत में भारी वृद्धि हुई है। गरीबों की थाली से सब्जियां गायब हो गई हैं। लेकिन इसकी कहीं कोई चर्चा नहीं है।
बारिश को लेकर राज्य प्रशासन कितना सचेत है – इसका उदाहरण है कि कई जिलों में कितनी बारिश हुई – इसका ठीक-ठीक आंकड़ा प्रशासन के पास मौजूद नहीं है। सन 2001 से पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक बड़ा इलाका सूखे की मार झेलता रहा है। अकेले बलिया की ही बात करें तो 2001 में बलिया में करीब 950 मिली बारिश रिकॉर्ड की गई। अगले साल महज 711 मिली ही बारिश हुई। सबसे खराब हालत रही 2005 में – जब सिर्फ 629 मिली ही बारिश हुई। लेकिन इस साल हालात ये हैं कि 18 अगस्त तक ही 1081 मिली बारिश हो चुकी है। शुरू में बारिश की फुहारों ने पूर्वांचल के लोगों को मोहित किया। लेकिन जब 45 दिनों तक हर दिन हो रही बारिश ने लोगों को परेशान कर दिया। शायद ही कोई गांव होगा- जहां दो-एक मकान न गिरे हों। बलिया के सिंचाई विभाग के अधिशासी अभियंता पी सी यादव के मुताबिक बारिश ने पचास साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। इसके चलते यहां की नदियां उफान पर हैं। घाघरा और गंगा के किनारे वाले हजारों गांवों का संपर्क कट चुका है। पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में शायद ही कोई नदी होगी- जिसने समंदर का रूप नहीं धारण कर लिया है। बलिया, गाजीपुर और आजमगढ़ जैसे गरीबी और बदहाल जिलों में कई मकान भरभराकर गिर गए और उसमें रहने वाले लोगों की दबकर मौत हो गई। लेकिन उनका कोई पुरसा हाल जानने वाला नहीं हैं।
गरीबी और बदहाली पूर्वांचल की स्थाई पहचान है। दिलचस्प बात ये है कि इसी इलाके से सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी को ज्यादा समर्थन मिला है। बलिया की सभी आठ विधानसभा सीटें बसपा की झोली में गई हैं। आजमगढ़ की भी यही हालत है। लेकिन राज्य सरकार के कान पर अभी तक जूं नहीं रेंगी है। अधिकारियों का कहना है कि सूखा के लिए आपदा का प्रावधान सरकारी आदेश में तो है – लेकिन अतिवृष्टि के लिए कोई प्रावधान नहीं है। ऐसे में राहत के लिए कोई उपाय नहीं किए गए हैं। नही इस ओर प्रशासन का कोई ध्यान है।
सबसे ज्यादा परेशानी की बात ये है कि खरीफ की फसल पूरी तरह चौपट हो जाने के कारण इस बार गरीब और मजदूर तबके के लोगों को खाद्यान्न के संकट का सामना करना पड़ेगा। जिन परिवारों को बाहरी आमदनी का सौभाग्य मयस्सर नहीं है, उनके लिए अगले कुछ महीनों में भोजन का संकट उठ खड़ा होने वाला है। फसलें तबाह होने के चलते खेतिहर मजदूरों के लिए काम भी नहीं रह गया है। रोजाना होने वाली बारिश ने नरेगा के तहत होने वाले कामों पर भी ब्रेक लगा दिया है। ऐसे में मजदूरी करके गुजारा करने वालों के सामने ना सिर्फ रोजी- बल्कि कुछ दिनों में रोटी का भी संकट आने वाला है। लेकिन प्रशासन इस सिलसिले में चौकस नहीं दिख रहा।
जहां तक राज्य सरकार का सवाल है तो उसका ध्यान प्रशासन और लोकहित से ज्यादा अगले साल होने वाले आम चुनावों को लेकर जोड़-घटाव करने में है। ताकि उसकी मुखिया को देश का प्रधानमंत्री बनना आसान हो। सारे जतन और उपाय इसे ही ध्यान में रखकर किए जा रहे हैं। पूर्वांचल में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी का चुनाव क्षेत्र रायबरेली है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी जिस अमेठी सीट से चुनकर आए हैं-वह भी इसी पूर्वांचल में है। बात-बात में पूर्वांचल की बदहाली का सवाल उठाने वाली कांग्रेस का अतिवृष्टि की ओर ध्यान नहीं है। ऐसे में पूरे इलाके की करीब चार करोड़ जनसंख्या ठगा सा महसूस कर रही है। हताश - निराश इलाके के लोगों को उम्मीद इन राजनेताओं से कहीं ज्यादा आसमानी देवता पर टिक गई है – बारिश रूके तो जिंदगी की रफ्तार आगे बढ़े।
यह लेख अमर उजाला में प्रकाशित हुआ है।

Wednesday, September 3, 2008

छद्म धर्मनिरपेक्षता से भी तो बचिए .....

यह लेख प्रख्यात पत्रकार उदयन शर्मा की स्मृति में गठित उदयन शर्मा फाउंडेशन ट्रस्ट की ओर से प्रकाशित किताब सांप्रदायिकता की चुनौती में प्रकाशित हुआ है।
उमेश चतुर्वेदी
इस लेख को शुरू करने से पहले अपने साथ घटी एक घटना का जिक्र करना जरूरी समझता हूं। शायद सन 2000 की घटना है। तब मैं दैनिक भास्कर के राजनीतिक ब्यूरो में कार्यरत था। हमारा दफ्तर दिल्ली के आईएनएस बिल्डिंग में था। एक शाम बिल्डिंग के बाहर चाय की दुकान पर अपने कुछ सहकर्मी दोस्तों के साथ चाय पी रहा था- तभी एक पत्रकार मित्र वहां नमूदार हुए। आते ही उन्होंने पूछा – क्या आप कभी आपने खाकी निक्कर पहनी है। स्कूली पढ़ाई के दिनों में पीटी की कक्षा में खाकी निक्कर पहनना जरूरी था। जाहिर है – मित्र के सवाल का जवाब मैंने हां में ही दिया। मेरे वे मित्र तब एक न्यूज चैनल की बंदी के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष कर रहे थे। वामपंथी रूझान वाले मेरे मित्र उन दिनों पूरे तेवर में हुआ करते थे। लिहाजा मेरी आत्मस्वीकृति ने उन्हें दिल्ली के पत्रकारीय हलकों में मुझे सांप्रदायिक और आरएसएस का कार्यकर्ता बताने का मौका मिल गया। इसका उन्होंने जमकर प्रचार भी किया। ये तो मुझे बाद में पता चला कि उनका आशय खाकी निक्कर के बहाने मेरे आरएसएस से संबंधों की जानकारी पाना था। इसकी जानकारी तब हुई, जब उनके और मेरे दो –एक परिचितों ने हर मुलाकात में पूछा कि क्या मैं आरएसएस का कार्यकर्ता रहा हूं। मैं हर किसी को सफाई देता फिरता रहा। लेकिन सवाल थे कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इसके बाद जब कोई मुझसे पूछता कि क्या आप आरएसएस की शाखा में जाते थे तो मेरा जवाब आक्रामक होता – आपको कोई एतराज है। कहना न होगा – मुझे आरएसएस का कार्यकर्ता बताने वाले वे क्रांतिकारी पत्रकार मित्र एक प्रमुख चैनल में काम करते हैं और अब उनका वामपंथी रूझान ठंडा पड़ गया है। इन दिनों उन्हें भूत-प्रेत से लेकर चुड़ैंलें नचाने का एक्सपर्ट माना जाता है।
ये एक घटना गवाह है कि कैसे प्रगतिशीलता का दावा करने वाले लोगों ने छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपने विरोधी लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यकर्ता घोषित करने में देर नहीं लगाई। इसका असर ये हुआ कि प्रगतिशीलता का दावा करने वालों के इसी रवैये ने लोगों को आरएसएस के नजदीक जाने में अहम भूमिका निभाई। कई बार तो खुद मुझे भी लगता था कि मैं क्यों ना आरएसएस का कार्यकर्ता बन गया। अगर इस हिसाब से देखा जाय तो स्वतंत्र भारत में इतिहास की धारा बदलने वाले जयप्रकाश नारायण और समाजवादी सपनों के चितेरे रहे जवाहरलाल नेहरू को भी संघ का कार्यकर्ता ठहराया जा सकता है। जिन्होंने अजीत भट्टाचार्जी की लिखी जेपी की जीवनी पढ़ी है – उन्हें पता है कि जेपी ऐसी प्रगतिशीलता के घोर विरोधी थे। उनका ये विरोध ही था कि उन्होंने 1974 के आंदोलन में वामपंथी दलों का साथ लेने की कोई मंजूरी नहीं दी। जवाहरलाल नेहरू ने भी पचास के दशक में एक बार गणतंत्र दिवस की परेड में आरएसएस को भी हिस्सा लेने के लिए बुलाया था। उनकी कैबिनेट में संघ की विचारधारा वाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी शामिल थे।
दरअसल नब्बे के बाद जिस तरह मंडल और कमंडल के आंदोलन ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदली, तब से खासतौर पर बौद्धिक वर्ग में लोगों की पहचान का एक ही पैमाना रहा गया – खाकी निक्कर। अगर आपने गाहे-बगाहे छद्म धर्मनिरपेक्षता की खिंचाई कर दी तो समझो - आप आरएसएस के आदमी हो गए। ये कुछ ऐसा ही है – जैसे सत्तर और अस्सी के दशक में अमेरिका की बात करने वाला हर शख्स सीआईए का आदमी माना जाता था। लेकिन आज हालत बदल गए हैं। आज व्यक्ति चाहे प्रगतिशील हो या फिर संघी-सबका सपना अमेरिका की धरती पर पांव रखने की है। कुछ यही हाल आज की धर्मनिरपेक्षता का भी है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले लोग भी जाति और धर्म की संकीर्णता से बाहर नहीं हैं। अगर रसूखदार पद पर हैं तो नौकरी देने- दिलाने, दमदार नेता हैं तो जाति और धर्म के आधार पर चुनाव का टिकट देने-दिलाने में वे भी जाति और धर्म का लिहाज करना अपना परमपुनीत कर्तव्य समझते हैं। लेकिन जब भी सामने माइक आया, लिखने – छपने का मंच मिला, वे धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं। जिस तरह साठ और सत्तर के दशक में वामपंथी और समाजवादी होना एक बौद्धिक शगल और फैशन बन गया था – कुछ यही हालत आज धर्मनिरपेक्षता को लेकर हो गई है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करिए और तमाम तरह की सुविधाएं भोगने का एकाधिकार पा जाइए। इसके लिए आपको सिर्फ मंचों – गोष्ठियों में अपनी सेक्युलर छवि का डंका बजानेभर की जरूरत है। भले ही हकीकत में आपका चेहरा कुछ और ही क्यों ना हो। एक दौर था – जब हकीकत में भी दक्षिणपंथी होने वाले लोग भी इस फैशन के सामने अपनी खाकी निक्कर का जिक्र करने से डरते थे। लेकिन भेड़िया आया की तर्ज पर धर्मनिरपेक्षता का अब जितना गान हो चुका है, उससे यह शब्द अपना अर्थबोध और भरोसा खोता जा रहा है। इसका असर है कि अब हकीकत के दक्षिणपंथियों को भी अब अपने आरएसएस से जुड़ाव को स्वीकार करने में हिचक नहीं रही।
संचार क्रांति के दौर में ऐसे लोग अब भी इसी भ्रम में जी रहे हैं कि जनता को वे जैसा समझाएंगे, वह उसी तरह मानती-समझती रहेगी। वे भूल जाते हैं कि पब्लिक अब सबकुछ समझती है। उसे पता है कि धर्मनिरपेक्षता का दम भरने वाले लोग भी अपनी जिंदगी में कितने धर्मनिरपेक्ष हैं। उसे हकीकत का भान है। इसीलिए आज धर्मनिरपेक्षता का दावा लोगों को लुभा नहीं पा रहा है। राजनीति में इसका असर दिख भी रहा है। नरेंद्र मोदी को कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने कठघरे में खड़ा करने की कम कोशिशें नहीं कीं। कर्नाटक में बीजेपी को सांप्रदायिक बताने का कोई मौका लोगों ने नहीं छोड़ा। लेकिन जनता इन सांप्रदायिक नरेंद्र मोदी और बीएस येदुरप्पा को ही चुना।
दरअसल धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले लोग इसका इतना गान कर चुके हैं कि उन पर जनता का भरोसा टूटता जा रहा है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाली ताकतों को देखिए। उन्हें आम जनता से ज्यादा अपने परिवार की चिंता कहीं ज्यादा है। मुलायम सिंह के घर में ही अब सबसे ज्यादा सांसद और विधायक होते हैं। धर्मनिरपेक्ष ओमप्रकाश चौटाला धर्मनिरपेक्षता के नाम पर परिवारवाद का ही विस्तार करते रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे एचडी देवेगौड़ा ने पिछले दिनों कर्नाटक में परिवारवाद का जो निर्लज्ज प्रदर्शन किया – वह लोगों के जेहन में अब भी ताजा है। इसका हश्र उन्हें कर्नाटक विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी की हार के तौर पर देखना पड़ा है। इस कड़ी में नया नाम मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व स्पीकर पीए संगमा हैं। उनका बेटा राज्य का उपमुख्यमंत्री है और बेटी नई सांसद। खुद तो विधायक हैं हीं। ये सभी लोग धर्मनिरपेक्ष हैं।
तो क्या ये मान लिया जाय कि धर्मनिरपेक्षता को सांप्रदायिक विरोध के नाम पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा देने का ठेका मिल जाता है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले नेता भले ही ये मानते रहे हों- लेकिन ये भी सच है कि इन ताकतों के इसी व्यवहार ने अब जनता की नजर में इनकी वकत घटा दी है। ऐसे में जनता को धर्मनिरपेक्षता को सांप्रदायिक विरोध के नाम पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा देने का ठेका मिल जाता है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले नेता भले ही ये मानते रहे हों- लेकिन ये भी सच है कि इन ताकतों के इसी व्यवहार ने अब जनता की नजर में इनकी वकत घटा दी है। ऐसे में जनता को अब भारतीय जनता पार्टी में भी दम नजर आने लगा है। भाजपा के उभार में लोगों को जबरिया सांप्रदायिक ठहराने और अपनी ढोल खुद ही ऊंची आवाज में बजाने वाले लोगों का जोरदार हाथ है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या सेक्युलर होने का दावा करने वाले लोग इस तथ्य को स्वीकार कर पाते हैं या नहीं।

Tuesday, August 5, 2008

भोजपुरी-मैथिली अकादमी का उद्घाटन

उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली विधानसभा की चुनावी आहट के बीच आखिरकार भोजपुरी मैथिली अकादमी का शुभारंभ हो ही गया। दिल्ली के श्रीराम सेंटर में पांच अगस्त की शाम जिस तरह पूरबिया लोग जुटे, उससे साफ है कि राजधानी की सांस्कृतिक दुनिया में अब भदेसपन के पर्याय रहे लोग अपनी छाप छोड़ने के लिए तैयार हो चुके हैं। राजधानी में चालीस लाख के करीब भोजपुरी और पूरबिया मतदाता हैं। जाहिर है दिल्ली सरकार की इस पर निगाह है। एक साथ मतदाताओं के इतने बड़े वर्ग को नजरअंदाज कर पाना आसान नहीं होगा। लिहाजा उन्हें भी एक अकादमी दे दी गई है। इस अकादमी के उद्घाटन समारोह की सबसे उल्लेखनीय चीज रही संजय उपाध्याय के निर्देशन में पेश विदेसिया की प्रस्तुति। भोजपुरी के भारतेंदु भिखारी ठाकुर की इस अमर रचना को संजय की टीम ने जबर्दस्त तरीके से पेश किया। खासतौर पर प्राण प्यारी की भूमिका में शारदा सिंह और बटोही की भूमिका में अभिषेक शर्मा का अभिनय शानदार रहा।
लेकिन इस उद्घाटन में खटकने वाली बात ये रही कि पूरी तरह सांस्कृतिक इस मंच को सियासी रंग देने की पुरजोर कोशिश की गई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपने निर्धारित वक्त से करीब तीन घंटे देर से पहुंचीं। और आखिर में मंच पर वे ही वे रहीं। अगर किसी ने उनका साथ दिया तो अकादमी के सदस्यों और उपाध्यक्ष ने। सांस्कृतिक मंच को सियासी को सियासी रंग देने मे आगे रहे अकादमी के सदस्य अजित दुबे - उन्होंने एक तरह से मौजूद दर्शकों से अपील ही कर डाली कि जो लोग आपके मान सम्मान का खयाल करते हैं - उनका खयाल आप भी रखिए। यानी शीला दीक्षित को नवंबर के विधानसभा चुनावों में वोट दीजिए।
उद्घाटन समारोह में एक बात और बार-बार खटकी। इस समारोह को भोजपुरी या मैथिली से ना जोड़कर बिहार से जोड़ दिया गया। भोजपुरी भाषा संस्कृति सिर्फ बिहार में नहीं है - बल्कि बस्ती से लेकर गोरखपुर, बलिया होते हुए बनारस तक उत्तर प्रदेश का एक बड़ा इलाका भोजपुरी भाषी है और राजधानी में वहां के बाशिंदे भी बहुत हैं। भोजपुरी का पर्याय बिहार नहीं है। अकादमी को ये सोचना होगा - अन्यथा आने वाले दिनों कई तरह की समस्याएं उठ खड़ी होंगी।

Friday, August 1, 2008

चला गया गठबंधन राजनीति का चाणक्य


उमेश चतुर्वेदी
राजनीति की दुनिया में शिखर पर हों और अदना से पत्रकार के फोन पर भी सामने आ जाएं - कम से कम आज की सियासी दुनिया में ऐसा कम ही नजर आता है। लेकिन हरिकिशन सिंह सुरजीत इनसे अलग थे। उनके गुजरने के बाद भी उनके घर के फोन की घंटी तो बजेगी - लेकिन खास अंदाज में ये..स की आवाज सुनाई नहीं देगी। सुरजीत जब तक स्वस्थ रहे, अपना फोन खुद ही उठाते थे। खास ढंग से येस की आवाज सुनाई देते ही एक आश्वस्ति बोध जागता था कि दार जी इंटरव्यू के लिए तैयार हो जाएंगे। ऐसे कई मौके आए भी - जब उन्होंने इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया, लेकिन कभी बुरा नहीं लगा।
दैनिक भास्कर के राजनीतिक ब्यूरो में काम करते वक्त सबसे जूनियर होने के नाते सीपीएम और सीपीआई मेरी ही बीट थी। आज का तेज बढ़ता अखबार जब तक मध्यप्रदेश और राजस्थान की ही सीमा में रहा,सीपीएम और सीपीआई से जुड़ी खबरों पर उसका न तो ज्यादा ध्यान था, ना ही उसकी जरूरत थी। नब्बे के दशक के आखिरी दिनों में इस बीट में कोई ग्लैमर भी नहीं था, लिहाजा तब के दैनिक भास्कर के वरिष्ठ और नामी रिपोर्टर शायद ही कभी दोनों पार्टियों की ओर रूख करते थे। ऐसे में नया होने के चलते मुझे ही ये बीट मिली। तभी मैंने जाना कि जिसे भारतीय राजनीति का चाणक्य कहा जाता है, वह निजी जिंदगी में कितना सहज है। ये स्थिति सीपीआई के महासचिव एबी वर्धन के भी साथ है। भारतीय राजनीति का चाणक्य उन्हें ऐसे ही नहीं कहा जाता था। गैर कांग्रेसवाद की लहर पर सवार विपक्ष को जब 1996 के चुनावों में बहुमत नहीं मिला तो यह सुरजीत ही थे, जिनकी वजह से देवेगौड़ा की अगुआई में कांग्रेस और वाम समर्थित सरकार बनी। जब देवेगौड़ा से नाराज होकर कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने संयुक्त मोर्चा की सरकार से समर्थन वापस ले लिया, तब भी सुरजीत ने हार नहीं मानी और इंद्रकुमार गुजराल की अगुआई में दूसरी सरकार बनाई। तब उनका एक उद्देश्य सांप्रदायिकता के नाम पर किसी भी कीमत पर भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में नहीं आने देना था। कहना न होगा , सुरजीत इसमें कामयाब रहे।
लेकिन दुर्भाग्यवश इंद्रकुमार गुजराल की भी सरकार नहीं टिक पाई। 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए और भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में एनडीए को बहुमत मिला। सुरजीत की तमाम कोशिशों के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। लेकिन 1999 में जब एक वोट से वाजपेयी सरकार गिर गई तो गैर कांग्रेसवाद का झंडा बुलंद करने वाले सुरजीत ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने की पुरजोर लेकिन नाकामयाब कोशिश की। दरअसल उनके ही चेले मुलायम सिंह ने कांग्रेस का साथ देने से इनकार कर दिया था। तब सुरजीत की सोनिया लाइन की सीपीएम में भी जमकर मुखालफत हुई। कई सांसदों ने खुद मुझसे सुरजीत की इस लाइन का विरोध जताया था। यहां यह ध्यान देने की बात है कि इन्हीं सुरजीत ने पार्टी के तेजतर्रार सांसद सैफुद्दीन चौधरी को 1996 में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। उनका गुनाह सिर्फ इतना था कि 1995 में हुए पार्टी के चंडीगढ़ कांग्रेस में उन्होंने सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए सीपीएम को कांग्रेस की लाइन पर चलने का सुझाव दिया था। तब पार्टी सैफुद्दीन चौधरी के इस सुझाव को पचा नहीं पाई और उनका टिकट तक काट दिया था। आज जब सोमनाथ चटर्जी को सीपीएम से निकाल दिया गया है – एक बार फिर सैफुद्दीन चौधरी की लोगों को याद आ रही है। लेकिन तीन ही साल में सुरजीत बदल गए।
तब सुरजीत भले ही कामयाब नहीं रहे। लेकिन उनकी बनाई नींव पर ही 2004 में एनडीए का इंडिया शाइनिंग का नारा ध्वस्त हो गया और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी। तब सुरजीत ही थे कि सांप्रदायिकता विरोध के बहाने सोनिया गांधी के घर डिनर पर समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह को लेकर गए थे। यह बात दीगर है कि तब सोनिया ने सुरजीत की उपस्थिति के बावजूद अमर सिंह से सीधे मुंह बात भी नहीं किया था। यह संयोग ही है कि सुरजीत की पार्टी अब सोनिया की अगुआई वाली कांग्रेस से अलग हो गई है और अमर सिंह पूरी पार्टी समेत कांग्रेस के साथ हैं।
वामपंथी राजनीति के इस महायोद्धा से मैंने मार्च 2000 में जो इंटरव्यू किया था, वह बंगला और मलयालम के पत्रकारों तक को आज भी याद है। दैनिक हिंदुस्तान में 26 मार्च 2000 को यह इंटरव्यू छपा था। इसी इंटरव्यू में उन्होंने बतौर सीपीएम महासचिव पहली बार स्वीकार किया था कि बुद्धदेव भट्टाचार्य ही ज्योति बसु के उत्तराधिकारी होंगे। इस इंटरव्यू में मैंने उनसे कई तीखे सवाल पूछे थे। जिसमें एक सवाल था कि आपके यहां जब तक भगवान नहीं हटाता, तब तक सीपीएम महासचिव के पद से कोई नहीं हटता। ऐसे तीखे सवाल का जवाब भी उन्होंने हंसते हुए दिया था। लेकिन उन्होंने मेरे इस सवाल को दो हजार पांच में ही झुठला दिया। जब प्रकाश करात को सीपीएम की बागडोर थमा दी गई।
अब सुरजीत हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन गठबंधन राजनीति के इस चाणक्य की याद हमेशा आती रहेगी।

Tuesday, July 29, 2008

अमर सिंह का समाजवाद

उमेश चतुर्वेदी
गैर कांग्रेसवाद की सियासी घुट्टी के साथ राजनीति की दुनिया में पले-बढ़े मुलायम सिंह यादव के कांग्रेसीराग ने हलचल मचा दी है। इसे न तो उनके दोस्त समाजवादी पचा पा रहे हैं और न ही उनके दुश्मन। सबसे ज्यादा हैरत में उनके साथ समाजवाद को ओढ़ना-बिछौना बनाए रखे उनके दोस्तों को हो रही है। वे एक ही सवाल का जवाब ढूंढ़ रहे हैं कि आखिर वह कौन सी वजह रही कि चार साल से संसद और सड़क – दोनों जगहों पर अमेरिका को पानी पी-पीकर गाली देते रहे मुलायम सिंह को अमेरिका के साथ परमाणु करार में राष्ट्रीय हित नजर आने लगा है। यह राष्ट्रीय हित इतना बड़ा हो गया है कि उनके चेले और दोस्त तक उनका साथ छोड़-छोड़कर निकलते जा रहे हैं। लेकिन मुलायम सिंह की पेशानी पर बल भी नहीं दिख रहा है। अमर सिंह की मुस्कान और चौड़ी होती जा रही है। शाहिद सिद्दीकी और एसपी बघेल समेत मुलायम सिंह के छह सांसदों को अमर सिंह के ब्रांड वाले समाजवाद का चोला उतार गए हैं।
समाजवादी पार्टी को कवर करने वाले पत्रकारों को पता है कि अमर सिंह ऑफ द रिकॉर्ड संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की नेता और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बारे में कैसे विचार रखते रहे हैं। पानी पी-पीकर कांग्रेस को गाली देने वाले अमर सिंह ना सिर्फ बदल जाएं, बल्कि एक जमाने के धरती पुत्र मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता को भी बदलने के लिए मजबूर कर दें तो सवाल उठेंगे ही। इसकी वजह पूरा देश जानना चाहेगा। सवाल तो ये भी है कि अमर सिंह की हालिया अमेरिका यात्रा के दौरान आखिर ऐसा क्या हुआ कि समाजवादी पार्टी का रूख एकदम से बदल गया। या फिर अमेरिकी हवा की तासीर ही ऐसी है कि वहां जाने वाला करार-करार चिल्लाने लगता है। इसका जवाब तो अमर सिंह ही दे सकते हैं या फिर मुलायम सिंह।
सवालों की वजह भी है। जब से मनमोहन सिंह की अगुआई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार चल रही है, मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी अमेरिका का विरोध करते रहे हैं। संसद में कभी ईरान के मसले पर तो कभी इराक तो कभी अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप का समाजवादी पार्टी वामपंथियों के साथ पुरजोर विरोध करती रही है। दरअसल समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश में जो वोट बैंक रहा है, उसमें पिछड़े और मुस्लिम तबके की भागीदारी रही है। बाबरी मस्जिद पर 1990 में पुलिस कार्रवाई के बाद से तो सूबे का मुसलमान मुलायम सिंह को ही अपना नेता मानता रहा है। कहा तो ये जा रहा है कि समाजवादी पार्टी पिछले विधानसभा चुनाव की हार को अब तक पचा नहीं पाई है। इस चुनाव में करीब चालीस प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ बहुजन समाज पार्टी का दामन थाम लिया। जिसका खामियाजा समाजवादी पार्टी की सत्ता से बाहर होकर चुकाना पड़ा। यही वजह रही कि संसद से लेकर सड़क तक – हर मौके पर पार्टी ने अपने मुस्लिम मतदाताओं का ध्यान रखा। ईरान को लेकर अमेरिकी नजरिए को लेकर आज भी भारत का आम मुसलमान पचा नहीं पाता। उसे अमेरिकी रवैये को लेकर क्षोभ और नाराजगी भी रहती है। इराक में अमेरिकी कार्रवाई को देश के वामपंथियों और मुसलमानों – दोनों ने कभी स्वीकार नहीं किया। जाहिर है मुलायम सिंह को अपने वोटरों की परवाह रही और उनकी पार्टी संसद में अमेरिका को इराक का हत्यारा तक बताती रही है। अमेरिका विरोध का एक भी मौका समाजवादी पार्टी ने नहीं खोया है। सरकार चलाते हुए भी उसने लखनऊ में अमेरिका विरोधी रैली भी आयोजित की थी।
यही वजह रही कि समाजवादी पार्टी संसद के पिछले बजट सत्र तक अमेरिका से करार का विरोध करती रही। लेकिन अब उसका सुर बदल गया है। वह कांग्रेस के नजदीक आ गई है और अपने अपमान तक भुला बैठी है। पिछले साल 22 फरवरी को लखनऊ में मुलायम सिंह समेत पूरी पार्टी दम साधे कांग्रेस सरकार के हाथों अपनी राज्य सरकार की बर्खास्तगी का आशंकित इंतजार कर रही थी। तब समाजवादी पार्टी के लोगों को कांग्रेस के लिए गालियां ही सूझ रही थीं। राज्यपाल टीवी राजेश्वर के खिलाफ वाराणसी में समाजवादी पार्टी की यूथ विंग ने प्रदर्शन भी किया और कांग्रेस के एजेंट के तौर पर काम करने का आरोप भी लगाया। ऐसे आरोप मुलायम सिंह भी लगाते रहे हैं। लेकिन अब पूरी तस्वीर बदल गई है।
मुलायम सिंह यादव की पूरी सियासी यात्रा संघर्षों के साथ आगे बढ़ी है। सड़क से लेकर विधानसभा से होते हुए संसद तक संघर्ष का उनका अपना इतिहास रहा है। उन्हें धरतीपुत्र कहने की यही अहम वजह भी रही है। लेकिन जब से उनके साथ सोशलाइट अमर सिंह का साथ मिला है, मुलायम सिंह की भी संघर्ष क्षमता पर आंच आने लगी है। राजबब्बर ने पिछले साल जब समाजवादी पार्टी से विद्रोह किया था तो उन्होंने बड़ा मौजूं सवाल उठाया था। उनका कहना था कि आखिर क्या वजह रही कि रघु ठाकुर और मोहन प्रकाश जैसे तपे-तपाए जुझारू नेताओं को मुलायम सिंह का साथ छोड़ना पड़ा और अमर सिंह उनके करीब होते गए। रघु ठाकुर राजनीतिक बियाबान में अपनी अलग पार्टी चला रहे हैं, जिसका नाम अब भी कम ही लोगों को पता होगा और मोहन प्रकाश अब कांग्रेस के प्रवक्ता की जिम्मेदारी निभा रहे हैं।
दरअसल अमर सिंह के साथ ही पार्टी के संघर्षशील चरित्र में कमी आती गई। ऐसा नहीं कि पार्टी में आए इन बदलावों से मुलायम सिंह अनजान रहे। शायद बदले दौर में उन्हें भी यह बदलाव मुफीद नज़र आ रहा था और उन्होंने इसे मौन बढ़ावा देने में ही भलाई समझा। 1993 में बहुजन समाजपार्टी के साथ सरकार बनाने के बाद मुलायम ने जातिवाद का खुला खेल तो शुरू किया, लेकिन पार्टी की संघर्षशीलता में कमी नहीं आई। इस दौरान एक खास बिरादरी के पार्टी कार्यकर्ताओं ने जमकर गुंडई और लूटखसोट की और मुलायम सिंह इससे आंखें मूंदे रहे। इसके बावजूद उनका नजरिया जमीनी ही था। लेकिन कांग्रेसी राजनीति से समाजवादी पार्टी के साथ अमर सिंह के जुड़ते ही पार्टी के चरित्र और मुलायम के नजरिए में भी बदलाव दिखने लगा। पार्टी के लिए अब संघर्ष से ज्यादा सत्ता साध्य होती गई। इस राह में बाधक बने तब के महासचिव रघु ठाकुर और मोहन प्रकाश को पार्टी छोड़ना पड़ा। साथ तो बाद में उन बेनीप्रसाद वर्मा को भी छोड़ना पड़ा- जिनका दावा है कि वे कभी एक ही थाली में मुलायम के साथ खाते थे और कई बार एक ही चारपाई पर सोए भी हैं।
कहा जा रहा है मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में लगातार कम होती अपनी कमजोर जमीन को हासिल करने के लिए कांग्रेस का हाथ थामा है। कांग्रेस को भी एक ऐसे साथी की जरूरत थी,जो वामपंथियों से अलगाव के बाद संसद में उसका साथ तो दे ही, संसद के बाहर उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में भी उसे सियासी जमीन मुहैया कराए। उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनाव में करीब 132 सीटों पर मुलायम सिंह के उम्मीदवार पांच सौ से लेकर पांच हजार वोटों से हारे। उन्हें उम्मीद है कि कांग्रेस का साथ उनकी साइकिल की चाल को तेज कर देगा।
लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि मुलायम सिंह की पहचान उनके संघर्षों से रही है, जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर 1991 में अपनी सरकार की भी परवाह नहीं की, उनके चरित्र में यह बदलाव लोगों को हैरतनाक नजर आए तो इस पर कोई अचरज नहीं होना चाहिए। दरअसल अमर सिंह का कभी संघर्षों का इतिहास नहीं रहा है। वे भले ही समाजवादी पार्टी के महासचिव हैं, लेकिन उन्हें यह कहने में हिचक नहीं होती कि वे राज खानदान से हैं। जिन्हें इसकी जानकारी लेनी हो, वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पूर्व सांसद डॉ.चंद्रकला पांडे से ले सकते हैं। ऐसे में पार्टी का मूल चरित्र बदलना ही था। समाजवादी पार्टी अब सड़क से लेकर संघर्ष करने वाली पार्टी नहीं रही। दरअसल वह अब सत्ता से अलग रह ही नहीं सकती। यानी नए दौर में वह सत्ताधारी समाजवाद के नजदीक पहुंचती जा रही है। पिछले कुछ साल में समाजवादी पार्टी का जो चरित्र विकसित हुआ है, उसमें सत्ता के बिना न तो कार्यकर्ताओं को बांधना संभव है और ना ही सांसदों को। सत्ता की चाबी के बिना अमर सिंह तो कत्तई नहीं रह सकते। जिस तरह कांग्रेस को समर्थन के ऐलान के बाद उन्होंने फौरन पेट्रोलियम सचिव को तलब कराया, उससे उनका मकसद साफ हो गया।
इस पूरे प्रकरण में न तो मीडिया का एक तथ्य की ओर ध्यान गया है और ना ही समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं का। कांग्रेस का हाथ थामने जैसे अहम प्रकरण को लेकर मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश की चुप्पी की ओर किसी की निगाह नहीं है। क्या इस चुप्पी की भी कोई वजह है या समाजवादी पार्टी में किसी नई हलचल के पहले की शांति है। फिलहाल सबकी निगाह इस पर ज्यादा है कि कांग्रेस का साथ यूपी की सियासी जमींन पर मुलायम की सियासत और अमर सिंह की सत्ता की हनक का कितना फायदा समाजवादी पार्टी को मिल पाता है।

Sunday, June 8, 2008

बलिया में सब जायज है

उमेश चतुर्वेदी
जब भी बलिया जाता हूं तो मन में एक आस होती है कि महानगरीय भागदौड़ के बाद सुकून मिलेगा और अपनी माटी की गंध मन-मस्तिष्क में नई ऊर्जा का संचार करेगी। लेकिन हर बार इस आस पर तुषारापात ही होता है। जून के पहले हफ्ते की बलिया की यात्रा के दौरान मिली एक जानकारी ने मुझे चौंका दिया। बलिया में साल-दो साल पहले प्राथमिक स्कूलों के अध्यापकों की मेरिट के आधार पर भारी भर्तियां हुईं थीं। इनका काम है-बलिया के अबोध बच्चों को अक्षर ज्ञान कराना। लेकिन जिला बेसिक शिक्षाधिकारी की सहायता से ये लोग अपना मूल काम ही नहीं कर रहे हैं। इनमें से करीब पच्चीस अध्यापक - अध्यापिकाएं ऐसे हैं, जो बलिया के बाहर रहते हैं और छह-सात महीने बाद अपने स्कूल का दर्शन करते हैं। उनके इस अहसान के बदले उनकी तनख्वाह लगातार मिल रही है। इनमें से कई अध्यापिकाओं के पति दूसरे राज्यों में तैनात हैं और वे अपने पतियों के साथ हैं। लेकिन उनका नाम स्कूल की लिस्ट में ना सिर्फ चल रहा है-बल्कि उन्हें बाकायदा वेतन भी मिल रहा है। कई अध्यापक दिल्ली या जेएनयू में पढ़ रहे हैं। बदले में उनकी जगह पर उनके भाई या कोई और पढ़ाने जा रहे हैं। मजे की बात ये है कि इसकी जानकारी इलाके के एसडीआई और जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को भी है। लेकिन कार्रवाई करना तो दूर वे खुद भी इसमें सहायता मुहैय्या करा रहे हैं। इसके लिए उन्हें बाकायदा हर ऐसे अध्यापक से दो हजार रूपए महीने का वेतन मिल रहा है। ऐसे ही एक अध्यापक का कहना है कि इसमें से एक हजार रूपए बेसिक शिक्षा अधिकारी को मिलता है। जबकि बाकी एक हजार का निचले स्तर के अधिकारियों में बंटवारा हो जाता है। सबसे दिलचस्प बात ये है कि इन अध्यापक-अध्यापिकाओं में सबसे ज्यादा समाज के नैतिक अलंबरदार माने जाने वाले लोगों के घरों के हैं। स्थानीय अखबारों में उनके गाहे-बगाहे सुवचन - प्रवचन छपते रहते हैं। लेकिन घर की इस अनैतिकता को रोकने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।

Monday, May 19, 2008

जनभागीदारी से बदल सकती है गांवों की तस्वीर

मोहन धारिया से उमेश चतुर्वेदी की बातचीत

आपके मन में वनराई और सीएनआरआई का विचार कैसे आया ?
देखिए, हमने जनता पार्टी के जरिए देश की तस्वीर बदलने का सपना देखा था। इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ एक हुए थे। लोगों ने हम पर भरोसा भी किया। मुझे याद है – 1977 के चुनाव प्रचार में कई जगहों पर हमने कहा कि हमारा उम्मीदवार अच्छा आदमी है। उसके पास पैसा नहीं है तो लोगों ने हमारी तरफ सिक्के तक उछाल कर फेंके थे। हमें रूपए भी दिए। जनता ने हम पर भरोसा किया। लेकिन हमने 1980 आते-आते उसे भरोसे को तोड़ दिया। तब मुझे लगा कि मौजूदा राजनीति में हमारे लिए कोई जगह नहीं है। और मैंने राजनीति को विदा कह दिया। इसके बाद ही मैंने वनराई का गठन किया। गांधी के सपनों के मुताबिक गांवों को आत्मनिर्भर और हरा-भरा बनाने की दिशा में जुट गया। वैसे 1972 में स्टॉकहोम में पर्यावरण को लेकर पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। उसमें धरती के बदले वातावरण और पर्यावरण को हो रहे नुकसान को बचाने को लेकर विचार हुआ था। उसमें मैंने भी हिस्सा लिया था। बाद में जब आपातकाल के दौरान जेल में 16 महीने तक बंद रहा तो उस दौरान भी मैंने इस विषय पर खूब सोचा। तभी मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि अगर धरती और पेड़-पौधों को बचाने की कवायद शुरू नहीं की गई तो मानवता ही खतरे में पड़ जाएगी। जनता पार्टी के टूटने के बाद उसी विचार की बुनियाद पर हमने काम शुरू किया।

आप पर्यावरण को लगातार पहुंच रहे इस नुकसान के लिए किसे जिम्मेदार मानते हैं?
देखिए, पहले पर्यावरण की रक्षा पूरे समाज का सरोकार था। मुझे याद है कि जब बरसात आने को होती थी तो मेरे बाबा पूरे गांव को इकट्ठा करके गांव के तालाब को साफ और गहरा करने की बात कहते थे। फिर पूरा गांव श्रमदान करके तालाब को गहरा कर देता था। इसके लिए पैसे की जरूरत नहीं होती थी। लोगों को लगता था कि अगर उन्होंने तालाब को नहीं सुधारा तो गांव में पानी नहीं बचेगा और पानी नहीं होगा तो उन्हें पीने के साथ ही खेती के लिए भी पानी की कमी होगी। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। तालाब को सुधारने की इच्छा तो सभी रखते हैं – लेकिन ये काम ठेकेदार करता है। उसका काम सरकारी पैसे की लूट-खसोट में ज्यादा रहता है। हमने सीएनआरआई का गठन इसी लिए किया है कि वह ठेकेदारों और ऐसे कामों की निगरानी रखे। वैसे मेरा मानना है कि आज भी लोगों को समझाया जाय तो अपने गांव-घर की खातिर पर्यावरण की रक्षा के लिए श्रमदान करने से नहीं हिचकेंगे।

देश में महंगाई और अनाज संकट की आजकल खूब चर्चा हो रही है। लेकिन लोगों का इस ओर ध्यान नहीं है कि शहर के विस्तार और सेज के लिए लगातार उपजाऊ जमीनों का ही इस्तेमाल हो रहा है। इसे लेकर आपके क्या विचार हैं ?
बिल्कुल गलत हो रहा है। चीन जैसे बड़े देश में सिर्फ 75 स्पेशल इकोनॉमिक जोन हैं। लेकिन भारत में सेज की ऐसी आंधी चल पड़ी है कि हर राज्य दस-बीस को कौन कहे सौ-दो सौ सेज बनाना चाहता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। इतने सेज की देश में जरूरत नहीं है। वैसे भी सेज के लिए देश में अब भी काफी ज्यादा बंजर भूमि है। उसका इस्तेमाल होना चाहिए। अगर इसे लेकर सरकार नहीं चेती तो साफ है आने वाले दिनों में देश को और ज्यादा अनाज संकट से जूझना पड़ेगा।

आप युवा तुर्क के ग्रुप के सदस्य रहे। आपके साथी चंद्रशेखर और रामधन तो उत्तर प्रदेश के ही थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की बदहाली किसी से छुपी नहीं है। क्या आपका ध्यान कभी पूर्वी उत्तर और बिहार के गांवों को बदलने की ओर नहीं गया।
ऐसा नहीं है। मैंने अपने दोस्त चंद्रशेखर से कई बार कहा कि तुम मुझे लोग दो- मैं तुम्हारे इलाके के गांवों की भी तस्वीर बदलना चाहता हूं। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। मैं लोग इसलिए चाहता था – क्योंकि बलिया या बिहार के लोगों से वह सीधे संपर्क में था। उसका कहा लोग मानते – लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। चंद्रशेखर ऐसे विकास करने-कराने के लिए नहीं बना था। उसने मेरी बात नहीं सुनीं। लिहाजा हमने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों को बदलने का काम हाथ में नहीं लिया। मैंने तो उसे भोंडसी में निर्माण कराने से भी मना किया था। लेकिन वह नहीं माना। वैसे भी वन भूमि पर निर्माण गैरकानूनी ही होता है। इसका हश्र बाद में दिखा भी।

लेकिन चंद्रशेखर ने भी तो भारत यात्रा केंद्र के जरिए विकास का सपना देखा था।
चंद्रशेखर के भारत यात्रा केंद्र बाद में किस तरह की राजनीति के अड्डे बन गए। ये भी किसी से छुपा नहीं है।

आपने ग्रामीण भारत के स्वयंसहायता समूहों का राष्ट्रीय परिसंघ (सीएनआरआई) बनाया है। आम एनजीओ को लेकर धारणा ये है कि ये सिर्फ पैसे बनाने का जरिया हैं-विकास से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। एनजीओ को लेकर इस धारणा को बदलने को लेकर आपकी कोई योजना है?
देखिए, सीएनआरआई की सदस्यता के लिए हमने पहली शर्त रखी है कि उस एनजीओ को अपने काम में पूरी पारदर्शिता रखनी होगी। हमारा मानना है कि एनजीओ का काम ठेका लेना नहीं- बल्कि ठेकेदार और सरकारी मशीनरी की मॉनिटरिंग करना है। हमारे संगठन में शामिल हर एनजीओ पर हमारी कड़ी निगाह रहती है। अगर उसकी गड़बड़ी की शिकायत मिलती है तो उसे अपने संगठन से निकालने से हमें कोई परहेज नहीं होगा।

आम भागीदारी से गांवों की तस्वीर बदलता युवा तुर्क


उमेश चतुर्वेदी
चौरासी साल की उम्र में आम आदमी थककर जिंदगी के आखिरी वक्त को रामनाम के सहारे काटने लगता है। पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशक में युवा तुर्क के नाम से भारतीय राजनीति में विख्यात रहे मोहन धारिया उनमें से नहीं हैं। उम्र के इस पड़ाव पर भी वे पूरी शिद्दत से जुटे हुए हैं। ये उनकी सक्रियता और कुशल नेतृत्व का ही असर है कि इस समय ग्रामीण भारत के स्वयं सहायता समूहों के परिसंघ में छह हजार से ज्यादा एनजीओ एक छतरी के नीचे काम कर रहे हैं। राजधानी दिल्ली में 25 अप्रैल को जब इसी संगठन सीएनआरआई का तीसरा राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ तो उसके उद्घाटन सत्र में ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह को कहना पड़ा कि अब सरकारी मशीनरी और सरकार को गांवों में विकास कार्य कराने के स्वयं सहायता समूहों के पास आना पड़ेगा।
ग्रामीण भारत के स्वयं सहायता समूहों के परिसंघ की स्थापना तीन साल पहले कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के गुरूकुल में मोहन धारिया ने की।
इस देश में करीब 29 लाख एनजीओ हैं जो ग्रामीण से लेकर शहरी भारत में अपनी-अपनी तरह से विकास का काम कर रहे हैं। वैसे भी एनजीओ का नाम आते ही आम लोगों के सामने सहायता के नाम पर पैसा बनाने वाले जेबी संगठनों की ही तस्वीर उभरती है। इसके लिए स्वयं एनजीओ का गोरखधंधा ही जिम्मेदार है। राजनीति और अफसरशाही में कई ऐसे लोग मिल जाएंगे- जिन्होंने एनजीओ के नाम पर जेबी संगठन बनाकर मलाई काट रहे हैं। मोहन धारिया का नाम उसूलों की राजनीति के लिए जाना जाता रहा है। ऐसे में उनके सामने ये चुनौती है कि उनके संगठन पर ऐसे दाग ना लगें। इसके लिए उन्होंने चाकचौबंद व्यवस्था करने की कोशिश की है। उनका कहना है कि सीएनआरआई के गठन के दिन ही ये तय कर दिया गया कि इसका सदस्य बनने वाले एनजीओ को पारदर्शी तरीके से काम करना होगा और अपने आय-व्यय और काम करने का ब्यौरा हर साल पेश करना होगा। इस संगठन के छह हजार से ज्यादा सदस्य होने से साबित होता है कि अब भी देश में काम करने वाले और उसूलों वाले लोग कम नहीं हैं। सीएनआरआई के लिए उन्होंने तय कर दिया है कि एनजीओ का काम ठेकेदारी करना नहीं है- बल्कि उसका मानिटरिंग करना है। राजधानी दिल्ली में 25 अप्रैल से 27 अप्रैल तक चले इसके तीसरे सालाना सम्मेलन में इसकी बार-बार चर्चा हुई। ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपने उद्घाटन भाषण में इससे जहां सहमति जताई- वहीं पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री वेंकैया नायडू तक ने एनजीओ को ये भूमिका देने की जोरदार वकालत की।

साठ और सत्तर के दशक में भारतीय राजनीति में युवा तुर्क के तौर पर विख्यात पांच नेताओं में से अब सिर्फ मोहन धारिया ही सक्रिय हैं। अपनी समाजवादी सोच के साथ कांग्रेस के अंदर काम करने वाले बाकी चार युवा तुर्क रामधन, ओम मेहता, कृष्णकांत और चंद्रशेखर इस दुनिया में नहीं हैं। इंदिरा गांधी ने जब देश पर आपातकाल थोप दिया तो उसका विरोध करने वाले लोगों में ये युवा तुर्क ही थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने उनके विरोध को तवज्जो नहीं दी और उन्हें भी जेल के सींखचों के भीतर पहुंचाने में देर नहीं लगाई। जबकि इसके ठीक पहले इन युवा तुर्कों की ही रिपोर्ट पर उसी इंदिरा गांधी ने राजाओं के प्रिवीपर्स खत्म किए, 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। जब जनता पार्टी बनी तो ये युवा तुर्क कांग्रेस को छोड़ जनता पार्टी में शामिल हो गए। चंद्रशेखर तो अध्यक्ष ही चुने गए। मोहन धारिया उसके महासचिव थे। लेकिन जनता पार्टी का प्रयोग जब असफल हुआ तो मोहन धारिया को बहुत चोट पहुंची। इसके बाद से ही उन्होंने राजनीति की दुनिया को अलविदा कह दिया और बनराई नाम का संगठन बना कर पर्यावरण के लिए जागरूकता फैलाने के काम में जुट गए। जनता पार्टी का प्रयोग असफल रहने की पीड़ा उनके चेहरे अब भी उभर आती है। उन्हें ये कहने से गुरेज नहीं है कि उन्होंने यानी जनता पार्टी के नेताओं ने जनता से धोखा किया।
1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में पहला पृथ्वी सम्मेलन हुआ था। जिसमें धरती के लगातार बदल रहे पर्यावरण को लेकर दुनियाभर के नेताओं और संगठनों ने चिंताएं जताईं थीं। उस सम्मेलन में बतौर सरकारी प्रतिनिधि मोहन धारिया भी शामिल हुए थे। तभी से सृजनशीलता की राजनीति का बीज उनके मन में पड़ गया था। आपातकाल के दिनों की 16 महीने के जेल प्रवास के दौरान इसे लेकर खासा विचार-मनन किया। और जनता पार्टी की सरकार जब गिर गई तो उन्होंने पर्यावरण को लेकर नई जागरूकता फैलाने और उसे जमीनी हकीकत बनाने में जुट गए। इसे स्वयं सहायता समूह वनराई का 1982 में गठन करके मूर्त रूप दिया। आज ये संगठन 250 गांवों के लोगों को गांधी के सपने के मुताबिक आत्मनिर्भर बना चुका है। जहां आधुनिक तरीकों से खेती होती है, पशुपालन का पूरा फायदा उठाने के लिए वैज्ञानिक तरीकों को अख्तियार किया गया है। इन गांवों की गलियां इनके ही मानव मल और गोबर गैस के जरिए बनाई गई बिजली के जरिए रात को रौशन होती रहती हैं। मोहन धारिया कहते हैं कि दादरा नागर हवेली की राजधानी सिलवासा के आसपास के गांवों की पूरी तस्वीर बदल गई है। धारिया का दावा है कि वनराई का काम इतना सफल रहा है कि पूना के आसपास के कई गांवों के वे लोग अपने घरों को वापस लौट आए हैं – जो मुंबई की झुग्गियों में बदतर जिंदगी गुजार रहे थे। उनका काम महाराष्ट्र के बाहर भी फैलता जा रहा है। हाल ही में उन्होंने हरिद्वार के बगल में पांच गांवों की तस्वीर बदलने का जिम्मा उठाया है।
दुनिया में पर्यावरण को लगातार हो रहे नुकसान को रोकने और बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए आज साझा वन प्रबंध को अपनाया जा रहा है। योजना आयोग का उपाध्यक्ष रहते मोहन धारिया ने इस विचार को मूर्त रूप दिया था। उनका ये विचार कितना सफल है – इसी का असर है कि 1992 में राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने इसे अपना लिया। धारिया कहते हैं कि भले ही अभी-भी पेड़ों और जंगलों की गैरकानूनी कटाई हो रही हो- लेकिन इस प्रबंध का ही असर है कि एक करोड़ तिहत्तर लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर वन लगाए जा चुके हैं। जिसका फायदा एक लाख 64 हजार 63 गांवों को फायदा हुआ है। इसी के जरिए करीब नौ लाख आदिवासी परिवारों की आय बढ़ी है और उनका जीवन स्तर ऊंचा उठा है। धारिया कहते हैं पंद्रह साल की ये कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है।
आज भी देश की पैंसठ फीसदी आबादी गांवों में रहती है। बिना इनके विकास के देश की की तरक्की की कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं उभर सकती। शहरी मध्य वर्ग को लुभाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों की गांवों के विकास में कोई सीधी भूमिका नहीं है। लेकिन वनराई के प्रयासों से जुआरी ग्रुप और हिंदुस्तान लीवर जैसी कंपनियां भी कुछ गांवों के विकास में दिलचस्पी ले रही हैं। लेकिन ये कोशिशें ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं। तकलीफ तो इस बात की है कि युवा तुर्क के ग्रुप के तीन नेता उत्तर भारतीय ही थे। लेकिन चंद्रशेखर इनमें सबसे ज्यादा असरदार रहे। लेकिन मोहन धारिया को ये कहने में गुरेज नहीं है कि उनके दोस्त ने अपने इलाके के गांवों के विकास में उनके अनुरोध के बावजूद कोई दिलचस्पी नहीं ली। अन्यथा बदहाली और भ्रष्टाचार के लिए बदनाम उत्तर भारत – खासतौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार की बदहाली की तस्वीर बदलने में ये प्रयास सकारात्मक भूमिका निभा सकता था।
इतिहास के इस युवा तुर्क का मानना है कि सरकार साथ ना दे तो भी लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाई जा सकती है। बस जरूरत है लोगों को भरोसा दिलाने की। लोगों को एक बार भरोसा हो गया कि सामने वाला सचमुच उनके साथ काम करेगा – उनके सुखदुख का ख्याल रखेगा, वे गोवर्धन पर्वत में टेक लगाने के लिए साथ खड़े होने में देर नहीं लगाएंगे।

Friday, April 25, 2008

पुरोहित जी हुए `हाईटेक´

आपको याद होगा एक मोबाइल कंपनी का विज्ञापन – जिसमें एक पुरोहित जी काफी व्यस्त नजर आ रहे हैं। उनके पास शादियां कराने का इतना ठेका होता है कि कुछ शादियां वे एक मंडप में बैठे-बैठे मोबाइल फोन के जरिए ही करा देते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में इन दिनों विज्ञापन की तरह हूबहू नजारा तो नहीं दिख रहा है- लेकिन उसके जैसी हालत तो दिख ही रही है। इन दिनों लग्न का जोर है – सिर्फ अप्रैल महीने में ही शादी-विवाह का मुहूर्त है, लिहाजा एक ही गांव में एक ही दिन तीन-तीन, चार-चार शादियां हो रही हैं। जाहिर हैं इससे नाई और पुरोहित की मशरूफियत बढ़ गई है। लेकिन विकास की बाट जोह रहे पूर्वी इलाके में अभी – भी बिजली की जो हालत है , उसमें नेटवर्क मिल जाए तो गनीमत ही समझिए। लेकिन नाई और पुरोहित जी के हाथ में पंडोरा बाक्स ( पूर्व प्रधानमंत्री अटलविहारी वाजपेयी ने बीएसएनएल की मोबाइल सेवा का उद्घाटन करते वक्त इसे पंडोरा बॉक्स ही कहा था ) आ गया है। लिहाजा आप को दुआ करनी होगी कि आपके सात फेरे लेने से पहले तक मोबाइल का नेटवर्क दुरुस्त रहे। अगर कोई परेशानी हुई तो तय मानिए विवाह का मुहूर्त पंडित और हज्जाम को खोजने में ही गुजर जाएगा। संचार सुविधाओं के बढ़ते पांव का ही असर है कि विवाह मंडप में वैदिक मंत्रोंचार के बीच मोबाइल की घंटी घनघनाते लगती है। कोई कहीं रुककर इंतजार करने के चक्कर में नहीं रहा। सब अपने काम में मगन, जब जरूरत पड़े तो काल कीजिए। छोटे-मोटे रस्म तो मोबाइल पर ही पूरे हो रहे हैं। बदले मौसम में हर कोई बदला-बदला नजर आ रहा है। पवनी हाईटेक हो गए हैं, तो पुरोहित आनलाइन उपलब्ध है। पंडित लोगों की हालत यह है कि छोटे-मोटे रस्म मोबाइल पर ही पूरे कराए जा रहे हैं। आसानी से दो-तीन जगह का काम देख लेते हैं। यजमान भी हर छोटी-बड़ी मुश्किल पर पंडितजी की सलाह तुरंत लेते हैं। पहले पूजा-पाठ से घंटों पहले पंडित पहुंच जाते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। शादी-विवाह के मौके पर नाई से संपर्क बनाए रखते हैं और हमेशा तैयारी करते रहने के लिए निर्देश देते रहते हैं। सीताकुंड निवासी पंडित अक्षयवर नाथ दूबे बताते हैं कि मोबाइल के कारण काफी आसानी हो गई है। समय-समय पर सूचना मिलने के कारण ठीक वक्त पर पहुंच जाते हैं। विवाह मंडप में वे सारी तैयारी पहले से ही कराए रहते हैं और पंडितजी की `इंट्री´ बालीवुडिया फिल्मों के `मेन हीरो´ की तरह होती है। चौका पर बैठते ही इस बात की चिंता नहीं रहती कि तैयारी क्या हुई है। दनदनाते हुए मंत्रोच्चार शुरू कर देते हैं।

Thursday, April 24, 2008

बढ़ती जा रही है धड़कन ...

वाराणसी खंड निर्वाचन क्षेत्र से स्नातक विधायक के चुनाव को लेकर जिले में चहलकदमी तेज हो गई है। वक्त के साथ ही समर्थकों की धड़कने बढ़ती जा रही हैं। भाजपाई इस सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए कटिबद्ध है, तो कांगे्रस और सपा के लोग भी सीट हथियाने के लिए कोई कसर छोड़ने को तैयार नहीं।28 अप्रैल को होने वाले स्नातक एमएलसी चुनाव को लेकर तैयारियां तेज हो गईं हैं। सभी प्रत्याशियों के समर्थक मतदाताओं तक अपनी पहुंच बनाने में जुटे हैं। जीत-हार के दावों के साथ जोड़-तोड़ भी चल रही है। भारतीय जनता पार्टी ने निवर्तमान विधायक केदार नाथ सिंह को ही मैदान में उतारा है। पिछले चुनाव में वे द्वितीय वरीयता के मत से विजयी हुए थे। पार्टी के वोट बैंक के सहारे भाजपाई अपनी जीत सुनिश्चित मान रहे हैं। गत चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे पूर्व स्नातक एमएलसी और वाराणसी के सांसद डा. राजेश मिश्र के भाई बृजेश मिश्रा उनको इस बार भी कड़ी टक्कर दे रहे हैं। बैंक यूनियन के नेता श्री मिश्रा को बैंककर्मियों के सहयोग की भी उम्मीद है। कांगे्रस कार्यकर्ता भी लगातार जनसंपर्क में लगे हुए हैं। कांगे्रस के सूचना का अधिकार टास्क फोर्स ने बाबा हरदेव सिंह के पक्ष में हवा बनाना शुरू कर दिया है। पूर्व प्रशासनिक अधिकारी बाबा हरदेव के साथ नौकरशाहों का समर्थन भी मिल रहा है। प्रबुद्ध तबका उनके साथ लगा हुआ है। वहीं एससी कालेज छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष राम अवध शर्मा को छात्र-नौजवानों का सहयोग मिल रहा है। पूर्वांचल छात्र संघर्ष समिति के कार्यकर्ता भी राम अवध के पक्ष में हवा बनाने के लिए कई जनपदों का भ्रमण कर चुके हैं। समाजवादी पार्टी ने अबकी बार मोहरा बदल कर मैदान मारने की कोशिश की है। पार्टी कार्यकर्ता सूबेदार सिंह की जीत सुनिश्चित करने में लगे हुए हैं।

Wednesday, April 23, 2008

तो ये है बलिया की शिक्षा व्यवस्था !

बलिया को लोग बागी का उदाहरण देते हैं। उन्नीस सौ बयालिस की क्रांति और आजादी का ढिंढोरा पीटते -पीटते 66 साल बीत गए। लेकिन बलिया में भ्रष्टाचार इन दिनों जोरों पर है। पहले तो यहां के इंटर कालेजों के मैनेजरों और प्रिंसिपलों ने घूस लेकर लोगों को अध्यापक बनाने का वादा कर दिया। जिले के नामी-गिरामी नेता और पूर्व मंत्रियों के कब्जे वाले कॉलेजों और स्कूलों तक में ऐसा हुआ। अध्यापक तैनात भी कर दिए गए। उन्हें तनख्वाह दी भी गई- लेकिन ये तनख्वाह पहले से काम कर रहे अध्यापकों की भविष्यनिधि से गैरकानूनी तरीके से निकाल कर दी गई। जब इसका भंडाफोड़ हुआ तो गोरखधंधा रूका। अवैध तरीके से काम कर रहे सैकड़ों प्रशिक्षित बेरोजगार अध्यापक फिर से बेरोजगार हो गए और उनकी घूस दी हुई रकम भी डूब गई। लेकिन घूस लेने वाले अब भी अपनी चमकदार टाटा सूमो या बलेरो से बलिया का चक्कर लगाते नजर आ रहे हैं। अब ऩई बात ये है कि प्राइमरी स्कूलों में भी ऐसा ही कुछ गोरखधंधा चल रहा है। सूत्रों से पता चला है कि जिले भर में कम से कम पंद्रह प्राइमरी स्कूल अध्यापक बिना काम किए वेतन ले रहे हैं। कोई दिल्ली में पढ़ाई या रिसर्च कर रहा है तो कोई महिला अध्यापक अपने पति के साथ दूसरे राज्य में है। लेकिन उन लोगों का वेतन हर महीने मिल रहा है। सूत्रों का कहना है कि बेसिक शिक्षा अधिकारी के दफ्तर की मिली भगत से ये सारा गोरखधंधा जारी है। कहा तो ये जा रहा है कि इसके लिए जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को हर महीने पगार की एक निश्चित रकम दी जाती है।

Sunday, April 6, 2008

जड़ समाज में बदलाव कब !

उमेश चतुर्वेदी
सन 2000 की बात है। दीपावली के ठीक पहले मैं जनता दल यूनाइटेड अध्यक्ष शरद यादव के एक कार्यक्रम की कवरेज के लिए मैं आज़मगढ़ गया था। उस वक्त मैं दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में बतौर संवाददाता काम करता था। अपना काम खत्म करने के बाद हम पत्रकारों की टोली सड़क मार्ग के जरिए वाराणसी लौट आई। वहां से बाकी लोग आज के कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता मोहन प्रकाश के साथ दिल्ली लौट आए। लेकिन मैं बलिया जिले के अपने गांव जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। वाराणसी से सुबह करीब पौने पांच बजे एक पैसेंजर ट्रेन चलती है। उसमें सवार होने स्टेशन पहुंचा तो भारी भीड़ से साबका हुआ। किसी तरह खड़े होने की जगह मिली। ट्रेन में भीड़ इतनी की पैर रखने को जगह नहीं...हर स्टेशन पर रूकते –रूकाते ट्रेन करीब दो घंटे बाद गाजीपुर पहुंची। वहां भी भीड़ का एक रेला ट्रेन में चढ़ने के लिए उतावला। इसी बीच एक औरत छठ का डाली-सूपली लिए हमारे डिब्बे में चढ़ी। उसे चढ़ाने उसके दो किशोर उम्र से युवावस्था की ओर बढ़ रहे बेटे आए थे। उन्हें अपनी मां को ट्रेन में सम्मानित जगह दिलानी थी और अपनी ताकत भी दिखानी थी। इसका मौका उन्हें मिल भी गया- सामान रखने के रैक पर एक लड़का किसी तरह सिमटा-लेटा दिख गया। उसे लड़कों ने खींच कर नीचे गिरा लिया और बिना पूछे-जांचे उसकी लात-जूतों और बेल्ट से पिटाई शुरू कर दी। इस बीच जगह बन गई और अपनी मां को बिठा कर वे चलते बने। ट्रेन खुलने के बाद पता चला कि मां तो अकेले ही छपरा में अपने मायके जा रही है। अब पिट चुके लड़के और उसके साथ चल रहे बड़े भाई ने कहा कि अब मां जी अगर आपको हम ट्रेन से फेंक दें तो ...उस औरत के पास कोई जवाब नहीं था। थोड़ी देर पहले तक अपने बेटों की वीरता पर बागबाग होने वाली उस औरत को मानना पड़ा कि उसके बेटों ने गलती की थी।
दरअसल ऐसे नजारे पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में दिख जाएंगे। जहां दिखावे के लिए अपनी ठसक बनाए और बचाए रखने की कोशिश की जाती है। लोगों को परीक्षाओं में नकल कराने से लेकर लाइन से पहले टिकट लेने तक ये ठसक हर जगह दिखती है। इसके लिए मार-पिटाई भी करने से लोगों को गुरेज नहीं होता। ठसक और भदेसपन का ये नजारा इन दिनों पूर्वांचल में बैंकों के एटीएम में भी दिख रहा है। आमतौर पर एटीएम में एक आदमी के अलावा दूसरे के जाने की मनाही है। लेकिन बलिया और गाजीपुर ही क्या – जो इस नियम पर अमल कर सके। वहां लोग एटीएम के एयरकंडिशनर की हवा खा रहे होते हैं और पैसा निकालने वाला पसीने से तरबतर होते हुए पैसा निकाल रहा होता है। इस खतरे के साथ कि कभी –भी उसका पैसा कहीं छीना जा सकता है या उसका पिन चुराया जा सकता है। पूर्वांचल और बिहार के रेलवे स्टेशनों पर आपको एक और नजारा दिख सकता है। यहां महिलाओं के लिए बने वेटिंग रूमों में पुरूष बाकायदा आराम फरमाते दिख जाते हैं। रेलवे प्रशासन भी उन्हें नहीं रोकता। वहां आने वाली महिलाओं पर इन पुरूषों की नजरें कैसी रहती होंगी – इसका अंदाजा लगाना आसान होगा। बलिया में जब भी मैं खुद अपनी पत्नी के साथ रेलवे स्टेशन पर पहुंचा हूं तो यही नजारा मिला है और हर बार रेलवे वालों को धमका कर महिला वेटिंग रूम खाली कराना पड़ा है।
पढ़ाई-लिखाई से तो इस इलाके के अधिसंख्य छात्रों का साबका लगातार दूर होता जा रहा है। ऐसे में बीए और एमए करके ये लोग पिता और भाई की सहायता से नकल के सहारे पास होकर दिल्ली-मुंबई पहुंचते हैं तो उनके हाथ ज्यादातर दरवानी और सिक्युरिटी गार्ड की ही नौकरी लगती है। लोगों को सलाम करते जिंदगी गुजर जाती है। लेकिन तुर्रा ये कि जब ये ही लोग अपनी माटी की ओर लौटते हैं तो उनकी ठसक और अकड़ वापस लौट आती है। उनकी ये ठसक देख दिल्ली-मुंबई का आईएएस भी शरमा जाए।
क्रमश:

Monday, March 31, 2008

मिट्टी पुकार रही है ...

उमेश चतुर्वेदी
होली के मौके पर इस बार गांव जाना हुआ। बलिया जिले के बघांव गांव में जन्म लेने के बाइस साल तक लगातार जीना-मरना, शादी-विवाह, तीज-त्यौहार मनाते हुए अपने गांव, अपनी माटी और अपनी संस्कृति से जुड़ा रहा। तब लगता ही नहीं था कि कभी गांव के बिना अपनी जिंदगी गुजर भी पाएगी। कभी सोचा भी नहीं था कि गांव से बाहर रह कर नौकरी-चाकरी करूंगा। लेकिन 1993 में ये सारी सोच धरी की धरी रह गई- जब भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली के पत्रकारिता पाठ्यक्रम में प्रवेश मिल गया। इसके बाद गांव सिर्फ मेरी यादों में ही बसा रह गया। ऐसा नहीं कि गांव जाना नहीं होता- लेकिन अधिक से अधिक हफ्ते-दस दिनों के लिए। लेकिन हर बार जब गांव जाता हूं तो अपनी माटी और उसकी दुर्दशा देखकर गहरी निराशा भर आती है। पत्रकारिता के सिलसिले में मेरा देश के दूसरे हिस्सों से भी साबका रहता ही है। लेकिन भरपूर प्रतिभाओं, उपजाऊ मिट्टी और गंगा-घाघरा का मैदानी इलाका होने के बावजूद विकास की दौड़ में बलिया आज भी कोसों पीछे है। पच्चीस साल तक बलिया से चंद्रशेखर सांसद रहे। यहीं से चुनाव जीतकर उन्होंने देश का सर्वोच्च प्रशासनिक – प्रधानमंत्री का पद संभाला। लेकिन बलिया में आज भी ठीक सड़कें नहीं हैं। सड़क एक साल पहले ही बनीं, लेकिन अब उन पर जगह-जगह पैबंद दिखने लगा है। यानी सड़कें टूट रहीं हैं। जिला मुख्यालय गंदगी के ढेर पर बजबजा रहा है। जिला मजिस्ट्रेट और एसपी दफ्तर के सामने भी गंदगी का बोलबाला है। पुलिस वाले गमछा ओढ़े अपनी ड्यूटी वैसे ही बजा रहे हैं- जैसे बीस-पच्चीस साल पहले बजाया करते थे। कौन कितना घूस कमा रहा है और किसने कितना दांव मारा, इसकी खुलेआम चर्चा हो रही है और लोग इसे सकारात्मक ढंग से ले रहे हैं। आलू की पैदावार तो हुई है – लेकिन उसे वाजिब कीमत नहीं मिल रही है। मजबूर लोग इसे कोल्ड स्टोरेज में रखना चाहते हैं – लेकिन कोल्ड स्टोरेज वालों की दादागिरी के चलते किसान परेशान हैं। लेकिन उनकी सुध लेने के लिए न तो नेता आगे आ रहे हैं ना ही अधिकारी। लेकिन बलिया में कोई खुसुर-फुसुर भी नहीं है। कभी-कभी ये देखकर लगता है कि क्या इसी बलिया ने 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ सफल बगावत की थी। आखिर क्या होगा बलिया का ...क्या ऐसे ही चलती रहेगी बलिया की गाड़ी...बीएसपी के सभी आठ विधायकों के लिए भी बलिया के विकास की कोई दृष्टि नहीं है। जब दृष्टि ही नहीं है तो वे विकास क्या खाक कराएंगे। ऐसे में मुझे लगता है कि प्रवासी बलिया वालों को ही आगे आना होगा। चाहे वे प्रशासनिक ओहदों पर हों या भी राजनीतिक या निजी सेक्टर में ..सबको एक जुट होकर आगे आना होगा, कुछ वैसे ही –जैसे पंजाब और गुजरात के प्रवासी अपनी माटी का कर्ज उतारने के लिए आगे आए। बोलिए क्या विचार है आपका....

Friday, March 14, 2008

कब थमेंगी जहरखुरानी की घटनाएं

रेल सुरक्षा तंत्र की तमाम कोशिशों के बावजूद ट्रेनों में जहरखुरानी की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। जहरखुरानी की बढ़ती घटनाओं से रेल यात्रियों में दहशत है। वहीं रेलवे की कार्य पद्धति पर सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं।गुरुवार को मुंबई से कमाकर घर लौट रहा यात्री जहरखुरानों के हत्थे चढ़ गया। आजमगढ़ जिले के जहानागंज निवासी राजेश कोल्हापुर में किसी कंपनी में काम करता है। राजेश कई महीने कमाने के बाद ट्रेन से अपने घर आ रहा था। वाराणसी में जहरखुरानी गिरोह की उस पर नजर पड़ गई। बकौल राजेश जहरखुरानों ने आत्मीयता जताते हुए अपने को उसी के गांव के आस पास का होना बताया। इसके बाद सभी ने चाय पी और भटनी की तरफ आने वाले 550 डाउन पैसेंजर ट्रेन में सवार हो गए। वाराणसी के एकाध स्टेशन आगे बढ़ने के बाद राजेश बेहोश हो गया। रात होने के चलते सहयात्रियों ने राजेश को निद्रामग्न होना जानकर ध्यान नहीं दिया। इस बीच जहरखुरानों ने राजेश की अटैची पर हाथ साफ कर दिया। राजेश के सोए रहने पर सहयात्रियों को शंका हुई। उन्हें माजरा समझते देर नहीं लगी और अचेतावस्था में स्थानीय रेलवे स्टेशन पर उतार दिया। जीआरपी की मदद से अद्धüमूछिüत राजेश को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद सीयर ले जाया गया। राजेश के पाकेट में मिली डायरी के आधार पर उसके परिजनों को फोन कर बुलाया गया। राजेश की अटैची में पांच हजार रुपये नकद, कपड़े व अन्य जरूरी सामान थे। कुछ ऐसी ही घटना करीब पखवारेभर पहले मनियर थाना क्षेत्र के पिलुई निवासी छोटे लाल कुर्मी के साथ हुई थी। बंबई से कमाकर आ रहे छोटेलाल को जहरखुरानों ने वाराणसी रेलवे स्टेशन परिसर में ही अपना शिकार बना लिया था। उसके पास से नकदी समेत सभी सामान ले लिया गया था। बड़ी मुश्किल से छोटेलाल चार दिन बाद अपने गांव पहुंचा था। ऐसी घटनाएं रोज घट रही हैं। इसके सबसे ज्यादा शिकार बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग हो रहे हैं। लेकिन बिहारी रेल मंत्री होने के बावजूद इस समस्या पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वैसे ही लालू यादव गपोड़शंखी हैं और उन्हें गपोड़ करने में ही मजा आता है। चूंकि इसका कोई राजनीतिक माइलेज उन्हें मिलता नजर नहीं आ रहा है - लिहाजा उनका ध्यान इस ओर नहीं है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर ऐसा कब तक होता रहेगा- कब तक निरीह और गरीब बिहारी-पूरबिया इसका शिकार बनते रहेंगे।

Wednesday, March 5, 2008

पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा सकता है गंगा एक्सप्रेस वे

उमेश चतुर्वेदी
गंगा एक्सप्रेस वे ने उत्तर प्रदेश के सियासी हलके में ही हलचल नहीं मचा रखी है। इस एक्सप्रेस वे ने पर्यावरण और खेती के जानकारों के पेशानी पर भी बल ला दिए हैं। लगातार बढ़ रही राज्य की जनसंख्या के लिए वैसे ही खाद्यान्न की कमी होती जा रही है। पूरे देश में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में लगातार हो रही गिरावट के चलते खेती की उपेक्षा को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। वित्त मंत्री पी चिदंबरम के इस साल के बजट पेश करने के बाद ये सवाल तेजी से उभरा है। माना जा रहा है कि खेती की विकास दर चार फीसदी तक लाए बगैर देश में खाद्यान्न की कमी को पूरा करना आसान नहीं होगा। इस साल के आर्थिक सर्वे के मुताबिक खेती-किसानी की मौजूदा विकास दर महज दो दशमलव चार फीसदी है। ऐसे में आप सोच सकते हैं कि देश के सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश की क्या हालत होगी।
गंगा एक्सप्रेस वे पर काम शुरू हुआ तो पहले ही चरण में राज्य की करीब चालीस हजार एकड़ रकबा खेती से अलग हो जाएगा। आजादी के बाद ये पहला मौका होगा- जब सूबे की एक साथ इतनी ज्यादा जमीन खेती से अलग हो जाएगी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग की गंगा प्रयोगशाला का आकलन है कि अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो अगले एक दशक में सूबे की एक लाख हेक्टेयर और जमीन खेती से अलग हो जाएगी। जिसके चलते राज्य में करीब पचास लाख टन अनाज की पैदावार कम होगी। यानी सूबे को खाद्यान्न की कमी के लिए तैयार रहना होगा। वैसे भी पिछले कई सालों से राज्य में अनाज की पैदावार महज चार लाख टन पर स्थिर है। लेकिन जिस गति से सूबे की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है - उसके चलते आने वाले दिनों में ये अनाज नाकाफी होगा। खुद राज्य सरकार का ही मानना है कि दो हजार चौबीस-पच्चीस तक राज्य की जनसंख्या पच्चीस करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगी। और अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो एक लाख चालीस हजार एकड़ जमीन खेती से वंचित हो जाएगी। जिसके चलते करीब सिर्फ एक सौ अठारह लाख टन अनाज ही पैदा होगा। यानी जनसंख्या तो बढ़ जाएगी - लेकिन उसके भोजन के लिए अनाज की पैदावार कम हो जाएगी। लेकिन राज्य सरकार के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि इतनी बड़ी जनसंख्या को वह क्या खिलाएगी। क्योंकि राज्य में बंजर जमीनों की तादाद भी वैसी नहीं है कि उनका खेती के लिए विकास करके पैदावार की कमी को पूरा किया जा सके।
इतिहास गवाह है - अपने उपजाऊपन के चलते ही गंगा के बेसिन में सभ्यताएं पलीं और बढ़ीं। चाहे मौर्य वंश का शासन रहा हो या फिर गुप्त वंश का स्वर्णकाल ...अपनी जलोढ़ मिट्टी और उपजाऊपन के चलते सभ्ययताओं का विकास यहां हुआ। लेकिन इस एक्सप्रेस वे ने अब इतिहास की इस धारा पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। मुजफ्फरनगर से लेकर इलाहाबाद तक गंगा में बाढ़ भले ही नहीं आती हो - लेकिन इस इलाके में होने वाली पैदावार गवाह है कि इलाके की मिट्टी कितनी उपजाऊ है। लेकिन वहीं वाराणसी से जब गंगा में बाढ़ आने लगती है तो लोग भले ही परेशान होते हैं - लेकिन वे राहतबोध से भी भरे रहते हैं। क्योंकि बाढ़ के साथ गंगा नई मिट्टी लाती है। जिसमें गेहूं-चना-मसूर जैसे खाद्यान्न के साथ ही परवल, करेला, तरबूज और खरबूजा भरपूर पैदा होते हैं - वह भी बिना खाद-माटी के।
सुजलाम-सुफलाम की भारतीय संस्कृति का आधार वैसे भी खेती ही रही है। आज के दौर में भले ही औद्योगीकरण का बोलबाला बढ़ रहा है। लेकिन गंगा किनारे का व्यक्ति अब भी अपनी खेती के सांस्कृतिक पहचान से दूर नहीं हो पाया है। शायद यही वजह है कि गंगा प्रयोगशाला के संस्थापक प्रोफेसर यू के चौधरी और उनकी टीम गंगा को लेकर भावुक हो उठे हैं। आमतौर पर वैज्ञानिक अपनी रिपोर्ट के बाद सत्ता और सरकार को सौंप कर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ लेते हैं। लेकिन प्रोफेसर चौधरी सोनिया गांधी , अटल बिहारी वाजपेयी और मायावती समेत तमाम नेताओं से इस एक्सप्रेस वे को रोकने की मांग कर रहे हैं।
गंगा एक्सप्रेस वे से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचने की आशंका जताई जा रही है। गर्मियों में जब पूरा देश पानी के लिए हाहाकार कर रहा होता है। भूमिगत जल का स्तर नीचे चला जाता है। इस पूरे इलाके में साफ भूमिगत जल मौजूद रहता है। लेकिन गंगा एक्सप्रेस वे के बाद इस पर भी खतरा बढ़ सकता है। एक्सप्रेस वे के दक्षिणी किनारे में कटाव बढ़ेगा - जाहिर है इसके चलते जमीन में दलदल बढ़ने की भी आशंका है। इसके चलते भी खेती की जमीन में कमी आएगी। वैसे जाड़ों के दिनों में यहां देश-विदेश से सारस, टीका औल लालसर जैसे सुंदर पक्षी आते रहे हैं। भीड़भाड़ से वे भी परहेज करेंगे। यानी एक्सप्रेस वे के बाद जीवनदायिनी गंगा अपनी पुरानी भूमिका में नहीं रह जाएगी। यही वजह है कि इलाके के बुजुर्गों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि इन बुजुर्गों की चिंताएं सियासी दांवपेोंचों में उलझ कर रह गई हैं।
लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं।

Tuesday, March 4, 2008

दहशत के साए में फसल

उमेश चतुर्वेदी
आपने शायद ही सुना होगा कि बुवाई के वक्त खेत का मालिकाना हक किसी और के पास होता है और जब फसल तैयार हो जाती है तो उसे काटने के लिए कोई और पहुंच जाता है। इसके लिए उसे खून की नदी बहाने से भी कोई गुरेज नहीं होता। सुनने-पढ़ने में ये हमें भले ही अचरजभरा लगे- लेकिन उत्तर प्रदेश – बिहार सीमा पर हर साल रबी के मौसम में ऐसा ही होता है। दोनों राज्यों के बीच जारी सीमा विवाद इसकी अहम वजह है।
गंगा किनारे पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया और आरा जिले की सीमा पर हासनगर दियारे में इस साल भी सीमा विवाद को लेकर गोलियां तड़तड़ाने का दौर जारी है। फरवरी के पहले हफ्ते में इलाके के गांव गायघाट के किसान खेत नापी का काम कर रहे थे। इसी बीच बिहार के दबंग किसान भी वहां पहुंच गए। दोनों के बीच कहासुनी होने लगी। मामला तूल पकड़ते देर नहीं लगा और दोनों तरफ के किसान आमने-सामने हो गए। दोनों तरफ के किसानों के बीच खेतों पर हक को लेकर तू-तू-मैं-मैं के बाद तकरीबन हर हफ्ते गोलियां बरसाने का दौर चल रहा है। दरअसल इस इलाके के 39 गांवों की 7062 एकड़ जमीन विवादित है। उत्तर प्रदेश के किसान इसे अपना बताते हैं – तो बिहार की तरफ के लोगों का कहना है कि ये जमीन उनकी है। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि गंगा किनारे जलोढ़ मिट्टी वाले इन खेतों में असल विवाद कटाई के दौरान होता है। बुवाई के वक्त खेतों पर मालिकाना हक के लिए दोनों तरफ से कम ही विवाद होता है। लेकिन शायद ही कोई साल हो – जब फसल कटाई के दौरान गोलियां नहीं चलतीं। हर साल कई लोग इस खूनी विवाद की भेंट चढ़ जाते हैं। लेकिन ना तो उत्तर प्रदेश और बिहार की राज्य सरकारें – और ना ही केंद्र सरकार इस मसले पर कोई कारगर कदम उठाती है। ताकि इस खूनी संघर्ष को रोका जा सके।
दरअसल उत्तर प्रदेश के बलिया और बिहार के छपरा,आरा, बक्सर और सीवान जिले के 153 गांवों की करीब 65 हजार एकड़ जमीन आज भी सीमा विवाद में उलझी हुई है। सीवान को छोड़ दें तो बाकी जिलों और बलिया के बीच बहती गंगा नदी इस विवाद की असल जड़ है। यह विवाद 150 साल से भी ज्यादा पुराना है। इसमें बिहार के 114 गांवों की 44177.55 एकड़ और उत्तर प्रदेश के 39 गांवों की 20174.77 एकड़ जमीन को लेकर विवाद है। लेकिन खूनी संघर्ष करीब 7062 एकड़ के लिए ही ज्यादा होता रहा है। इसे लेकर साल दर साल सैकड़ों लोगों की जान जा चुकी है। इसी खूनी संघर्ष से बौखलाई केंद्र सरकार ने साल 1962 में प्रशासनिक सेवा के अधिकारी सी एम त्रिवेदी की अध्यक्षता में एक जांच समिति बनाई थी। जिसने 1964 में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी। उसी एक्ट के बाद संसद ने बिहार-यूपी ऑल्टरेशन ऑफ बाउंड्री एक्ट 1968 पारित किया। अपनी सिफारिश में त्रिवेदी समिति ने दोनों राज्यों के वर्ष 1879 से 1883 के गांवों की यथास्थिति बनाए रखने पर जोर दिया था। लेकिन अचरज की बात ये है कि संसद के इस कानून बनाए जाने के बावजूद दोनों तरफ की सरकारों और केंद्र ने इसे लागू नहीं किया। यही वजह है कि बलिया-आरा सीमा पर स्थित नैनीजोर दियारे में हर साल रबी के मौसम में कटाई के वक्त खून की होली खेली जाती है। हालांकि अपने किसानों की हिफाजत के लिए दोनों तरफ की सरकारें सुरक्षा बलों को तैनात करती हैं। दोनों तरफ का प्रशासन अपने किसानों के पक्ष में मुस्तैद भी रहता है। साल 1993 में तो उत्तर प्रदेश की पीएसी ने आरा के डीएम पर ही गोली चला दी थी। तब आरा के जिलाधिकारी फसल कटाई में अपने किसानों की सहायता में गंगा के दक्षिणी किनारे तक खुद आ गए थे। बक्सर के विधायक रहे स्वामीनाथ तिवारी के एक ऐसी ही कोशिश पर पीएसी ने गोली चला दी थी। दो साल पहले बिहार के दबंग किसानों ने उत्तर प्रदेश के 11 किसानों को बंधक बना लिया था। वैसे अब तक का इतिहास रहा है कि इस विवाद में सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश की तरफ के किसानों को ही उठाना पड़ा है।
इस जमीनी विवाद को बढ़ाने और हिंसक गतिविधियों को अंजाम देने में इस जमीन के उपजाऊपन की ज्यादा विशेषता है। इस इलाके में अगर गंगा में बाढ़ आ गई तो बिना खाद – पानी के गेहूं-चना-मसूर के साथ ही परवल, तरबूज और दूसरी सब्जियों की भरपूर पैदावार होती है। हिंदुस्तान का सबसे बेहतरीन परवल इसी इलाके में पैदा होता है और इसकी सप्लाई पूरे देश में होती है। हर साल करोड़ों की कमाई तो सिर्फ परवल के निर्यात से ही हो रही है। जमीनी विवाद के साथ ही परवल की भारी कमाई के चलते हर साल परवल किसानों को बदमाशों का भी शिकार बनना पड़ रहा है और इलाकाई किसान इस दहशत में जीने और रोजी-रोटी चलाने के लिए मजबूर हैं। रही-सही कसर सीमा विवाद पूरा कर देता है।
ऐसा नहीं कि इस मसले को सुलझाया नहीं जा सकता। अगर दोनों तरफ की सरकारें चाहें तो दोनों तरफ के लोगों को साथ बैठाकर इस समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। बाहरी लोगों को जानकर ये ताज्जुब होगा कि सीमा विवाद और गोलियों की गड़गड़ाहट के बावजूद दोनों तरफ के लोगों के बीच रोटी और बेटी का रिश्ता भी बदस्तूर जारी है। लेकिन फसलों को लेकर हर साल दोनों तरफ के दो-चार लोगों को जान गंवानी पड़ रही है। कोई कारण नहीं कि मायावती और नीतीश कुमार मिलकर इस समस्या का समाधान ना निकाल सकें। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि पहल कौन करे।

Tuesday, February 12, 2008

इनकी भी सुध लीजिये

उमेश चतुर्वेदी

इनकी भी परवाह कीजिए
नोएडा से बलिया तक के गंगा एक्सप्रेस वे बनाने की अभी कायदे से शुरूआत भी नहीं हुई- लेकिन इसे लेकर विवाद अभी से शुरू हो गया है। समाजवादी पार्टी चूंकि उत्तर प्रदेश में विपक्षी दल की भूमिका में है। उसका काम ही है विरोध करना। लेकिन इस एक्सप्रेस वे के विरोध में ना सिर्फ पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टी, बल्कि सामाजिक आंदोलनों का संगठन इंसाफ और किसान संगठन भी लामबंद होते जा रहे हैं। दिलचस्प बात ये है कि प्रदेश के विकास में अहम बदलाव लाने का दावा करने वाले इस एक्सप्रेस वे को लेकर जिन विन्दुओं पर ये संगठन विरोध में उतर रहे हैं - ना तो उन मुद्दों की राष्ट्रीय मीडिया में चर्चा हो रही है ना ही इस विरोध की।

उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि करीब एक हजार किलोमीटर लंबे इस एक्सप्रेस वे के बनने के बाद उत्तर प्रदेश के पूर्व इलाके के पिछड़े जिलों की तस्वीर बदल जाएगी। इसके जरिए लोगों को रोजगार मिलेगा और इस फ्रेट कारीडोर के बन जाने के बाद इन जलों से होते हुए देश के पूर्व इलाकों में सड़क के जरिए माल ढुलाई बढ़ जाएगी। लेकिन विरोधियों का दावा है कि जिस कीमत पर ऐसा होगा, उसके लिए जो कीमत चुकानी होगी - वह काफी महंगी होगी। वैसे इस देश में जन सरोकारों से जुड़े होने का दावा करने वाले संगठनों को लेकर इन दिनों संशय और संदेह का जो माहौल बना है - उसमें ऐसे विरोधों को लेकर उनकी नीयत पर भी शक होना आम बात है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि खासतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में वाराणसी जिले से लेकर बलिया तक गंगा किनारे के किसान इस परियोजना के खिलाफ स्वत: स्फूर्त ढंग से जिस तरह खड़े होते नजर आ रहे हैं - उससे स्वयंसेवी संगठनों और समूहों के विरोध पर सवाल उठाने की गुंजाइश कम हो गई है। इसकी वजह ये है कि ये संगठन अभी तक इन इलाकों में उस तरह विरोध के तेवर में नहीं पहुंचे हैं - जैसे वे सिंगूर, नंदीग्राम या फिर टिहरी में पहुंचे।

करीब एक हजार किलोमीटर लंबे इस प्रोजेक्ट के तहत गंगा के उत्तरी किनारे तक नोएडा से लेकर बलिया तक एक्सप्रेस वे गुजरेगा। उत्तर प्रदेश सरकार का अनुमान है कि इस परियोजना पर करीब चालीस हजार करोड़ रूपए का खर्च आएगा। इस प्रोजेक्ट के तहत एक्सप्रेस वे की चौड़ाई 153 मीटर होगी। इस पर करीब 15 हजार हेक्टेयर से कुछ ज्यादा जमीन की जरूरत होगी। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार करीब 64 हजार हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण करने जा रही है। इस एक्सप्रेस वे को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार की मंशा को लेकर इस जमीन के अधिग्रहण ने ही परियोजना के विरोधियों को सवाल उठाने का मौका दे दिया है। विरोधियों का सवाल है कि चार गुना ज्यादा जमीन के अधिग्रहण का क्या औचित्य है। हकीकत तो ये है कि गंगा और एक्सप्रेस वे के बीच ही ज्यादा जमीन अधिग्रहीत की जानी है। इसकी वजह ये है कि अधिग्रहीत की गई इन जमीनों पर एक्सप्रेस वे बनाने वाली कंपनी का मालिकाना हक होगा और वह इसे जिसे चाहे बेच सकेगी। परियोजना विरोधी किसानों का कहना है कि गंगा और एक्सप्रेस वे के बीच कई बिल्डर कंपनियों की निगाह है। जो टाउनशिप विकसित करने की मंशा रखती हैं। यानी एक्सप्रेस हाईवे के साथ गंगा किनारे नोएडा से लेकर बलिया तक कम से कम बड़े शहरों यानी अलीगढ़, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर, वाराणसी, गाजीपुर और बलिया और इन जिलों के बड़े कस्बों के किनारे जगह-जगह नए शहर बनाने की योजना पर काम हो रहा है। उत्तर प्रदेश के पूर्व राजस्व मंत्री अंबिका चौधरी का दावा है कि जिस कंपनी को ये हाईवे प्रोजेक्ट बनाने की जिम्मेदारी दी जा रही है - उससे इलाहाबाद की मेजा तहसील के पास एक बिल्डर कंपनी ने तीन हजार एकड़ जमीन खरीदने का प्रस्ताव रख दिया है। अंबिका चौधरी का दावा है कि ऐसे कई और प्रस्ताव प्रोजेक्ट पूरा करने जा रही कंपनी को आ चुके हैं।

सरसरी तौर पर देखने में इस प्रस्ताव में कोई बुराई नहीं है। लेकिन इसके कानूनी पहलुओं पर विचार किया जाय - इसके दूरगामी असर का आकलन किया जाय तो हकीकत कुछ और ही है। जहां तक कानूनी सवाल की बात है तो उत्तर प्रदेश भूमि अधिग्रहण कानून के तहत जिस मकसद की खातिर किसानों से जमीन अधिग्रहीत की जाती है - अगर किसी कारणवश वह मकसद पूरा नहीं होता तो वह जमीन खुद-ब-खुद उस किसान की हो जाती है। यानी एक्सप्रेस वे के लिए जमीन ली जा रही है और किसी कारणवश इसका एक्सप्रेस वे बनाने में इस्तेमाल नहीं हो पाता तो ये जमीन कानूनी तौर पर खुद-ब-खुद किसानों की हो जानी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं होने जा रहा। किसानों का विरोध इसे ही लेकर है कि एक तो एक्सप्रेस वे की जरूरत से ज्यादा उनकी जमीन को अधिग्रहीत किया जा रहा है। वह भी सरकारी रेट पर - लेकिन उसे लेने वाली कंपनी बाद में ऊंची कीमत पर टाउनशिप विकसित करने वाली कंपनियों को देकर मुनाफा कमाएगी। सदियों से गंगा के किनारे वाली ये जमीन बेहद उपजाऊ रही है। गंगा ने मिट्टी फेंकी तो समझो हर साल किसानों को बिना हर्र-फिटकरी लगे किसानों की बखार गेहूं और चने से भरती रही है। लेकिन उनकी ये जमीन टाउनशिप के सौदागरों के हाथ में चली जाएगी और उनके लहलहाने वाले खेतों पर नगर और बाजार खड़े हो जाएंगे। जिन पर उनका कोई हक नहीं होगा। एक और तथ्य को लेकर भी विरोध की आंच सुलग रही है। दुनिया में जब भी कहीं अधिग्रहण होता है तो मुआवजे के तौर पर एक हिस्सा प्रभावित हो रहे किसानों और जमीन मालिकों को मिलता है। लेकिन इस एक्सप्रेस वे की योजना में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। चूंकि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का ये ड्रीम प्रोजेक्ट है। उससे साफ है कि देर-सवेर उत्तर प्रदेश सरकार इन कमियों को ढंकने के लिए कानूनी प्रावधानों में संशोधन पारित करा सकती हैं। लेकिन समाजवादी पार्टी जिस तरह इसके विरोध में उठ खड़ी हुई है - वैसे में ये भी सच है कि विधानसभा से उत्तर प्रदेश भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन पारित करा पाना आसान नहीं होगा।

वैसे भी खासतौर पर पूर्वी जिलों के किसान इस परियोजना से ज्यादा प्रभावित होंगे। सदियों से गंगा के किनारे का ये इलाका अपनी जलोढ़ मिट्टी के लिए बेहद उपजाऊ माना जाता रहा है। बलिया और गाजीपुर का परवल, तरबूज, करेला और गेहूं-चने की बेहतरीन फसल गंगा किनारे की इस जलोढ़ मिट्टी से ही उपजती रही है। जिससे लाखों लोगों का रोजगार जुड़ा हुआ है। किसानों के साथ ना Êसर्फ उत्तर प्रदेश - बल्कि गंगा के दूसरे किनारे बिहार के इलाके के खेतिहर मजदूरों की भी जिंदगी जुड़ी रही है। माना उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों और उसके किनारे सटे बिहार के जिलों से आम लोगों का पलायन ज्यादा हो रहा है। लेकिन एक बड़ा तबका ऐसा भी है - जो खेतिहर मजदूर है और इस जलोढ़ मिट्टी के ही चलते कम से कम साल भर की रोजीरोटी चलती रही है। मजे की बात ये है कि ये लोग भी किसानों के साथ विरोध में उठ खड़े होते जा रहे हैं। ये विरोध ही असल वजह है कि बलिया में अपने जन्मदिन 22 जनवरी 2008 को मायावती अपनी इस महत्वाकांक्षी योजना का शिलान्यास करने वालीं थीं। लेकिन उन्हें लखनऊ से ही काम चलाना पड़ा। हालांकि शिलान्यास स्थल आज भी तैयार है - लेकिन उसे पीएसी, पुलिस के कड़े पहरे में रखा गया है।

तो क्या मान लिया जाय कि मायावती की ये योजना भी सिंगूर और नंदीग्राम बनने की राह पर है। एक हद तक ये आशंका सच भी साबित हो सकती है। लेकिन ये भी सच है कि जिन लोगों पर इस एक्सप्रेस वे प्रोजेक्ट का नकारात्मक असर पड़ने वाला है - जिन गांवों को उजाड़ा जाना है। उनकी भी सुध ली जाए। उनकी समस्याओं को दूर करने की कोशिश भी की जाए। जनतांत्रिक समाज में बातचीत और प्रभावित लोगों की समस्याओं का आकलन किए जाने बिना कोई भी परियोजना चाहे कितनी भी फायदेमंद क्यों ना हो - लागू नहीं की जानी चाहिए। जिद्द के सहारे प्रोजेक्ट लागू करने का हश्र नंदीग्राम और सिंगूर ही होता है। ये नंदीग्राम और सिंगूर का विरोध ही है कि गोवा सरकार को सेज बनाने की योजनाओं से हाथ खींचना पड़ा है। क्या उत्तर प्रदेश सरकार भी ऐसा कदम उठाएगी। फिलहाल सबकी निगाहें इसी पर ही हैं।

सुबह सवेरे में