उमेश चतुर्वेदी
(आमतौर पर मेरे लेख अखबारों में स्थान बना लेते हैं..लेकिन यह लेख नहीं बना पाया..देर से छपने से शायद इसका महत्व कम हो जाए)
वैचारिक असहमति और विरोध लोकतंत्र का आभूषण है।
वैचारिक विविधता की बुनियाद पर ही लोकतंत्र अपना भविष्य गढ़ता है। कोई भी
लोकतांत्रिक समाज बहुरंगी वैचारिक दर्शन और सोच के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकता। लेकिन
विरोध का भी एक तार्किक आधार होना चाहिए। तार्किकता का यह आधार भी व्यापक होना
चाहिए। कथित सांप्रदायिकता और बहुलवादी संस्कृति के गला घोंटने के विरोध में
साहित्यिक समाज में उठ रही मुखालफत की मौजूदा आवाजों में क्या लोकतंत्र का व्यापक
तार्किक आधार नजर आ रहा है? यह सवाल इसलिए ज्यादा गंभीर बन गया है, क्योंकि
कथित दादरीकांड और उसके बाद फैली सामाजिक असहिष्णुता के खिलाफ जिस तरह साहित्यिक
समाज का एक धड़ा उठ खड़ा हुआ है, उसे वैचारिक असहमति को तार्किक परिणति तक
पहुंचाने का जरिया माना जा रहा है। 2015 का दादरीकांड हो या पिछले साल का
मुजफ्फरनगरकांड उनका विरोध होना चाहिए। बहुलतावादी भारतीय समाज में ऐसी अतियों के
लिए जगह होनी भी नहीं चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या क्या सचमुच बढ़ती
असहिष्णुता के ही विरोध में साहित्य अकादमी से लेकर पद्मश्री तक के सम्मान वापस
किए जा रहे हैं।
भारतीय संविधान ने भारतीय राज व्यवस्था के लिए
जिस संघीय ढांचे को अंगीकार किया है, उसमें कानून और व्यवस्था का जिम्मा राज्यों
का विषय है। चाहकर भी केंद्र सरकार एक हद से ज्यादा कानून और व्यवस्था के मामले
में राज्यों के प्रशासनिक कामों में दखल नहीं दे सकती। लालकृष्ण आडवाणी जब देश के
उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे, तब उन्होंने जर्मनी की तर्ज पर यहां भी फेडरल
यानी संघीय पुलिस बनाने की पहल की दिशा में वैचारिक बहस शुरू की थी। जर्मनी में भी
कानून और व्यवस्था राज्यों की जिम्मेदारी है। बड़े दंगे और अराजकता जैसे माहौल में
वहां की केंद्र सरकार को फेडरल यानी संघीय पुलिस के जरिए संबंधित राज्य या इलाके
में व्यवस्था और अमन-चैन बहाली के लिए दखल देने का अधिकार है। संयुक्त राज्य
अमेरिका में संघीय पुलिस यानी फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन के जरिए केंद्र सरकार
को कार्रवाई करने का अधिकार है। लेकिन आज कथित हिंसा के विरोध में अकादमी पुरस्कार
वापस कर रहे लेखकों और बौद्धिकों की जमात में तब आडवाणी की पहल को देश के संघीय
ढांचे पर हमले के तौर पर देखा गया था।