Wednesday, September 5, 2012

Thursday, August 30, 2012

मोदी का गुणगान ना होने के मायने


यह लेख अमर उजाला कॉपैक्ट में प्रकाशित हो चुका है।  

उमेश चतुर्वेदी
गुजरात में विधानसभा चुनावों की आहट के बीच दिल्ली में बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन हो और उसमें मोदी का नाम आदर्श और मानदंड के तौर पर पार्टी आलाकमान पेश ना करे तो हैरत होनी ही चाहिए। क्योंकि अब तक ऐसे सम्मेलनों में उन्हें ऐसा ही अटेंशन मिलता रहा है। लेकिन इस बार ना तो बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने गुजरात को मॉडल राज्य और वहां के शासन से सीखने की दूसरे मुख्यमंत्रियों को नसीहत दी और ना ही दूसरे नेताओं ने। आडवाणी तो वैसे भी पहले से ही मोदी से नाराज बताए जा रहे हैं।

Monday, August 27, 2012

ये टिप्पणी कहीं के लिखी गई थी..अब ब्लॉग पर साया की जा रही है
 मोर्चा संभालें महिलाएं
उमेश चतुर्वेदी
जिंदगी के तमाम मोर्चों पर बदलते पैमानों के बावजूद अब भी महिलाओं को लेकर भारतीय समाज पारंपरिक ढंग से ही सोचता रहा है। उसकी नजर में महिलाएं सुंदरता और कोमलता का ही प्रतीक हैं। हालांकि पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों में तैनात महिलाएं अपने जज्बे और बहादुरी के साथ ही कर्त्तव्यपरायणता की सफल परीक्षा देती रही हैं। इस वजह से महिलाओं की सेना में तैनाती तो की जाने लगी, लेकिन शायद पारंपरिक आग्रहों का ही असर रहा है कि दुश्मन के खिलाफ मोर्चे पर तैनाती को लेकर भारतीय सेना अब तक तैयार नहीं हो पाई है।
ये टिप्पणी कहीं के लिखी गई थी..अब ब्लॉग पर साया की जा रही हैं


मतभेदों की भेंट ना चढ़ें लक्ष्य
उमेश चतुर्वेदी
बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी के घेराव के मसले पर टीम अन्ना में मतभेद कोई पहली खबर नहीं है। इसके पहले भी कई मसलों पर टीम के बीच मतभेद रहे हैं। दरअसल टीम अन्ना उस तरह के वैचारिक निष्ठा के तौर पर बनी या विकसित नहीं हुई है, जैसे कोई राजनीतिक या सामाजिक संगठन खड़ा होता है। जिसे टीम अन्ना आजकल कहा जा रहा है, दरअसल वह ऐसे लोगों का समूह है, जो देश से भ्रष्टाचार का समूल नाश चाहते हैं। इसमें शामिल प्रमुख लोगों की अपनी अलग-अलग पृष्ठभूमि और सामाजिक-राजनीतिक विचारधाराएं हैं। कोई अतिवामपंथी पृष्ठभूमि का है तो किसी का वैचारिक विकास राष्ट्रवाद के तहत हुआ है।

Monday, August 20, 2012


मोदी का गुणगान ना होने के मायने
उमेश चतुर्वेदी
यह अकारण नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में इस बार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को वैसी तरजीह नहीं मिली, जैसी मिलती रही है। अपनी नाराजगी से पहले तक ऐसे सम्मेलनों में मोदी से सीख लेने की सलाह लालकृष्ण आडवाणी देते रहते थे। बाद के दौर में पार्टी आलाकमान गुजरात के शासन मॉडल को अपनाने की सलाह अपने दूसरे मुख्यमंत्रियों को देता रहा। इससे रमण सिंह और शिवराज सिंह चौहान जैसे मुख्यमंत्रियों की निराशा की खबरें सामने आती रही थीं। पार्टी में भावी अगुआई को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हरी झंडी के बावजूद नरेंद्र मोदी को अब तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन स्वीकार करता नजर आ रहा है। बीजेपी में भी उनकी अगुआई को लेकर अंदरूनी गुटबाजी बढ़ी ही है।

Friday, July 27, 2012

एक टिप्पणी लिखी थी कहीं के लिए ...प्रकाशित नहीं हो पाई... आपकी सेवामें हाजिर है
किसकी नाकामी है बोडोलैंड में हिंसा

असम के बोडो इलाके के तीन जिले इन दिनों जल रहे हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इस हिंसा में पैंतीस लोगों की मौत हो चुकी है। केंद्रीय गृहमंत्रालय की चेतावनी और असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई के दावों के बावजूद हिंसा पर अब तक काबू नहीं पाया जा सका है। ऐसे मसलों में अब तक जैसा होता रहा है, वैसा इस बार भी हो रहा है। हिंसा पर काबू रख पाने में नाकाम साबित हुए तरूण गोगोई इस हिंसा के पीछे राजनीतिक साजिश की आशंका जता रहे हैं। ऐसा करके दरअसल वे हिंसा की असल वजह और अपनी अक्षमता को ही झुठलाने की कोशिश कर रहे हैं। इस हिंसा की आशंका तभी से थी, जब से स्वायत्त बोडो क्षेत्रीय परिषद यानी बीटीसी बनी है। अलग बोडोलैंड राज्य की मांग को लेकर आंदोलन चला रहे नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड और इसके विरोधी दोनों संगठनों गैर बोडो सुरक्षा मंच और अखिल बोडोलैंड मुस्लिम छात्रसंघ के बीच खींचतान काफी पुरानी है। बोडोलैंड विरोधी खेमों के दोनों संगठनों के ज्यादातर कार्यकर्ता मुस्लिम हैं और वे खुलकर इसका विरोध कर रहे हैं। बोडोलैंड समर्थक लोग मानते हैं कि दोनों संगठनों के पीछे कांग्रेस का ही अघोषित और परोक्ष हाथ रहा है। बोडोलैंड समर्थक और विरोधियों के बीच खींचतान इन दिनों ज्यादा बढ़ गयी है। अगर राज्य सरकार यह कहती है कि उसे इस खींचतान और इससे उपजे तनाव की जानकारी नहीं थी तो वह गलत बोल रही है। दरअसल इन दिनों बोडोलैंड समर्थक और विरोधियों ने अपनी-अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन तेज कर दिया था। जाहिर है कि इन प्रदर्शनों और उससे उपजे तनाव को खत्म कराने की जिम्मेदारी बोडो समुदाय की ही थी। लेकिन सरकार ऐसा करने में नाकाम रही। इस तनाव को और बढ़ावा मिला बोडोलैंड विरोधियों की तरफ से उठी उस मांग के बाद, जिसमें उन गांवों को बोडो इलाकों से अलग रखने की मांग की गई, जहां की आधी से ज्यादा आबादी गैर बोडो समुदाय की है। इस मांग के पीछ सबसे बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि बोडो क्षेत्रीय परिषद यानी बीटीसी बनने के बाद बोडो इलाके में कानून-व्यवस्था की हालत खराब हो चुकी है। बहरहाल इस मांग ने दोनों तरह के संगठनों के बीच तनाव को इस कदर बढ़ा दिया कि दोनों तरह के संगठनों के कार्यकर्ता एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। इसे मौका मिला 16 जुलाई को कोकराझार में हुई अखिल बोडोलैंड मुस्लिम छात्रसंघ के दो कार्यकर्ताओं की हत्या से। इस हत्या के बाद भी सरकार चेत गई होगी तो बोडो इलाके में हो रही हत्याओं को रोका जा सकता था और लाखों लोगों को शरणार्थी की तरह रहने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि राज्य सरकार बोडो और गैर बोडो लोगों के बीच भरोसा बहाली की कोशिशों के साथ ही हिंसाचारियों के खिलाफ कठोर कदम उठाए। अन्यथा दोनों समुदायों के बीच जारी यह विवाद नासूर बन सकता है।

Tuesday, July 24, 2012


मरांडी का महाधरना : छात्रों के जरिए झारखंड में विस्तार की कोशिश
उमेश चतुर्वेदी
(यह रिपोर्ट प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित हो चुकी है)
झारखंड की राजनीति में अहम भूमिका निभाने की तैयारियों में झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी कूद पड़े हैं। बेशक अभी राज्य विधानसभा के चुनावों में दो साल की देर है। राज्य में स्पष्ट बहुमत नहीं होने के चलते जिस तरह राज्य सरकार चल रही है, उसका खामियाजा ना सिर्फ यहां साफ-सुथरी राजनीति के हिमायतियों को भुगतना पड़ रहा है, बल्कि राज्य का विकास का ढांचा भी चरमरा गया है। इतना ही नहीं, झारखंड की पहचान अब देश में एक ऐसे राज्य के तौर पर पुख्ता होती जा रही है, जहां के विधायकों को आसानी से खरीदा जा सकता है और पैसे के दम पर यहां से संसद के उपरी सदन में दाखिला हासिल किया जा सकता है। कभी झारखंड के लिए कुर्बानी देने वाले शिबू सोरेन हों, या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और वनवासी कल्याण आश्रमों के जरिए यहां की राजनीति में दखल देने वाली भारतीय जनता पार्टी रही हो, दोनों उन आदिवासियों का विकास करने में कामयाब नहीं रहे, जिनकी भलाई के नाम पर 2000 में यह राज्य बना। 

Monday, July 16, 2012


नीतीश बनाम बीजेपी और भावी राजनीति का खेल
उमेश चतुर्वेदी
राजनीति में एक मान्यता रही है..यहां कोई भी सत्य आखिरी नहीं होता...कुछ इसी अंदाज में राजनीति में दुश्मनी स्थायी नहीं होती...इन मान्यताओं का एक मतलब यह भी है कि बहता पानी निर्मला की तरह बदलाव राजनीति के लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है। कुछ इसी तर्ज पर यह भी कह सकते हैं कि राजनीति में दोस्तियां भी स्थायी नहीं होतीं। बिहार की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के विधान परिषद सदस्य रहे संजय झा की कोई खास वकत नहीं रही है।

Thursday, July 5, 2012

मोदी विरोध के सच और निहितार्थ
उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित हो चुका है)
लगता है नरेंद्र मोदी का भूत नीतीश कुमार का पीछा छोड़ता नजर नहीं आ रहा है। यही वजह है कि चाहे राष्ट्रीय परिदृश्य हो या बिहार से जुड़े मसले, जैसे ही नरेंद्र मोदी का जिक्र आता है, वे भड़क जाते हैं। फिर उनकी पार्टी जनता दल यू के प्रवक्ता ठीक उसी अंदाज में उनके मनमुताबिक नरेंद्र मोदी पर हमले शुरू कर देते हैं, जैसे कभी लालू की एकाधिकारवादी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता बीजेपी नेताओं पर लालू के अंदाज में ही हमले शुरू कर देते थे। बहरहाल जब भी नीतीश कुमार की तरफ से नरेंद्र मोदी का का ऐसा विरोध होने लगता है तो सामान्य धारणा यही बनती है कि गोधरा कांड के बाद हुए दंगों में मोदी की भूमिका और उससे नाराज मुसलमान वोटरों को लेकर नीतीश कुमार के मन में संशय रहता है।

Wednesday, July 4, 2012


भारत की कूटनीतिक कामयाबी या विफलता !
उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख दैनिक ट्रिब्यून में छप चुका है)
पाकिस्तान की कोटलखपत जेल की काली कोठरी में तीस साल काटने के बाद रिहा होने के बाद सुरजीत ने जो बयान दिया है, उसने भारत को रक्षात्मक रूख अख्तियार करने के लिए मजबूर कर सकता है। सुरजीत को लेकर अब तक यही कहा जाता रहा है कि 1982 में उन्होंने गलती से सीमा पार कर ली और भारत-पाकिस्तान के बीच जारी कूटनीतिक और सैनिक विश्वासहीनता और खींचतान के शिकार बन गए। भारत की तरफ से सुरजीत को लेकर किए गए इन दावों में उनके निर्दोष होने की ही दुहाई दी जाती रही है। लेकिन बाघा सीमा को पार करते ही उन्होंने जो बयान दिया है, उससे भारतीय कूटनीति पर सवाल उठने लगे हैं। सुरजीत के बयान ने भारत के सारे दावों पर पानी फेर दिया है। सुरजीत ने कहा है कि वे भारतीय खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ के लिए जासूसी कर रहे थे और जब पकड़ लिए गए तो उन्हें सबने छोड़ दिया।

Thursday, June 28, 2012


मोदी को मात देने की कोशिश में कांग्रेस
उमेश चतुर्वेदी
संजय जोशी को भारतीय जनता पार्टी से बाहर कराकर भले ही नरेंद्र मोदी खुद को विजयी समझ रहे हों, लेकिन इसी साल के आखिर में विधानसभा के मैदान पर कांग्रेस इसी विवाद के बीच उन्हें शिकस्त देने की रणनीति बना रही है। इसमें सहयोगी बनती नजर आ रही है संजय जोशी के बीजेपी से बाहर होने के बाद गुजरात और गुजरात के बाहर हो रही नरेंद्र मोदी की लानत-मलामत। कांग्रेस की उम्मीदों को परवान चढ़ाने में मदद दे रही मोदी के खिलाफ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जनता दल यू के बिहार इकाई का हल्लाबोल। बीजेपी में नंबर वन नेता बनने की होड़ में नरेंद्र मोदी के आगे बढ़ने की कोशिशों के बीच नरेंद्र मोदी के खिलाफ भी पार्टी के अंदरूनी हलकों से हमले बढ़ते गए। बीजेपी से मोदी ने जैसे ही तकरीबन यह मंजूर करा लिया कि वे ही पार्टी के नंबर वन नेता हैं, गुजरात में फतह की आस लगाए पंद्रह साल से इंतजार कर रही कांग्रेस की चुनौती और बढ़ गई। गौर करने की बात ये है कि गुजरात कांग्रेस के पास नरेंद्र मोदी जैसी हैसियत वाले नेता नहीं हैं। ऐसे में मोदी का नंबर वन बन जाना निश्चित तौर पर कांग्रेस के लिए कठिन चुनौती बन गया था। लेकिन संजय जोशी प्रकरण को लेकर उनके खिलाफ बीजेपी और एनडीए में बढ़ रहे विरोध से कांग्रेस की मुश्किलें थोड़ी कम होती नजर आ रही हैं।

Saturday, June 16, 2012



अल्पसंख्यक आरक्षण के किंतु-परंतु
उमेश चतुर्वेदी 
( यह लेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है।)
राजनीति में जरूरी नहीं कि जो कुछ सामने दिख रहा हो, हकीकत ही हो। कामयाब राजनीति वही होती है, जिसमें संकेतों के जरिए सबकुछ साधने की कोशिश की जाती है। लेकिन ये संकेत भी इतने सहज और प्रभावी होते हैं कि उनकी मकसद लक्ष्य समूह तक आसानी से पहुंच जाता है। 22 दिसंबर 2011 को जब केंद्र सरकार ने कोटा में कोटा की व्यवस्था बनाते हुए ओबीसी आरक्षण में अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार फीसदी आरक्षण तय किया था तो उसका मकसद साफ था। दिलचस्प यह भी है कि इस मकसद को उसी वक्त राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी तरह से लपक लिया। भारतीय जनता पार्टी को अपने वोट बैंक के खिसकने का खतरा था तो उसने इस पर सवाल उठाने में देर नहीं लगाई।

Wednesday, June 6, 2012

कारगर रणनीति बनाने की जरूरत
उमेश चतुर्वेदी
भ्रष्टाचार की मुखालफत और काले धन की वापसी को लेकर योगगुरु बाबा रामदेव ने जिस तरह का समन्वयवादी कदम उठाया है, उससे उनके कट्टर समर्थकों को थोड़ी निराशा जरूर हुई होगी। रामदेव के समर्थक उनसे उसी ओज और आक्रामक अंदाज की उम्मीद कर रहे थे, जो उन्होंने रामलीला मैदान-कांड के ठीक पहले पिछले साल दिखाया था। मगर, इस बार बाबा का वैसा ओज गायब था। बाबा थोड़े डरे-सहमे से लगे। शायद उन्होंने अपने आंदोलन का रूप बदल दिया है। उनका जोर टकराव पर नहीं, समन्वय पर है।

Monday, June 4, 2012


क्या पूरा होगा मनोहर आटे का सपना
उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित हो चुका है।)
उत्तर प्रदेश की आज की ताकतवर पार्टी बहुजन समाज पार्टी के मूल संगठन बामसेफ के संस्थापक सदस्य रहे मनोहर आटे की मौत हो गई। नागपुर में आखिरी जिंदगी गुजारते रहे मनोहर आटे की मौत की खबर अनदेखी और अनसुनी ही रह गई। बहुजन समाज को समाज में उसका उचित अधिकार दिलाने और नया समाज बनाने के एक स्वप्नकार की मौत का यूं अनसुनी रह जाना, निश्चित तौर पर सवाल खड़ा करता है। यह सवाल इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जिस सपने के साथ मनोहर आटे ने कांशीराम के साथ बामसेफ और बाद में बीएसपी की नींव रखी थी, वह राजनीति की दुनिया में अहम मुकाम हासिल कर चुका है।

Wednesday, May 30, 2012


क्या संगमा बनेंगे कलाम !
उमेश चतुर्वेदी
इसे ही शायद लोकतंत्र कहते हैं...अपनी ही पार्टी साथ देने को तैयार नजर नहीं आती। इसके बावजूद देश का पहला नागरिक बनने की दौड़ में पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी ए संगमा शामिल हो चुके हैं। वैसे तो इस दौड़ में वे खुद को पहले से ही शामिल कर चुके थे, लेकिन बीजू जनता दल और अन्ना द्रमुक ने उनका साथ देकर उनकी उम्मीदवारी को थोड़ा गंभीर जरूर बना दिया है। थोड़ा इसलिए, क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव के निर्वाचक मंडल का सिर्फ तीन-तीन फीसदी मत ही दोनों दलों के पास है। जाहिर है कि इतने कम मत से रायसीना हिल की दौड़ जीतना असंभव ही है। पीए संगमा ने जिस आदिवासी कार्ड के बहाने अपना नाम आगे बढ़ाया है, उसे उनकी अपनी ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी साथ नहीं दे रही तो दूसरों से क्या उम्मीद की जाती।

Friday, May 25, 2012


उच्च शिक्षा व्यवस्था पर फिर उठा सवाल
उमेश चतुर्वेदी
तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था और आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर बढ़ते अपने देश का गुणगान करते हम नहीं थकते। उलटबांसियों के बीच आगे बढ़ती अपनी अर्थव्यवस्था का मंदी से जूझ रहे अमेरिका और यूरोप के देश भी मानने लगे हैं। ऐसे में अव्वल तो होना यह चाहिए था कि अपनी शिक्षा व्यवस्था भी कम से कम दुनिया के स्तर की होनी चाहिए। निश्चित तौर पर मजबूत अर्थव्यवस्था के जरिए गंभीर और गुणवत्ता आधारित शिक्षा व्यवस्था बहाल की जा सकती है। नालंदा और तक्षशिला जैसे गुणवत्ता आधारित विश्वविद्यालयों की परंपरा वाले देश में ऐसी उम्मीद भी बेमानी नहीं है। लेकिन हाल ही में आई यूनिवर्सिटास -21 की रिपोर्ट ने अपनी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और दुनिया के सामने उसकी हैसियत की पोल खोल कर रख दी है।

Monday, May 14, 2012


राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए पाठ्यक्रमों का विरोध
उमेश चतुर्वेदी
संसद के साठ साल पूरे होने के मौके पर दिए एक साक्षात्कार में पहली संसद के सदस्य रहे और मौजूदा राज्यसभा सदस्य रिशांग किशिंग ने एक बड़ी मार्के की बात कही है। उन्होंने कहा है कि पहले संसद में जनता से जुड़े मुद्दे उठाए जाते थे, लेकिन अब मुद्दे दलगत और राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए उठाए जाते हैं। एनसीईआरटी की किताब में छपे संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर से जुडे कार्टून का मसला भी रिशांग किशिंग की चिंताओं को ही जाहिर कर रहा है। दिलचस्प यह है कि जिस कार्टून को लेकर विवाद खड़ा हुआ, उसे शंकर जैसे मशहूर कार्टूनिस्ट ने बनाया है। 1949 में बनाए गए इस कार्टून को लेकर पता नहीं तब अंबेडकर या नेहरू ने कैसी प्रतिक्रिया दी होगी, , लेकिन एनसीईआरटी की किताब में प्रकाशित हुए इस कार्टून को लेकर दलितों की राजनीति करने वाले बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों का मानना कुछ और ही है। इन राजनीतिक दलों को लगता है कि ऐसे कार्टून को पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने बाबा साहब अंबेडकर को लेकर छात्रों के मन में गलत संदेश जाएगा।

Wednesday, May 9, 2012


जरूरी है बराबरी के आधार वाली बुनियादी शिक्षा
उमेश चतुर्वेदी
जब से शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया गया है, तभी से नामी गिरामी पब्लिक और निजी स्कूलों ने इसकी काट खोजने की कवायद जारी रखी है। शिक्षा के अधिकार कानून में निजी और पब्लिक स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है। निजी और पब्लिक स्कूलों को सबसे ज्यादा परेशानी इसी प्रावधान से रही है। क्योंकि उनकी मोटी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इसके जरिए कम होता नजर आ रहा है भले ही उनके पाठ्यक्रमों में कृष्ण और सुदामा की पौराणिक कथा दोस्ती की मिसाल के तौर पर शामिल हो, लेकिन हकीकत में वे कृष्ण और सुदामा को साथ बैठाने और पढ़ाने की अवधारणा से ही पीछा छुड़ाने की कोशिश करते रहे हैं।

Sunday, May 6, 2012


शहरी मध्यवर्ग के समर्थन के बिना नक्सली
उमेश चतुर्वेदी
छत्तीसगढ़ में सुकमा के जिलाधिकारी एलेक्स पॉल मेनन के अगवा प्रकरण ने नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकारी मशीनरी की लाचारगी की पोल तो खोली ही है, लेकिन एक नई तरह का संकेत भी दिया है। नक्सलियों ने मध्यस्थता के लिए जिन लोगों के नाम सुझाए थे, उनमें से दो अहम शख्सीयतों ने मध्यस्थता का प्रस्ताव ठुकराने में देर नहीं लगाई। सुप्रीम कोर्ट के वकील और अन्ना हजारे की कोर टीम के अहम सदस्य प्रशांत भूषण की ख्याति वामपंथी विचारों के लिए भी रही है। लेकिन उन्होंने इस बार ना सिर्फ मध्यस्थता का प्रस्ताव ठुकरा दिया, बल्कि किसी सिविल अधिकारी को बंधक बनाने की नक्सली रणनीति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। नक्सलियों ने आदिवासी महासभा के अध्यक्ष मनीष कुंजम का भी नाम मध्यस्थों के लिए सुझाया था। लेकिन उन्होंने भी सिर्फ पॉल मेनन के लिए दवाएं ले जाने का मानवीय रास्ता ही अख्तियार किया। उन्होंने भी मध्यस्थता में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

Saturday, April 7, 2012


चुप्पी के पीछे क्या है?
उमेश चतुर्वेदी
उत्तराखंड में कांग्रेस को सरकार में लौटे करीब एक महीने का वक्त बीत चुका है। लेकिन पार्टी की आपसी खींचतान थमने का नाम नहीं ले रही है। ऐसे में राहुल गांधी की चुप्पी पर सवाल उठना लाजिमी है। इसकी वजह है जनवरी-फरवरी के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को जोरदार जीत दिलाने के लिए की गई उनकी जी तोड़ मेहनत। यह सच है कि उनकी कोशिश के नतीजे अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे। लेकिन यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपनी सीटें बढ़ाने में कामयाब रही, उत्तराखंड में सरकार में लौटी। तो क्या यह मान लिया जाय कि राहुल गांधी अपेक्षा के अनुरूप नतीजे नहीं मिलने से निराश हैं और चुपचाप बैठ गए हैं। भरपूर मेहनत और जी तोड़ कोशिशों का नतीजा बेहतर नहीं आता तो निराशा स्वाभाविक है। लेकिन यह भी सच है कि राजनीति की दुनिया में सक्रिय हस्तियां देर तक निराशा के गर्त में नहीं डूबी रहतीं। फिर कांग्रेस कोई छोटी-मोटी पार्टी नहीं है और राहुल गांधी उसके मामूली कार्यकर्ता भर नहीं है। तो क्या यह मान लिया जाय कि पार्टी में ये चुप्पी कांग्रेस में तूफानी बदलाव के पहले के सन्नाटे जैसी है।

Saturday, March 31, 2012


                      क्या हुआ कि अन्ना अब दूर हो गए
उमेश चतुर्वेदी 
अन्ना हजारे की टीम को पिछले दिनों सिर्फ चेतावनी देकर संसद ने छोड़ दिया। हालांकि मुलायम सिंह यादव जैसे नेता ने तो उन्हें संसद में मुजरिमों की तरह बुलाए जाने की मांग की। नाराज वह शरद यादव भी कम नहीं रहे, जिनकी दाढ़ी में तिनका वाली कहावत का टीम अन्ना ने इस्तेमाल किया। अन्ना हजारे की टीम के खिलाफ कोरस गान में कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों के नेताओं के अलावा छोटे-बड़े सभी दल शामिल रहे। हालांकि एक दिन पहले यानी 26 मार्च को सुषमा स्वराज, गुरुदास दासगुप्ता और वासुदेव आचार्य भी अन्ना हजारे के खिलाफ विरोध में शामिल रहे और उन्हें चेतावनी देने की मांग करते रहे। उस दिन कांग्रेस मंद मुस्कान के साथ गुस्से के इस गुब्बार को देखती रही।

Saturday, March 24, 2012


मोहन धारिया और टाइम की उम्मीदों पर कितना खरा उतरेंगे मोदी
उमेश चतुर्वेदी
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खबरों में रहना आता है। हासिल हुए मौकों को अपने पक्ष में मोड़ने और प्रचारित करने में भी उन्हें महारत हासिल है। 2002 के गुजरात दंगों के दाग़ की वजह से मीडिया और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के निशाने पर रहना मोदी की नियति हो गई है। लेकिन इसके बावजूद मोदी का ये कमाल ही कहेंगे कि वो मीडिया को अपने तईं इस्तेमाल कर लेते हैं और सारा मजमा लूट ले जाते हैं। गुजरात के विकास कार्यों में जिस मुस्तैदी से वे जुटे हैं, उसके चलते अब उनके विरोधी भी मानने लगे हैं कि उनका राजनीतिक दमखम 2014 के आम चुनावों में बतौर बीजेपी नेता दिख सकता है। तभी तो कभी जनता पार्टी से दोहरी सदस्यता के नाम पर अलग होने वाले युवा तुर्क मोहन धारिया भी ये कहने से खुद को रोक नहीं पाते कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो उन्हें खुशी हुई।

Sunday, March 11, 2012


नीतीश और मोदी की प्रतिद्वंद्वी हो सकती हैं ममता
उमेश चतुर्वेदी
नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर यानी एनसीटीसी के विरोध में ममता बनर्जी के उतरने के बाद उसके अमल पर रोक लग गई है...प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ममता बनर्जी की मुलाकात के बाद इसे रोकने के अलावा केंद्र सरकार के पास दूसरा कोई चारा नहीं था। मौजूदा केंद्र सरकार की हालत और मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में एक-एक सांसद की अहमियत बढ़ गई है। फिर ममता बनर्जी अपने 18 सांसदों के साथ सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण घटक है, लिहाजा उनके विरोध को दरकिनार कर पाना एक तरह से राजनीतिक हाराकिरी ही होगी।

सुबह सवेरे में