Saturday, September 13, 2014

इंसानियत की तरफ बढ़े हाथ


उमेश चतुर्वेदी
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित) 
तपती गरमी के बीच बारिश की फुहारें जिंदगी में जैसे नई लहर लेकर आती हैं..जीने और नए तरीके से सोचने की लहर..इस लहर को बार-बार महसूस किया है...लहजा बदल सकता है..हरफ बदल सकते हैं..लेकिन बारिश के साथ जिंदगी का यह अनुभव हर शख्स को होता ही है..लेकिन यह बारिश भी जिंदगी में एक नए तरह का अनुभव करा जाएगी..ऐसा कभी सोचा भी नहीं था..नियति में तमाम भरोसे के बावजूद इस अनुभव को संजोग ही कह सकते हैं..दफ्तरी भागमभाग और जुतम-जुताई के बाद थकान उतारने का अपना एक ही जरिया है गप्पबाजी..कभी वह कोरी होती है तो कभी उसमें बौद्धिकता का छौंका भी लग जाता है..जुलाई के आखिरी हफ्ते के उस दिन दफ्तर से निजात के बाद खुद को सहज करने के लिए उस दिन भी एक अड्डे पर जाने का विचार था..लेकिन अचानक आई बारिश ने इरादा बदलने को बाध्य कर दिया...दरअसल जिस अड्डे पर जाना था, वहां आने वाले कई अड्डेबाज बारिश में फंस गए थे.

Thursday, September 11, 2014

कहां हैं जेहादी और हुर्रियत के लोग

उमेश चतुर्वेदी
जम्मू-कश्मीर की भयावह बाढ़ 16 जून 2013 को उत्तराखंड मेंआए विनाशकारी जलप्रलय की याद दिला रही है। मीडिया की खबरें कश्मीर ही नहीं, जम्मू में बाढ़ और नदियों में समाई जिंदगियों और बस्तियों की कहानी से अटी पड़ी है। राजौरी जिले के एक दो मंजिला मकान के नदी में समाहित होने की तस्वीर कुछ ऐसे ही मीडिया में साया हुई है, जैसे पिछले साल गंगा और उसकी सहयोगी अलकनंदा नदी में उत्तराखंड में कुछ घर और बिल्डिंगें समा गई थीं और देखते ही देखते वहां जिंदगी का नामोनिशान मिट गया था। जम्मू में तवी नदी के किनारे स्थित गणेश जी की मूर्ति बाढ़ में उत्ताल उठती लहरों से कुछ वैसे ही मोर्चा संभाले हुए मीडिया रिपोर्टो में  नजर आती रही, जैसे पिछले साल ऋषिकेश में गंगा की लहरों से भगवान शंकर की मूर्ति ने दो-दो हाथ किया था। बाहरी दुनिया के लिए उत्तराखंड की विनाशलीला के प्रतीक के तौर पर लहरों के बीच खड़ी शंकर की मूर्ति बनी थी। यह दुर्योग ही है कि ठीक पंद्रह महीने बाद जम्मू में भगवान शंकर के बेटे भगवान गणेश की प्रतिमा जम्मू-कश्मीर के जल प्रलय का प्रतीक बन गई है।

Thursday, September 4, 2014

सुलभ क्रांति का नया दौर : साक्षात्कार

प्रधानमंत्री के मिशन टॉयलेट पर सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक विंदेश्वर पाठक से वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी की बातचीत
सुलभ क्रांति का नया दौर : साक्षात्कार
हर साल स्वतंत्रता दिवस यानी पंद्रह अगस्त को लालकिले से प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन में दरअसल देश की भावी नीतियों और योजनाओं की ही झलक मिलती रही है। 67 साल से साल-दर-साल प्रधानमंत्री के भाषण में कई बार सिर्फ रस्मी घोषणाएं भी होती रही हैं। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ अलग हटकर भी घोषणाएं कीं। जिन्हें लेकर देश इन दिनों संजीदा भी दिख रहा है। ऐसी ही एक घोषणा मिशन शौचालय की भी रही। इसमें प्रधानमंत्री ने निजी और कारपोरेट सेक्टर से अपील की कि वे स्कूलों में बच्चियों-लड़कियों के शौचालय बनवाने के लिए आगे आएं। हाल के दिनों में दूर-दराज के इलाकों में बच्चियों और महिलाओं से ज्यादातर रेप की घटनाएं खुले  में शौच के  लिए  जाने  के  दौरान  हुई। इन अर्थों में प्रधानमंत्री की अपील को गहराई से महसूस किया जा रहा है। देश में सुलभ शौचालयों के जरिए क्रांति लाने में विंदेश्वर पाठक का बड़ा योगदान है। उन्होंने मैला ढोने वाले समुदाय की मुक्ति की दिशा में भी बड़ा काम किया है। शौचालयों के जरिए क्रांति लाने वाले विंदेश्वर पाठक इस सिलसिले में क्या सोचते हैं, इसे लेकर की गई बातचीत के संपादित अंश पेश हैं-
पाठक जी, सबसे पहला सवाल यह है कि प्रधानमंत्री की इस योजना को आप किस तरह देखते हैं?
gandhiji
स्वयं अपने शौच की सफ़ाई को, गांधीजी ने एक बड़े सामाजिक आंदोलन का रूप दिया
देखिए शौचालय की क्रांति की दिशा में इस देश में अब तक महात्मा गांधी और मैंने ही काम किया है। इसके बाद मोदी जी पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने इतनी संजीदगी से इस मसले को उठाया है। ऐसा नहीं कि बाकी लोगों ने इस मसले को नहीं उठाया।

Thursday, August 21, 2014

लालू-नीतीश की कामयाबी बदलेगी सियासी मिजाज !


उमेश चतुर्वेदी
समाज और राज को चलाने वाली राजनीति की भी अजब रवायत है..ज्ञान और विचार की दुनिया में सिद्धांत शाश्वत या अविच्छिन्न मूल्यों के आधार पर तैयार होते हैं। लेकिन राजनीति अपने तात्कालिक फायदे और नुकसान के लिए वैचारिक सरणियों से गुजरती है और नया सिद्धांत गढ़ती है। 1962 में एक हद तक कांग्रेस विरोधी हवा के बावजूद विपक्ष की हार ने डॉक्टर राममनोहर लोहिया को गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत की तरफ सोचने के लिए मजबूर किया था। जिसने 1963 में ही कमाल दिखाया और उपचुनावों में समाजवादी धुरंधर डॉक्टर लोहिया, आचार्य जेबी कृपलानी, पीलू मोदी देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचने में कामयाब रहे। इसका असर 1967 में भी नजर आया, जब नौ राज्यों में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं। इसी गैरकांग्रेसवाद की समाजवादी नींव और विचार पर आज के समाजवादियों का राजनीतिक प्रशिक्षण हुआ है। यह बात और है कि अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते लालू यादव लगातार कांग्रेस के साथ हैं। अब इसमें नया नाम नीतीश कुमार का भी जुट गया है। कभी लोहिया ने भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ के साथ गैरकांग्रेसवाद के विचार को चरम पर पहुंचाया था। उन्हीं लोहिया के तेजतर्रार समाजवादी शिष्य किशन पटनायक की शागिर्दी में समाजवाद का राजनीतिक पाठ पढ़ने वाले नीतीश कुमार अब कांग्रेस के साथ खड़े हो गए हैं। वैशाली जिले के हाजीपुर में बीस साल बाद एक दौर के बड़े भाई और अपने प्यारे दोस्त लालू यादव के साथ मंच साझा करते वक्त भारतीय राजनीति को नया सिद्धांत देने की कोशिश की, वह सिद्धांत है गैरभाजपावाद का।

Sunday, August 10, 2014

उदारीकरण, परंपरा, नई राजनीति और युवाओं की चुनौतियां

उमेश चतुर्वेदी
(यह आलेख भारतीय जनता पार्टी के मुखपत्र कमल संदेश के युवा विशेषांक में प्रकाशित हुआ है..जिसका विमोचन 9 अगस्त 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने किया..यह लेख जनवरी 2014 में लिखा गया था)
क्या भारतीयता की सोच की अवधारणा पूरी तरह चुक गई है..देश ही क्यों..किसी भी इलाके की सोच वहां की परिस्थिति, जलवायु और जरूरतों के मुताबिक विकसित होती है। दो सौ सालों के अंग्रेजी शासन काल ने सबसे बड़ा काम यह किया है कि उसने सोच के हमारे अपने आधार पर ही कब्जा कर लिया है। यही वजह है कि हमारी पूरी की पूरी सोच पश्चिम से आयातित मानकों और जरूरतों के मुताबिक होने में देर नहीं लगाती। युवाओं के संदर्भ में हमारी जो सोच विकसित हुई है या हो रही है..विचार करने का वक्त आ गया है कि क्या वह सोच भी भारतीयता की अवधारणा के आधार से दूर है..यह सवाल इसलिए उठता है..उदारीकरण के आते ही हमारे देश की युवाशक्ति की बलैया ली जाने लगी थी।

Tuesday, November 5, 2013

गांवों की तसवीर बदलने वाला वह युवा तुर्क

मोहन धारिया की याद
(वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय के संपादन में निकल रही पत्रिका यथावत के  1-15 नवंबर 2013 के अंक में इस लेख का संपादित अंश प्रकाशित हो चुका है..)
उमेश चतुर्वेदी
अप्रैल 2008 का आखिरी हफ्ता..दिल्ली की दोपहरियां कड़क धूप से परेशान करने लगी थीं..एक मराठी समाचार पत्र के उन्हीं दिनों शुरू हुए एक टीवी चैनल में दिल्ली कार्यालय की अहम जिम्मेदारी निभा रहा था..इन्हीं दिनों एक प्रेस बुलावा आया...कन्फेडरेशन ऑफ एनजीओ ऑफ रूरल इंडिया का..दिल्ली के अशोक होटल में 25 से 27 अप्रैल तक इसका कार्यक्रम होना था.जिसका उद्घाटन तब के ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह को करना था। बुलावा मोहन धारिया के नाम था..धारिया ही इस कन्फेडरेशन यानी संघ के प्रमुख कर्ता-धर्ता थे। धारिया की छवि अखिल भारतीय रही है..लेकिन मराठी समाज में उनका सम्मान कुछ ज्यादा ही ऊंचा था। लिहाजा मराठी मीडिया की हमारी टीम को इसे कवर करना ही था। दफ्तर की टीम रिपोर्टिंग करने चली भी गई। लेकिन एक दौर के युवा तुर्क मोहन धारिया की शख्सीयत को देखने और उनसे मिलने की ललक पर काबू पाना मुश्किल था..लिहाजा मैं भी वहां पहुंच गया..तब मोहन धारिया की उम्र 84 साल की थी। उद्धाटन कार्यक्रम में मौजूदगी के चलते थक गए थे..लिहाजा उनसे खास मुलाकात अशोक होटल के ही उस कमरे में हुई, जहां वे ठहरे हुए थे। 

Sunday, October 20, 2013

बदलाव के दौर से गुजर रही भारतीय जनता पार्टी

उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख उत्तराखंड से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र संडे पोस्ट के भारतीय जनता पार्टी विशेषांक में प्रकाशित हो चुका है।)
नरेंद्र मोदी को पहले चुनाव प्रचार अभियान की कमान और बाद में प्रधानमंत्री पद की उम्मदीवारी पर उठा विवाद फिलहाल थमता नजर आ रहा है। छत्तीसगढ़ के कोरबा में लालकृष्ण आडवाणी नेअपने चेले की सरकार का गुणगान करके यह संदेश दे दिया है कि वे तकरीबन मान गए हैं। हालांकि पहले प्रचार अभियान की कमान और दूसरी बार प्रधानमंत्री पद पर मोदी की उम्मीदवारी पर मुहर के बाद लालकृष्ण आडवाणी के कोपभवन में जाने और नाराज होने के बाद  उनके खिलाफ के इर्द-गिर्द घटी घटनाएं भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा चाल, चेहरा और चरित्र को उजागर करने के लिए काफी है। छह अप्रैल 1980 को दिल्ली में पार्टी का गठन करते वक्त जिस आडवाणी ने पार्टी विथ डिफरेंस का नारा दिया था, मोदी को कमान मिलने के बाद कोपभवन में जाकर उन्हीं आडवाणी ने साफ कर दिया कि पार्टी बदलाव के दौर से गुजर रही है। लेकिन वे खुद इस बदलाव को सहजता से स्वीकार करने को तैयार नहीं है। अलबत्ता इस पूरी प्रक्रिया में एक बात जरूर रही कि उन्होंने अपनी खुद की छवि जरूर बदल ली। राममंदिर आंदोलन के साथ ही उन्हें रेडिकल छवि वाले नेता के तौर पर देखा जाता था। दिलचस्प यह है कि उनकी इस रेडिकल और हिंदूवादी छवि में नब्बे के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने निष्ठावान स्वयंसेवक की छवि नजर आती थी। उनकी तुलना में अटल बिहारी वाजपेयी कहीं ज्यादा उदार नजर आते थे। लेकिन उनके कोपभवन में जाने और इस्तीफे की खबरों के बाहर प्रचारित होने के बाद उन्हें लोग नरेंद्र मोदी की तुलना में उदार मानने लगे। इस लिहाज से देखें तो बहुलतावादी दर्शन के जबर्दस्त पैरोकारों के बीच आडवाणी की यह छवि उनकी उपलब्धि ही है।

Sunday, October 6, 2013

दागी तो नहीं बन पाएंगे माननीय..लेकिन किसे मिले श्रेय

उमेश चतुर्वेदी
दागियों को माननीय बनने और बनाने से रोकने वाले विधेयक और अध्यादेश की वापसी ने सरकार और विपक्ष दोनों के बीच श्रेय लेने की होड़ का मौका दे दिया है। सरकार की अगुआई कर रही कांग्रेस पार्टी जहां इसके लिए पूरा श्रेय राहुल गांधी को देने की पुरजोर कोशिश कर ही रही है। विपक्ष भी इसका पूरा श्रेय खुद लेना चाहता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसका पूरा श्रेय राहुल गांधी को ही मिलना चाहिए। सवाल यह भी है कि क्या विपक्ष की इसमें कोई भूमिका नहीं रही। सवाल यह भी है कि क्या वामपंथी दलों ने राजनीतिक गंगा को साफ करने वाले इस यज्ञ में कोई योगदान नहीं दिया और क्या इस एक फैसले से नरेंद्र मोदी की तरफ से राहुल गांधी को जो चुनौती मिलती नजर आ रही है, उस पर लगाम लग जाएगा।

Friday, September 20, 2013

आडवाणी के बदले बोल से क्या थमेगा सत्ता संघर्ष


उमेश चतुर्वेदी
छत्तीसगढ़ के कोरबा ने क्या इतिहास रचने की दिशा में एक कदम बढ़ा दिया है..यह सवाल इन दिनों दो तरह से लोगों के जेहन में घूम रहा है। एक तो यह कि क्या भारतीय जनता पार्टी में शीर्ष स्तर पर मचा सत्ता का संघर्ष खत्म हो गया है ? क्या पार्टी के शीर्ष पुरूष और अयोध्या आंदोलन के प्रमुख सेनानी अपने मौजूदा रूख पर कायम रहेंगे। भारतीय जनता पार्टी की अंदरूनी परिधि के बाहर इस सवाल के अलावा भी चिंताएं और उम्मीदें हैं। मोदी विरोधियों, जिनमें ज्यादातर बाहरी और गैर भारतीय जनता पार्टी वाले दल हैं, उन्हें सांप्रदायिकता और दंगों के दागी के खिलाफ कोरबा की कहानी में भी नई रणनीति दिखती है। क्योंकि कोरबा से अयोध्या आंदोलन के महारथी ने अपने शिष्य को सीधे तौर पर समर्थन नहीं दिया। लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात में बिजली की उपलब्धता और विकास की प्रशंसा की।

Thursday, September 12, 2013

श्यामरूद्र पाठक की गिरफ्तारी से उठे भारतीय भाषाओं के सवाल

उमेश चतुर्वेदी
मेरी समझ में वे लोग बेवकूफ हैं जो अंग्रेजी के चलते हुये समाजवाद कायम करना चाहते हैं| वे भी बेवकूफ हैं जो समझते हैं कि अंग्रेजी के रहते हुये जनतंत्र भी आ सकता है| हम तो समझते हैं कि अंग्रेजी के होते यहाँ ईमानदारी आना भी असंभव है| थोड़े से लोग इस अंग्रेजी के जादू द्वारा करोड़ों को धोखा देते रहेंगे|”
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डॉ॰ राममनोहर लोहिया
अगर डॉक्टर लोहिया अंग्रेजी और जर्मन के प्रखर जानकार नहीं होते तो भाषायी स्वाभिमान के मोर्चे पर जैसा भाव देश में दिख रहा है, उनके इस कथन पर उपेक्षात्मक सवाल उठते। भारतीय वैचारिक जगत पर औपनिवेशिक प्रभाव और वैचारिक जड़ता पर लोहिया ने जितने प्रहार किए हैं, उतने शायद ही किसी और नेता और विचारक ने किए हों। लेकिन दुर्भाग्यवश यह जड़ता बढ़ती ही गई। यही वजह है कि आईआईटी दिल्ली से बी टेक और एम टेक श्यामरुद्र पाठक देश के सबसे मजबूत सत्ता केंद्र सोनिया गांधी की रिहायश दस जनपथ के बाहर 225 दिनों तक संविधान के अनुच्छेद 348 ख में बदलाव की शांत मांग को लेकर बैठे रहे। लेकिन देश का भाषायी स्वाभिमान जाग नहीं पाया। 16 जुलाई 2013 को जब तुगलक रोड पुलिस ने गिरफ्तार किया तो उन्होंने पुलिस का खाना खाने से ही मना कर दिया। इससे परेशान पुलिस अफसरों ने उनके परिचितों को फोन करके बुलाना शुरू कर दिया।

Monday, August 12, 2013

बिना आईएएस राज्य सरकार कर सकती है काम


उमेश चतुर्वेदी
मुलायम सिंह यादव के घर में सबसे गंभीर और पढ़े-लिखे के तौर पर किसी को देखा जाता है तो वे रामगोपाल यादव हैं। जब पार्टी लाइन से बाहर आज के दौर में बेबाक बयानी राजनीतिक अनुशासनहीनता मानी जा रही हो। ऐसे में चाहे कितना भी रसूख वाला नेता क्यों ना हो, उससे पार्टी लाइन से इतर बोलने की उम्मीद नहीं जा सकती। लेकिन जब रामगोपाल यादव बोलें तो उनकी छवि के मुताबिक उनसे इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे नापतोल कर बोलेंगे। लेकिन राजनीति के चक्कर में वे भी फिसल गए। उत्तर प्रदेश में खनन माफिया के खिलाफ कार्रवाई करके चर्चा में आ चुकी आईएएस अफसर दुर्गा शक्ति नागपाल और उनके निलंबन के समर्थन में बोलते वक्त रामगोपाल यादव उस संविधान को भी भूल गए, जिसकी शपथ वे सांसद बनने के बाद लेते रहे हैं। उन्होंने कह दिया कि केंद्र सरकार चाहे तो आईएएस अफसरों को वापस बुला ले। उत्तर प्रदेश बिना आईएएस अफसरों के ही काम चला लेगा।

Tuesday, June 4, 2013

एनएसी से अरूणा रॉय के निकलने के निहितार्थ

उमेश चतुर्वेदी
यूपीए एक की जिन योजनाओं की कामयाबी ने यूपीए दो की राह बनाई थी, उनमें महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा खासी महत्वपूर्ण मानी जाती रही है। इस योजना के तहत पूरे देश में न्यूनतम मजदूरी देने की अनुशंसा जिस दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खारिज कर दी थी, तकरीबन उसी दिन से माना जाने लगा था कि मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता और इस योजना की सबसे बड़ी पैरोकार अरूणा रॉय सोनिया गांधी की अगुआई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से अलग हो सकती हैं। वैसे तो उनका कार्यकाल खत्म हो चुका है। लेकिन कार्यकाल बढ़ता, इसके पहले ही उन्होंने खुद सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखकर अपना कार्यकाल नहीं बढ़ाए जाने की मांग कर दी थी। अरूणा रॉय का राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से जाना जितनी बड़ी खबर है, उससे कहीं ज्यादा बड़ी खबर मनरेगा में जारी भ्रष्टाचार और उस पर तकरीबन पूरे उत्तर भारतीय राज्यों में उठते सवाल भी हैं।

Tuesday, April 23, 2013

इस लट्ठम-लट्ठा के मायने



उमेश चतुर्वेदी
सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा..कहावत बड़ी पुरानी है..आमतौर पर इसका प्रयोग व्यंग्य में ही किया जाता है। इसके बावजूद अगर प्रधानमंत्री पद पर मोदी की भावी ताजपोशी को लेकर भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यू के बीच अगर खींचतान इस कदर बढ़ गई है कि दोनों का 17 साला पुराना गठबंधन टूट के कगार पर आ चुका है तो इसके दो मतलब हैं-एक या तो भारतीय जनता पार्टी को पूरा यकीन है कि अगली बार अगर नरेंद्र मोदी की अगुआई में उसने चुनावी खेती की तो इतनी कपास जरूर पैदा हो जाएगी कि दस साल से जारी उसकी सत्ता रूपी सूत की कमी दूर हो जाएगी। इसके ठीक विपरीत जनता दल यू को लगता है कि मोदी की अगुआई में एनडीए ने चुनावी खेती की कोशिश की, तो शायद ही इतनी कपास हो कि सत्ता साधने भर के लिए सूत तैयार किया जा सके। लेकिन सवाल यह है कि क्या मौजूदा लट्ठम-लट्ठा की सिर्फ और सिर्फ इतनी ही वजह है। सवाल यह भी है कि क्या सचमुच मोदी की अगुआई में नीतीश कुमार की अगुआई वाला जनता दल यू अपनी अलग राजनीतिक राह चुनने के लिए मजबूर हो जाएगा।

Wednesday, April 10, 2013

अपने-अपने प्रधानमंत्री


उमेश चतुर्वेदी
भोजपुरी इलाकों में एक कहावत कही जाती है...पेड़ पर कटहल और होठ पर तेल..यानी अभी कटहल पास आया नहीं...कि होठों पर तेल लगाकर उसका स्वाद उठाने और उसके समस्यामूलक गोंद से बचने की तैयारी कर ली। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों को लेकर भारतीय जनता पार्टी में जारी कुछ ज्यादा और कांग्रेस की कमतर चर्चाओं को देखकर यह मुहावरा बार-बार याद आता है। बेशक इन चर्चाओं को विमर्श का जरिया बनाया जा रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि ये चर्चाएं अभी तक गंभीर विमर्श की बजाय प्रहसनकारी चर्चाओं के तौर पर ही आगे बढ़ती नजर आ रही हैं। निश्चित तौर पर ऐसी चर्चाएं उस ब्रिटेन में भी चलती हैं, जहां को संसदीय लोकतंत्र और कार्यपालिका की वेस्ट मिंस्टर पद्धति हमने भी उधार लेकर उसे अपना बनाने की कोशिश की है। लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि वहां विपक्षी दलों का बाकायदा छाया मंत्रिमंडल काम करता रहता है।

Friday, March 29, 2013

मुलायम की सियासी पैंतरेबाजी

उमेश चतुर्वेदी
कभी संघ परिवार की तरफ से मौलाना की उपाधि हासिल कर चुके मुलायम सिंह यादव क्या बदल गए हैं ? उत्तर भारत में कहा जाता है कि जीवन के चौथे पड़ाव में व्यक्ति की वैचारिकता में उदारता आने लगती है तो क्या मुलायम सिंह यादव के वैचारिक प्रभामंडल में भी वही बदलाव नजर आने लगा है...ये सवाल इसलिए इन दिनों पूछे जा रहे हैं...क्योंकि मुलायम सिंह यादव भारतीय जनता पार्टी के उस नेता की शान में सार्वजनिक कशीदे पढ़ने लगे हैं, जिसको 1990 में गिरफ्तार करने के उतावलेपन के हद तक वे जा पहुंचे थे। गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या के लिए चली राम रथ यात्रा के सारथी लालकृष्ण आडवाणी के रथ को रोकने के लिए उन दिनों जनता दल के दो नेताओं में होड़ लग गई थी।

Saturday, March 16, 2013

दया याचिका, राजनीति और राष्ट्रपति

उमेश चतुर्वेदी
(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित)
मुंबई हमले के दोषी अजमल कसाब और फिर संसद हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी के बाद दया याचिकाओं के निबटारे को लेकर राजनीति तेज हो गई है। वैसे तो कुछ एक मानवाधिकारवादियों को छोड़ दें तो अजमल कसाब को माफी ना देने को लेकर पूरा देश एक था। शायद इसकी एक बड़ी वजह कसाब का पाकिस्तानी आतंकवादी होना था। लेकिन अफजल गुरू की फांसी को लेकर देश का एक बड़ा तबका और राजनीति विरोध में खड़ी  थी।

Thursday, February 14, 2013

राहुल की चुनौतियां


उमेश चतुर्वेदी
(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित )
जयपुर चिंतन बैठक में पार्टी के औपचारिक तौर पर नंबर दो बनने के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह बैठकों का दौर शुरू कर दिया है, उससे साफ है कि पार्टी में भले ही औपचारिक तौर पर वे नंबर दो हैं, लेकिन असलियत में वे नंबर एक बनने की प्रक्रिया का एक सोपान पार कर चुके हैं। यह प्रक्रिया कांग्रेस मुख्यालय में 24 जनवरी को नजर आयी, जब उपाध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी पहली बार वहां पहुंचे। नीली जींस और सफेद कुर्ते में पहुंचे राहुल के इस पहनावे में भी कांग्रेस की भावी संस्कृति और कदमों के संकेत देखे गए। माना गया कि राहुल की कांग्रेस आग और अनुभव का मेल होगी। अपनी नई टीम बनाने के लिए उन्होंने जिस तरह बैठकों का दौर जारी रखा है, उससे अभी तक कोई साफ संकेत तो नहीं निकले हैं। ना ही राहुल गांधी ने अपनी जुबान खोली है। लेकिन यह तय है कि उनकी टीम अनुभव की उतनी ही आंच होगी, जितना नई आग को सुलगाने में उसकी भूमिका होगी।

Friday, February 8, 2013

बयानों के तीर


उमेश चतुर्वेदी
(दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)
भारत के सदियों के इतिहास में भारत विभाजन सबसे बड़ा त्रासद अनुभव है...विभाजन की विभीषिका झेल चुकी पीढ़ी अब खत्म होने के कगार पर है। लेकिन उसकी पीड़ा बाद की पीढ़ी के खून तक में समा चुकी है। कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद के लालकृष्ण आडवाणी के बयान को सिर्फ राजनीति के चश्मे से ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उसे भारत विभाजन की उस त्रासदी से जोड़कर देखा जाना चाहिए, जिसकी कीमत आज तक सीमा पार की एक ही तरह की सभ्यताएं भुगत रही हैं। लालकृष्ण आडवाणी रहे हों या इंद्रकुमार गुजराल या फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, इन लोगों ने भारत की तरफ रूख इसलिए नहीं किया था कि उन्हें यहां सत्ता मिलेगी। भारत विभाजन के बाद हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जो गहरा अविश्वासबोध फैला था, लाखों लोगों को अपनी बसी बसाई गृहस्थी, पीढ़ियों की खून पसीने की कमाई समेत अपना सबकुछ खो दिया था। इस त्रासदी को लेकर इतिहास के हजारों पन्ने रंगे जा चुके हैं। मशहूर पत्रकार कुलदीप नैय्यर की हाल ही में आई पुस्तक बियांड द लाइन्स में उन्होंने लिखा है कि जब दोनों तरफ की हताश आबादी दूसरी तरफ जा रही थी तो उनकी पीड़ा का वर्णन तक नहीं किया जा सकता था। हो सकता है कि लालकृष्ण आडवाणी को आम लोगों की तरह वैसी पीड़ा झेलते हुए भारत नहीं आना पड़ा हो। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि अपनी जड़ों से कटने का दर्द उन्हें नहीं हुआ होगा। इसलिए राजनीतिक तौर पर ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक तौर पर भी ऐसे बयानों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

Thursday, January 24, 2013

मानसिकता पर वार जरूरी



उमेश चतुर्वेदी
(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित)
2002 की फरवरी की बात है..महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में अरब सागर के किनारे स्थित  मशहूर गुप्त गणेश मंदिर और कोंकण रेलवे की कारबुज सुरंग के उपरी हिस्से को देखकर जिला मुख्यालय लौटते वक्त रात के करीब दस बज रहे थे। वहां सड़कों के किनारे लड़कियां बसों और टेंपों के इंतजार में बेफिक्र खड़ी थीं। दिल्ली में रहते वक्त ऐसे दृश्य कम ही नजर आते हैं...लिहाजा इन पंक्तियों के लेखक के लिए धुर देहात के बीच लड़कियों को इस तरह बेखौफ गाड़ी के इंतजार में रात को खड़ा देखना हैरत की बात थी।

Saturday, January 12, 2013

मुगलिया शहर में गाड़ी बिना रात

उमेश चतुर्वेदी
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
कामधाम के चलते देर रात तक जागना अब महानगरीय जिंदगी में आधुनिकता का पैमाना बन गया है। पहले सिर्फ मुंबई की ही रातें अपनी जवानी के लिए मशहूर थीं, लेकिन अब दिल्ली-बेंगलुरू जैसे शहर भी इस मायने में मुंबई से आगे निकलने की होड़ में लग गए हैं। खासकर मेट्रो के आने के बाद तो दिल्ली भी इतराने लगी है कि कम से कम आधी रात तक वह शहर की लाइफ लाइन बनी रहती है। लेकिन उसका यह दावा कितना खोखला है, इसका पता मुझे पिछले दिनों चला। अपनी गाड़ी दो-तीन दिनों के लिए मैकेनिक घर में सुस्ताने पहुंची थी, लेकिन मन आश्वस्त था कि मेट्रो है और उसका दावा है कि ग्यारह बजे रात को आखिरी गाड़ी मिलती है तो परेशानी काहे की।

Sunday, December 30, 2012

दिखने लगे आर्थिक उदारीकरण के साइड इफेक्ट



उमेश चतुर्वेदी
उदारीकरण के दौर में जब भी कोई नया फैसला लिया जाता है, सरकार का एक ही दावा होता है इससे नए रोजगार पैदा होंगे और इससे बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा। लेकिन उदारीकरण की योजनाओं को लागू करने के लिए बढ़-चढ़कर किए जाने वाले दावों की पोल भी खुलने लगी है। इन दावों को खारिज करने और उन पर सवाल कुछ सामाजिक संगठन और अर्थशास्त्री उठाते रहे हैं। लेकिन नई आर्थिकी के सरकारी पैरोकार इन सवालों को अनसुना करते रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि नई आर्थिकी के बड़े पैरोकार मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अगुआई वाले योजना आयोग ने भी मान लिया है कि यूपीए के शुरूआती छह साल के शासन काल में अकेले विनिर्माण क्षेत्र में ही करीब पचास लाख नौकरियां खत्म हो गईं। योजना आयोग के आंकड़े के मुताबिक यूपीए शासन के पहले विनिर्माण क्षेत्र में करीब पांच करोड़ 57 लाख नौकरियां थीं, वे 2004 से 2010 के बीच घटकर महज पांच करोड़ सात लाख ही रह गईं। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि यूपीए दो की वापसी में जिस यूपीए एक की कामयाबियों का ढिंढोरा पीटा गया, दरअसल ये नौकरियां उसी दौर में खत्म हुईं। ध्यान देने वाली एक बात और है कि इसी दौर में आठ से लेकर साढ़े आठ फीसदी तक की विकास दर का दावा रहा है।

Tuesday, December 25, 2012

टूजी पर यूटर्न के निहितार्थ



(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित)
उमेश चतुर्वेदी
राजनीतिक नेतृत्व से इतर ब्यूरोक्रेसी से हमेशा उम्मीद की जाती है कि वह ठोस और मुद्दों पर केंद्रित सवालों को ही छुएगी। जनपक्षधरता से कटे होने जैसे कई आरोपों के बावजूद अगर ब्यूरोक्रेसी पर राजनीति की बनिस्बत ज्यादा भरोसा किया जाता है तो इसकी बड़ी वजह यही कारण भी है। लेकिन टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन के दौरान घोटाले का बढ़ा-चढ़ाकर आकलन करने और उसके पीछे लोकलेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के हाथ का आरोप लगाने के मामले में पूर्व ब्यूरोक्रेट आर पी सिंह ने जिस तरह से यू टर्न लिया है, उससे ब्यूरोक्रेसी पर अब तक बरकरार रहे भरोसे में दरार जरूर पड़ गई है। यह बात और है कि आर पी सिंह अगले ही दिन एक बार फिर अपने पुराने रूख पर लौट आए। उनके इस रवैये से जाहिर है कि उनकी बयानबाजी और टूजी को लेकर उठे विवाद के बीच दाल में काला कहीं ना कहीं जरूर है।

Friday, December 21, 2012

सार्वजनिक परिवहन के चरित्र को बदलो


राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित
उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली में झकझोर देने वाली बलात्कार की घटना को सिर्फ मानसिकता से ही जोड़कर देखा जा रहा है। इसका दूसरा पहलू कानून-व्यवस्था से जुड़ा मामला भी है। लेकिन यह कानून-व्यवस्था से भी आगे सामाजिकता और सार्वजनिक परिवहन के चारित्रीकरण का भी मामला है।सभ्य समाज में सार्वजनिक परिवहन कैसा होना चाहिए, उसे संभालने और चलाने वाले कैसे होने चाहिए और क्या उसका भी सभ्य चरित्र होना चाहिए, दुर्भाग्यवश इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। सार्वजनिक परिवहन में बलात्कार निश्चित रूप से गंभीर और संगीन मसला है। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि जब सार्वजनिक परिवहन का कोई चारित्रीकरण नहीं होता तो उसमें चारित्रिक पतन की शुरूआत यात्रियों से बदसलूकी से शुरू होती है और बात छेड़खानी, छिनैती-झपटैती से आगे बढ़ते हुए बलात्कार तक जा पहुंचती है।

Wednesday, December 19, 2012

महासमर में मोदी और कांग्रेस

(यह पहले ही लिखा गया था..लेकिन अखबारों में जगह हासिल नहीं कर पाया)

उमेश चतुर्वेदी
2001 में गुजरात की सत्ता संभालने के बाद नरेंद्र मोदी का यह तीसरा समर था और संभवत: सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण भी। ऐसे माहौल में जब उन्हें प्रधानमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदार के तौर पर देखा जा रहा हो, कायदे से यह चुनाव उनके लिए सबसे ज्यादा आसान होना चाहिए था। फिर वे उत्तर प्रदेश के किसी नेता की तरह की प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं, जहां कई लोग पहले ही प्रधानमंत्रित्व संभाल चुके हैं। गुजरात की माटी के वे पहले बेटे हैं, जिन्हें कायदे से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा है।

क्या गुल खिलाएगा गुजरात में भारी मतदान



(यह पहले ही लिखा गया था..लेकिन अखबारों में जगह हासिल नहीं कर पाया)
उमेश चतुर्वेदी
गुजरात में पहले दौर में रिकॉर्ड 70.74 फीसदी मतदान ने राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया है। बिहार के पिछले विधानसभा चुनावों से पहले रिकॉर्ड वोटिंग का मतलब माना जाता था कि सरकार के खिलाफ नाराज वोटरों ने सरकार के खिलाफ जोरशोर से वोट डाला है। लेकिन बिहार के विधानसभा चुनावों में भारी मतदान का मतलब ठीक उलट रहा। वहां के वोटरों ने भारी मतदान के साथ नीतीश सरकार के कामकाज पर एक तरह से मुहर ही लगाई।

Saturday, December 15, 2012

आगत की चिंता



उमेश चतुर्वेदी
लखनऊ से प्रकाशित समकालीन सरोकार में प्रकाशित....आत्मकथ्य वहां प्रकाशित नहीं हुआ है..
आत्मकथ्य:
आगत की राजनीतिक मीमांसा निश्चित तौर पर विगत की नींव पर खड़ी होती है। ऐसे में सवाल यह उठना स्वाभाविक है कि आखिर भावी राजनीतिक पूर्वानुमान ज्यादातर ध्वस्त क्यों हो जाते हैं? चूंकि ज्यादातर राजनीतिक पूर्वानुमानों में ईमानदारी की सुगंध कम होती है, अपने आग्रह और पूर्वाग्रह मीमांसकों के अपने व्यक्तित्व पर हावी हो जाते हैं। बेशक यह मानव स्वभाव है, लिहाजा इससे बचने की उम्मीद पालना भी कई लोगों को बेकार लगता है। लेकिन कालजयी रचनाधर्मिता और पत्रकारिता इस मानव स्वभाव से उपर उठने के बाद ही सामने आती है। भीड़तंत्र को मानवीय आग्रह जितना आकर्षित करते हैं, कालजयी शख्सियतों को वे उतने ही निर्विकार रहने को मजबूर करते हैं। ऐसे ही वक्त में प्रख्यात पत्रकार राजेंद्र माथुर की बातें याद आती हैं। उनका कहना था कि पत्रकार संजय की तरह सिर्फ और सिर्फ दर्शक होता है और उसका काम घटनाओं को रिपोर्ट भर कर देना होता है।

Wednesday, December 12, 2012

सौ नंबर के गुनाह



उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली पुलिस का एक नारा है- दिल्ली पुलिस सदा आपके साथ। दिल्ली पुलिस का यह सूक्त वाक्य गली-चौराहों और आए दिन अखबारों में साया होने वाले विज्ञापनों के बावजूद जनता में क्यों नहीं पैठ बना पाया है...इसका अनुभव आखिरकार पिछले दिनों हो ही गया। उसी दिन समझ में आया कि राह चलते घायलों को देखने के बाद मददगार भावों के बावजूद दिल्ली का नागरिक क्यों सौ नंबर पर फोन करने से बचता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के बगल से गुजरते वक्त एक दिन शाम को सड़क पर दूर से ही नजर आई भीड़ ने बता दिया कि वहां कोई अनहोनी हो गई है। नजदीक जाने पर भयावह नजारा था।

Thursday, November 22, 2012

बहुसदस्यीय कैग का करें स्वागत



उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हो चुका है)
लगता है ठीक 1993 की तरह एक बार फिर कांग्रेस सरकार इतिहास दोहराने जा रही है। एक और संवैधानिक संस्था को वह बहुसदस्यीय बनाने की तैयारी में है। पिछली बार वह विपक्ष के दबाव में ऐसा करने को मजबूर हुई थी, संयोगवश उस वक्त के प्रधानमंत्री को भी विपक्ष और मीडिया मौनी बाबा कहता था। आज के भी प्रधानमंत्री को विपक्ष इसी उपाधि से नवाजता है। प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायण सामी तो यही कह रहे हैं कि अब सरकार भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग के पद को चुनाव आयोग की तरह बहुसदस्यीय बनाने जा रही है। जब 1993 में चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाने की जब विपक्ष ने मांग रखी थी तो उस वक्त तब के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की अति सक्रियता इसकी वजह बनी थी। तब दिलचस्प यह है कि शेषन से विपक्ष नाराज और परेशान था और उस वक्त शेषन से उसे बचाव चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाने में ही नजर आता था। लेकिन इस बार हालात बदले हुए हैं। मौजूदा नियंत्रक और महालेखापरीक्षक विनोद राय से विपक्ष को नहीं, सरकार को परेशानी महसूस हो रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कैग को बहुसदस्यीय बनाने के बाद उनसे जो मौजूदा शिकायतें दूर हो जाएंगी।

Wednesday, November 7, 2012

बिहार में गठबंधन के अंतर्विरोध



उमेश चतुर्वेदी
2010 में भारी बहुमत के बाद पाटलिपुत्र की गद्दी पर नीतीश की वापसी के बाद यह तय हो गया था कि संख्या बल के लिहाज से बेहतर स्थिति में आने के बावजूद गठबंधन में सबकुछ ठीक नहीं चलने वाला है। हालांकि विचारों और पत्रकारिता की अपनी दुनिया में ऐसी चर्चाएं और आशंकाएं करने की परिपाटी नहीं रही है। इसलिए ऐसी चर्चाओं और आशंकाओं को सिरे से नकार दिया जाता है। नीतीश और बीजेपी के बिहार के गठबंधन को लेकर भी जब 2010 में ऐसी कोई आशंका जताने की कोशिश शुरू हुई, उसे राजनीतिक पंडितों ने नकारने में देर नहीं लगाई थी। लेकिन महज दो साल की यात्रा के बाद ही वे आशंकाएं उठने लगी हैं।

Saturday, November 3, 2012

अन्ना को वीके का साथ



उमेश चतुर्वेदी
क्या भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कामयाबी या फिर एक खास स्तर तक चर्चा के लिए व्यवस्था तंत्र का में काम कर चुका बड़ा और नामी नुमाइंदा होना जरूरी है...अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के लिए पहले जो भूमिका व्यवस्था तंत्र से बाहर निकले अरविंद केजरीवाल निभा रहे थे, लगता है अन्ना के साथ उसी जिम्मेदारी को संभालने पूर्व सेनाध्यक्ष वीके सिंह आ गए हैं। अन्ना के साथ आते ही उन्होंने मौजूदा लोकसभा को भंग करने की जोरदार मांग करके अपनी दमदार मौजूदगी जताने की कोशिश भी कर दी है।

ताकि बनी रहे नजरों की धार



उमेश चतुर्वेदी
अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे की सक्रियता के दौर में जिस तरह रोजाना घपले-घोटाले की खबरें सामने आ रही हैं, राज्यों के लोकायुक्तों की पुलिस मामूली से समझे जाने वाले कर्मचारियों से करोड़ों की संपत्ति बरामद कर रही हैं...ऐसे में लगता तो यही है कि हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं, जहां नैतिक आचरण की कोई अहमियत नहीं रह गई है। ऐसे में अगर भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाले सबसे बड़ी वैधानिक संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग के प्रमुख प्रदीप कुमार नैतिक शिक्षा की वकालत करें तो हमें हैरत नहीं होनी चाहिए।

सोशल मीडिया की लत



उमेश चतुर्वेदी
सूचना तकनीक के मौजूदा हथियारों मसलन मोबाइल फोन, कंप्यूटर, इंटरनेट और सोशल मीडिया के आने के पहले तक चौराहे और चौपाल पर सुबह-शाम लगने वाली गप्प गोष्ठियां रोजाना घरेलू कलह की वजह बनती रही हैं। लेकिन बतरस की लत ही ऐसी थी कि बड़े-बड़े सूरमा तक इसमें डूबने में ही आनंद पाते रहे हैं। कुछ ऐसी ही हालत बदले दौर में बतरस का अड्डा बने सोशल मीडिया का भी है। अब लोग इसमें इतना डूब जाते हैं कि उन्हें दुनिया-जहान की परवाह ही नहीं रहती। इसमें सबसे ज्यादा बाजी मार ली है फेसबुक ने।

सुबह सवेरे में