Thursday, February 14, 2013

राहुल की चुनौतियां


उमेश चतुर्वेदी
(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित )
जयपुर चिंतन बैठक में पार्टी के औपचारिक तौर पर नंबर दो बनने के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह बैठकों का दौर शुरू कर दिया है, उससे साफ है कि पार्टी में भले ही औपचारिक तौर पर वे नंबर दो हैं, लेकिन असलियत में वे नंबर एक बनने की प्रक्रिया का एक सोपान पार कर चुके हैं। यह प्रक्रिया कांग्रेस मुख्यालय में 24 जनवरी को नजर आयी, जब उपाध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी पहली बार वहां पहुंचे। नीली जींस और सफेद कुर्ते में पहुंचे राहुल के इस पहनावे में भी कांग्रेस की भावी संस्कृति और कदमों के संकेत देखे गए। माना गया कि राहुल की कांग्रेस आग और अनुभव का मेल होगी। अपनी नई टीम बनाने के लिए उन्होंने जिस तरह बैठकों का दौर जारी रखा है, उससे अभी तक कोई साफ संकेत तो नहीं निकले हैं। ना ही राहुल गांधी ने अपनी जुबान खोली है। लेकिन यह तय है कि उनकी टीम अनुभव की उतनी ही आंच होगी, जितना नई आग को सुलगाने में उसकी भूमिका होगी।

Friday, February 8, 2013

बयानों के तीर


उमेश चतुर्वेदी
(दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित)
भारत के सदियों के इतिहास में भारत विभाजन सबसे बड़ा त्रासद अनुभव है...विभाजन की विभीषिका झेल चुकी पीढ़ी अब खत्म होने के कगार पर है। लेकिन उसकी पीड़ा बाद की पीढ़ी के खून तक में समा चुकी है। कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद के लालकृष्ण आडवाणी के बयान को सिर्फ राजनीति के चश्मे से ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उसे भारत विभाजन की उस त्रासदी से जोड़कर देखा जाना चाहिए, जिसकी कीमत आज तक सीमा पार की एक ही तरह की सभ्यताएं भुगत रही हैं। लालकृष्ण आडवाणी रहे हों या इंद्रकुमार गुजराल या फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, इन लोगों ने भारत की तरफ रूख इसलिए नहीं किया था कि उन्हें यहां सत्ता मिलेगी। भारत विभाजन के बाद हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जो गहरा अविश्वासबोध फैला था, लाखों लोगों को अपनी बसी बसाई गृहस्थी, पीढ़ियों की खून पसीने की कमाई समेत अपना सबकुछ खो दिया था। इस त्रासदी को लेकर इतिहास के हजारों पन्ने रंगे जा चुके हैं। मशहूर पत्रकार कुलदीप नैय्यर की हाल ही में आई पुस्तक बियांड द लाइन्स में उन्होंने लिखा है कि जब दोनों तरफ की हताश आबादी दूसरी तरफ जा रही थी तो उनकी पीड़ा का वर्णन तक नहीं किया जा सकता था। हो सकता है कि लालकृष्ण आडवाणी को आम लोगों की तरह वैसी पीड़ा झेलते हुए भारत नहीं आना पड़ा हो। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि अपनी जड़ों से कटने का दर्द उन्हें नहीं हुआ होगा। इसलिए राजनीतिक तौर पर ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक तौर पर भी ऐसे बयानों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

Thursday, January 24, 2013

मानसिकता पर वार जरूरी



उमेश चतुर्वेदी
(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित)
2002 की फरवरी की बात है..महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में अरब सागर के किनारे स्थित  मशहूर गुप्त गणेश मंदिर और कोंकण रेलवे की कारबुज सुरंग के उपरी हिस्से को देखकर जिला मुख्यालय लौटते वक्त रात के करीब दस बज रहे थे। वहां सड़कों के किनारे लड़कियां बसों और टेंपों के इंतजार में बेफिक्र खड़ी थीं। दिल्ली में रहते वक्त ऐसे दृश्य कम ही नजर आते हैं...लिहाजा इन पंक्तियों के लेखक के लिए धुर देहात के बीच लड़कियों को इस तरह बेखौफ गाड़ी के इंतजार में रात को खड़ा देखना हैरत की बात थी।

Saturday, January 12, 2013

मुगलिया शहर में गाड़ी बिना रात

उमेश चतुर्वेदी
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
कामधाम के चलते देर रात तक जागना अब महानगरीय जिंदगी में आधुनिकता का पैमाना बन गया है। पहले सिर्फ मुंबई की ही रातें अपनी जवानी के लिए मशहूर थीं, लेकिन अब दिल्ली-बेंगलुरू जैसे शहर भी इस मायने में मुंबई से आगे निकलने की होड़ में लग गए हैं। खासकर मेट्रो के आने के बाद तो दिल्ली भी इतराने लगी है कि कम से कम आधी रात तक वह शहर की लाइफ लाइन बनी रहती है। लेकिन उसका यह दावा कितना खोखला है, इसका पता मुझे पिछले दिनों चला। अपनी गाड़ी दो-तीन दिनों के लिए मैकेनिक घर में सुस्ताने पहुंची थी, लेकिन मन आश्वस्त था कि मेट्रो है और उसका दावा है कि ग्यारह बजे रात को आखिरी गाड़ी मिलती है तो परेशानी काहे की।

Sunday, December 30, 2012

दिखने लगे आर्थिक उदारीकरण के साइड इफेक्ट



उमेश चतुर्वेदी
उदारीकरण के दौर में जब भी कोई नया फैसला लिया जाता है, सरकार का एक ही दावा होता है इससे नए रोजगार पैदा होंगे और इससे बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा। लेकिन उदारीकरण की योजनाओं को लागू करने के लिए बढ़-चढ़कर किए जाने वाले दावों की पोल भी खुलने लगी है। इन दावों को खारिज करने और उन पर सवाल कुछ सामाजिक संगठन और अर्थशास्त्री उठाते रहे हैं। लेकिन नई आर्थिकी के सरकारी पैरोकार इन सवालों को अनसुना करते रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि नई आर्थिकी के बड़े पैरोकार मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अगुआई वाले योजना आयोग ने भी मान लिया है कि यूपीए के शुरूआती छह साल के शासन काल में अकेले विनिर्माण क्षेत्र में ही करीब पचास लाख नौकरियां खत्म हो गईं। योजना आयोग के आंकड़े के मुताबिक यूपीए शासन के पहले विनिर्माण क्षेत्र में करीब पांच करोड़ 57 लाख नौकरियां थीं, वे 2004 से 2010 के बीच घटकर महज पांच करोड़ सात लाख ही रह गईं। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि यूपीए दो की वापसी में जिस यूपीए एक की कामयाबियों का ढिंढोरा पीटा गया, दरअसल ये नौकरियां उसी दौर में खत्म हुईं। ध्यान देने वाली एक बात और है कि इसी दौर में आठ से लेकर साढ़े आठ फीसदी तक की विकास दर का दावा रहा है।

Tuesday, December 25, 2012

टूजी पर यूटर्न के निहितार्थ



(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित)
उमेश चतुर्वेदी
राजनीतिक नेतृत्व से इतर ब्यूरोक्रेसी से हमेशा उम्मीद की जाती है कि वह ठोस और मुद्दों पर केंद्रित सवालों को ही छुएगी। जनपक्षधरता से कटे होने जैसे कई आरोपों के बावजूद अगर ब्यूरोक्रेसी पर राजनीति की बनिस्बत ज्यादा भरोसा किया जाता है तो इसकी बड़ी वजह यही कारण भी है। लेकिन टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन के दौरान घोटाले का बढ़ा-चढ़ाकर आकलन करने और उसके पीछे लोकलेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के हाथ का आरोप लगाने के मामले में पूर्व ब्यूरोक्रेट आर पी सिंह ने जिस तरह से यू टर्न लिया है, उससे ब्यूरोक्रेसी पर अब तक बरकरार रहे भरोसे में दरार जरूर पड़ गई है। यह बात और है कि आर पी सिंह अगले ही दिन एक बार फिर अपने पुराने रूख पर लौट आए। उनके इस रवैये से जाहिर है कि उनकी बयानबाजी और टूजी को लेकर उठे विवाद के बीच दाल में काला कहीं ना कहीं जरूर है।

Friday, December 21, 2012

सार्वजनिक परिवहन के चरित्र को बदलो


राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित
उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली में झकझोर देने वाली बलात्कार की घटना को सिर्फ मानसिकता से ही जोड़कर देखा जा रहा है। इसका दूसरा पहलू कानून-व्यवस्था से जुड़ा मामला भी है। लेकिन यह कानून-व्यवस्था से भी आगे सामाजिकता और सार्वजनिक परिवहन के चारित्रीकरण का भी मामला है।सभ्य समाज में सार्वजनिक परिवहन कैसा होना चाहिए, उसे संभालने और चलाने वाले कैसे होने चाहिए और क्या उसका भी सभ्य चरित्र होना चाहिए, दुर्भाग्यवश इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। सार्वजनिक परिवहन में बलात्कार निश्चित रूप से गंभीर और संगीन मसला है। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि जब सार्वजनिक परिवहन का कोई चारित्रीकरण नहीं होता तो उसमें चारित्रिक पतन की शुरूआत यात्रियों से बदसलूकी से शुरू होती है और बात छेड़खानी, छिनैती-झपटैती से आगे बढ़ते हुए बलात्कार तक जा पहुंचती है।

Wednesday, December 19, 2012

महासमर में मोदी और कांग्रेस

(यह पहले ही लिखा गया था..लेकिन अखबारों में जगह हासिल नहीं कर पाया)

उमेश चतुर्वेदी
2001 में गुजरात की सत्ता संभालने के बाद नरेंद्र मोदी का यह तीसरा समर था और संभवत: सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण भी। ऐसे माहौल में जब उन्हें प्रधानमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदार के तौर पर देखा जा रहा हो, कायदे से यह चुनाव उनके लिए सबसे ज्यादा आसान होना चाहिए था। फिर वे उत्तर प्रदेश के किसी नेता की तरह की प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं, जहां कई लोग पहले ही प्रधानमंत्रित्व संभाल चुके हैं। गुजरात की माटी के वे पहले बेटे हैं, जिन्हें कायदे से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर देखा जा रहा है।

क्या गुल खिलाएगा गुजरात में भारी मतदान



(यह पहले ही लिखा गया था..लेकिन अखबारों में जगह हासिल नहीं कर पाया)
उमेश चतुर्वेदी
गुजरात में पहले दौर में रिकॉर्ड 70.74 फीसदी मतदान ने राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया है। बिहार के पिछले विधानसभा चुनावों से पहले रिकॉर्ड वोटिंग का मतलब माना जाता था कि सरकार के खिलाफ नाराज वोटरों ने सरकार के खिलाफ जोरशोर से वोट डाला है। लेकिन बिहार के विधानसभा चुनावों में भारी मतदान का मतलब ठीक उलट रहा। वहां के वोटरों ने भारी मतदान के साथ नीतीश सरकार के कामकाज पर एक तरह से मुहर ही लगाई।

Saturday, December 15, 2012

आगत की चिंता



उमेश चतुर्वेदी
लखनऊ से प्रकाशित समकालीन सरोकार में प्रकाशित....आत्मकथ्य वहां प्रकाशित नहीं हुआ है..
आत्मकथ्य:
आगत की राजनीतिक मीमांसा निश्चित तौर पर विगत की नींव पर खड़ी होती है। ऐसे में सवाल यह उठना स्वाभाविक है कि आखिर भावी राजनीतिक पूर्वानुमान ज्यादातर ध्वस्त क्यों हो जाते हैं? चूंकि ज्यादातर राजनीतिक पूर्वानुमानों में ईमानदारी की सुगंध कम होती है, अपने आग्रह और पूर्वाग्रह मीमांसकों के अपने व्यक्तित्व पर हावी हो जाते हैं। बेशक यह मानव स्वभाव है, लिहाजा इससे बचने की उम्मीद पालना भी कई लोगों को बेकार लगता है। लेकिन कालजयी रचनाधर्मिता और पत्रकारिता इस मानव स्वभाव से उपर उठने के बाद ही सामने आती है। भीड़तंत्र को मानवीय आग्रह जितना आकर्षित करते हैं, कालजयी शख्सियतों को वे उतने ही निर्विकार रहने को मजबूर करते हैं। ऐसे ही वक्त में प्रख्यात पत्रकार राजेंद्र माथुर की बातें याद आती हैं। उनका कहना था कि पत्रकार संजय की तरह सिर्फ और सिर्फ दर्शक होता है और उसका काम घटनाओं को रिपोर्ट भर कर देना होता है।

Wednesday, December 12, 2012

सौ नंबर के गुनाह



उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली पुलिस का एक नारा है- दिल्ली पुलिस सदा आपके साथ। दिल्ली पुलिस का यह सूक्त वाक्य गली-चौराहों और आए दिन अखबारों में साया होने वाले विज्ञापनों के बावजूद जनता में क्यों नहीं पैठ बना पाया है...इसका अनुभव आखिरकार पिछले दिनों हो ही गया। उसी दिन समझ में आया कि राह चलते घायलों को देखने के बाद मददगार भावों के बावजूद दिल्ली का नागरिक क्यों सौ नंबर पर फोन करने से बचता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के बगल से गुजरते वक्त एक दिन शाम को सड़क पर दूर से ही नजर आई भीड़ ने बता दिया कि वहां कोई अनहोनी हो गई है। नजदीक जाने पर भयावह नजारा था।

Thursday, November 22, 2012

बहुसदस्यीय कैग का करें स्वागत



उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हो चुका है)
लगता है ठीक 1993 की तरह एक बार फिर कांग्रेस सरकार इतिहास दोहराने जा रही है। एक और संवैधानिक संस्था को वह बहुसदस्यीय बनाने की तैयारी में है। पिछली बार वह विपक्ष के दबाव में ऐसा करने को मजबूर हुई थी, संयोगवश उस वक्त के प्रधानमंत्री को भी विपक्ष और मीडिया मौनी बाबा कहता था। आज के भी प्रधानमंत्री को विपक्ष इसी उपाधि से नवाजता है। प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायण सामी तो यही कह रहे हैं कि अब सरकार भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग के पद को चुनाव आयोग की तरह बहुसदस्यीय बनाने जा रही है। जब 1993 में चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाने की जब विपक्ष ने मांग रखी थी तो उस वक्त तब के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की अति सक्रियता इसकी वजह बनी थी। तब दिलचस्प यह है कि शेषन से विपक्ष नाराज और परेशान था और उस वक्त शेषन से उसे बचाव चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाने में ही नजर आता था। लेकिन इस बार हालात बदले हुए हैं। मौजूदा नियंत्रक और महालेखापरीक्षक विनोद राय से विपक्ष को नहीं, सरकार को परेशानी महसूस हो रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कैग को बहुसदस्यीय बनाने के बाद उनसे जो मौजूदा शिकायतें दूर हो जाएंगी।

Wednesday, November 7, 2012

बिहार में गठबंधन के अंतर्विरोध



उमेश चतुर्वेदी
2010 में भारी बहुमत के बाद पाटलिपुत्र की गद्दी पर नीतीश की वापसी के बाद यह तय हो गया था कि संख्या बल के लिहाज से बेहतर स्थिति में आने के बावजूद गठबंधन में सबकुछ ठीक नहीं चलने वाला है। हालांकि विचारों और पत्रकारिता की अपनी दुनिया में ऐसी चर्चाएं और आशंकाएं करने की परिपाटी नहीं रही है। इसलिए ऐसी चर्चाओं और आशंकाओं को सिरे से नकार दिया जाता है। नीतीश और बीजेपी के बिहार के गठबंधन को लेकर भी जब 2010 में ऐसी कोई आशंका जताने की कोशिश शुरू हुई, उसे राजनीतिक पंडितों ने नकारने में देर नहीं लगाई थी। लेकिन महज दो साल की यात्रा के बाद ही वे आशंकाएं उठने लगी हैं।

Saturday, November 3, 2012

अन्ना को वीके का साथ



उमेश चतुर्वेदी
क्या भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कामयाबी या फिर एक खास स्तर तक चर्चा के लिए व्यवस्था तंत्र का में काम कर चुका बड़ा और नामी नुमाइंदा होना जरूरी है...अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के लिए पहले जो भूमिका व्यवस्था तंत्र से बाहर निकले अरविंद केजरीवाल निभा रहे थे, लगता है अन्ना के साथ उसी जिम्मेदारी को संभालने पूर्व सेनाध्यक्ष वीके सिंह आ गए हैं। अन्ना के साथ आते ही उन्होंने मौजूदा लोकसभा को भंग करने की जोरदार मांग करके अपनी दमदार मौजूदगी जताने की कोशिश भी कर दी है।

ताकि बनी रहे नजरों की धार



उमेश चतुर्वेदी
अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे की सक्रियता के दौर में जिस तरह रोजाना घपले-घोटाले की खबरें सामने आ रही हैं, राज्यों के लोकायुक्तों की पुलिस मामूली से समझे जाने वाले कर्मचारियों से करोड़ों की संपत्ति बरामद कर रही हैं...ऐसे में लगता तो यही है कि हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं, जहां नैतिक आचरण की कोई अहमियत नहीं रह गई है। ऐसे में अगर भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाले सबसे बड़ी वैधानिक संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग के प्रमुख प्रदीप कुमार नैतिक शिक्षा की वकालत करें तो हमें हैरत नहीं होनी चाहिए।

सोशल मीडिया की लत



उमेश चतुर्वेदी
सूचना तकनीक के मौजूदा हथियारों मसलन मोबाइल फोन, कंप्यूटर, इंटरनेट और सोशल मीडिया के आने के पहले तक चौराहे और चौपाल पर सुबह-शाम लगने वाली गप्प गोष्ठियां रोजाना घरेलू कलह की वजह बनती रही हैं। लेकिन बतरस की लत ही ऐसी थी कि बड़े-बड़े सूरमा तक इसमें डूबने में ही आनंद पाते रहे हैं। कुछ ऐसी ही हालत बदले दौर में बतरस का अड्डा बने सोशल मीडिया का भी है। अब लोग इसमें इतना डूब जाते हैं कि उन्हें दुनिया-जहान की परवाह ही नहीं रहती। इसमें सबसे ज्यादा बाजी मार ली है फेसबुक ने।

Monday, October 8, 2012

क्या किसान समर्थक होंगे भूमि सुधार



उमेश चतुर्वेदी
भारत में इन दिनों भूमि अधिग्रहणों के खिलाफ कम से कम 1700 आंदोलन हो रहे हैं। निश्चित तौर पर इनमें से सभी आंदोलनों के साध्य और साधन सही नहीं है। यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि इन आंदोलनों में सबके लक्ष्य भी सही नहीं होंगे। इसके बावजूद अगर पूरे देश में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ इतने आंदोलन चल रहे हैं तो यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि उदारीकरण के दौर में लगातार आगे बढ़ रही नव आर्थिकी के लिए हो रहे भूमि अधिग्रहण में कहीं न कहीं कोई खोट अवश्य है। इस खोट की तरफ ध्यान दिलाने के लिए गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े रहे गांधीवादी कार्यकर्ता और भारतीय एकता परिषद के अध्यक्ष पी वी राजगोपाल पिछले एक साल से लगातार देशव्यापी यात्रा पर हैं। दो अक्टूबर 2011 को शुरू हुई उनकी यात्रा का समापन दिल्ली में इस साल दो अक्टूबर को होना था। इस यात्रा में एक लाख लोगों को दिल्ली पहुंचना था। यात्रा के आखिरी दौर में ग्वालियर से एक लाख लोगों की यात्रा का दिल्ली आना कम बड़ी बात नहीं है। वहां से दिल्ली के लिए कूच भी कर चुके हैं। देशभर के भूमिहीन और मेहनतकश आदिवासी और दूसरे तबके के लोगों की एक लाख की संख्या जुट जाना भी कम बड़ी बात नहीं है। पीवी राजगोपाल अपनी इन्हीं मांगों को लेकर 2007 में 25 हजार लोगों को दिल्ली लाकर उदारीकरण के दौर के भूमि सुधारों पर रोष जता चुके हैं।

तेलंगाना की आग के पीछे का अंधेरा



उमेश चतुर्वेदी
आंध्र में सत्ता के बदलाव को लेकर ना तो बहुत ज्यादा शोरगुल है और ना ही आपाधापी..लेकिन कांग्रेस के अंदरूनी गलियारों में मुख्यमंत्री एन किरण रेड्डी को हटाने की चर्चाएं जारी हैं। इन चर्चाओं के बीच आंध्र प्रदेश की गद्दी पर समाजवाद के पुराने अलंबरदार रहे पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी की ताजपोशी की खुसर-पुसर भी जारी है। कांग्रेस की राजनीति पर पैनी निगाह रखने वालों को पता है कि इसका मतलब मुख्यमंत्री एन किरण रेड्डी की दिल्ली दरबार में हैसियत और प्रभाव कम हो रहा है। इस बीच अगर तेलंगाना को लेकर हिंसक आंदोलन बेशक प्रशासनिक तौर पर किरण रेड्डी के लिए परेशानी का सबब बनकर आया हो, लेकिन यह सच है कि इस बहाने उनकी गद्दी फिलहाल बचती नजर आ रही है। ऐसे हालात में कांग्रेस आलाकमान शायद ही राज्य नेतृत्व को बदलने की गलती कर सकता है। लेकिन सवाल यह है कि आखिर तेलंगाना की आग को भड़काने के लिए गांधी जयंती के आसपास का ही वक्त क्यों चुना गया।

Sunday, September 30, 2012

उमा बनाम ममता



उमेश चतुर्वेदी
डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी और खुदरा में विदेशी निवेश के खिलाफ ममता बनर्जी की मोर्चे बंदी ने उन्हें कम से कम विपक्ष की राजनीति करने वालों का नायक जरूर बना दिया है। लेकिन विपक्ष में एक ऐसी भी शख्सीयत है, जिसे आम आदमी के साथ खड़ी नजर आ रहीं ममता बनर्जी से नाराज है। भारतीय जनता पार्टी की नेता उमा भारती की गंगा समग्र यात्रा में ममता बनर्जी की सरकार ने सहयोग देने से इनकार कर दिया है। इसे लेकर दोनों के बीच टकराव बढ़ गया है। गंगा बचाने को लेकर उमा भारती ने 21 सितंबर से गंगोत्री से गंगा समग्र यात्रा शुरू कर दी है।

Tuesday, September 25, 2012

किस समाज की बात करता है जेएनयू



उमेश चतुर्वेदी
सभ्य समाज में खासकर उच्च शिक्षा के संस्थानों में ऐसे मूल्यों की उम्मीद की जाती है, जो अपने समाज को नई रोशनी दिखाते हुए बंद समाज के लिए प्रगति की राह खोल सके। ऐसा तभी हो सकता है, जब शैक्षिक संस्थान समाज सापेक्ष विचार रखे। लेकिन क्या दिल्ली के सर्वाधिक सुविधा और स्वायत्तता संपन्न जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय इन कसौटियों पर कसा  जा सकता है। निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में ही दिया जा सकता है। प्रगतिशीलता की एक निशानी समाज सापेक्ष विचारों को बढ़ावा देने के साथ ही असहिष्णुता की भावना को भी बढ़ावा देने वाली होनी चाहिए। लेकिन जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय का छात्र समुदाय इसके ठीक उलट व्यवहार करता नजर आता है।(दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित...)

Tuesday, September 18, 2012

चिंता से परे है हिंदी का मामला
राजकिशोर
हिंदी का रुतबा घट रहा है क्योंकि जो दुनिया को समझने और अपने को व्यक्त करने के लिए हिंदी बोलते या लिखते हैं, उनका रुतबा कम हो रहा है। पचास साल बाद हिंदी सिर्फ आर्थिक दृष्टि से अविकसित लोगों की भाषा रह जाएगी। वे कौन होंगे जो अविकसित रह जाएंगे? वही, जिनकी कीमत पर व्यवस्था एक छोटे-से वर्ग का श्रृंगार करती आई है
कुछ हैं, जो खुश हैं कि हिंदी आगे बढ़ रही है। हिंदी के अखबार बढ़ रहे हैं। कई ऐसे शहर हैं, जहां से हिंदी के चार-पांच अखबार निकलते हैं और वे सभी कमोबेश बिक जाते हैं।

Monday, September 10, 2012

राजनीति का खेल और पदोन्नति में आरक्षण

उमेश चतुर्वेदी

अपने समाज को लोकतांत्रिक बताते नहीं अघाते...लेकिन हकीकत तो यह है कि अब भी सिर्फ अपनी राजनीतिक व्यवस्था ही लोकतांत्रिक ढांचे को अख्तियार कर पाई है। कुछ मसलों में अब भी वह लोकतांत्रिक धारा को अपनाने की प्रक्रिया में भी है। लेकिन अपना समाज और समाज में विमर्श की आधारभूमि अब भी लोकतांत्रिक नहीं हो पाई है। इसलिए कई बार आरक्षण जैसे मसले को लेकर जो विमर्श है, उसमें लोकतांत्रिक उदारता गायब है। इसलिए यहां जब भी कोई आरक्षण के मौजूदा ढांचे और उससे होने वाले फायदे-नुकसान पर सवाल उठाता है, वैसे ही उसे प्रतिगामी या रूढ़िवादी ठहरा दिया जाता है। यही वजह है कि ऐसे मसलों पर आमतौर पर वैसी खुली वैचारिकता नहीं दिख पाती, जिसकी उम्मीद की जाती है।

Friday, September 7, 2012

सिर्फ इतराने का ही मौका नहीं दे रही है क्रिसिल की रिपोर्ट



उमेश चतुर्वेदी
उदारीकरण के दौर में बदहाली और अनदेखी के प्रतीक रहे भारतीय गांव अचानक ही महत्वपूर्ण होते नजर आ रहे हैं। आर्थिक मामलों की शोध और पड़ताल करके साख तय करने वाली संस्था क्रिसिल की रिपोर्ट के चलते गांवों को लेकर आर्थिक उदारीकरण के पैरोकारों का नजरिया बदलता दिख रहा है। क्रिसिल की रिपोर्ट के मुताबिक उपभोग और खर्च के मामले में भारतीय गांवों ने भारतीय शहरों को पछाड़ दिया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक गांवों का खर्च शहरों की तुलना में करीब 19 फीसदी ज्यादा हो गया है। उपभोग और आर्थिक गतिविधियों के केंद्र रहे

सुबह सवेरे में